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Wednesday 13 December 2017

जीवन सुख और दुःख: एक विचार

(जीवन सुख और दुःख : एक विचार)
अगर दिन महीने साल न हो तो उम्र का हिसाब मुमकिन ही न हो। शुक्र है, दिन रात होने से कुछ घटित हो गया लगता है। जीवन बिना रुके चलता है, सतत लगातार। उम्र के पड़ाव दर पड़ाव चलती चली जाती है। सुख दुःख उंसके सबसे गहरे दोस्त है। कभी दोनों साथ चलते है। कभी एक पीछे चलता है, कभी एक आगे। सुख अधिकांश आगे रहता है। आदमी उंसके साथ चलने का प्रयास हमेशा करता रहता और उसका प्रयास दुःख को नजदीक ले जाता है। ऐसा कभी नही होता कि कोई एक कभी नज़दीक ही न रहे। किसी एक को हमेशा के लिए दूर  भी नही किया जा सकता है। आदमी का पूरा जीवन सुख को साथ बुलाने और दुःख को दूर भगाने में ही निकल जाता है। जब जब सुख साथ होता है,  तो वो ऐसे कर्म करेगा कि दुःख स्वतः ही साथ हो लेता है। लेकिन दुःख को दूर करना सबसे कठिन है। सुख से गहरी दोस्ती दुःख को निमंत्रण ही होता है। सुख कभी कभी साथ रहता है। कितनी बार तो दुःख के साथ भी वो नज़दीक आजाता है।।क्या दुःख कभी दूर होता है। शायद नही। अब समझ आया महात्मा बुद्ध की बात की दुःख तो सत्य हींहै। वो तो हमेशा साथ ही रहेगा। अब जब उसको साथ ही रहना है ,तो उससे दोस्ती करें कि उसको महत्व ही देना बंद कर दें। उसका निवारण नही किया तो भी वो ओर बढ़ सकता है। उसको  स्वीकारना ही एक मात्र उपाय है। उंसके साथ रहते हुए भी जीवन को जीना एक मात्र उपाय है।
लेकिन दुःख और सुख किसको कहें ,इसको भी तय करना आसान नही होता। सुख का अतिरेक दुःख ही होता है। सुख पर नियंत्रण उसको लम्बे समय दोस्त बनाये रहता है। इस दोनों दोस्तों को समझना और दोनों के होने से जीवन प्रभावित कम रहे , ऐसी युक्ति ही जीवन को इनके मोह और पीड़ा से दूर रख सकती है। इसके लिए कुछ ऐसा सतत करें ताकि करने से अच्छा लगे। अच्छा ऐसा हो ताकि किसी को कम से कम दुःख और परेशानी रहे। ये इतना आसान नही। सुख अपने साथ मोह और घमंड साथ रखता है। मोह और घमंड आदमी को छदम सुख प्रदान करते  अनुभव होते है। ये ही सबसे अधिक दुःख को निमंत्रण होता है। दुःख तो हर क्षण साथ है।।अगर इन दोनों के होते आदमी अपने काम और लक्ष्य की और बढ़ता रहे , तो इनका होना उसको प्रभावित नही करेगा। बीमार व्यक्ति अगर कभी ठीक नही होगा, जीवन  तो जीना ही है। जीवन जीना है  , ये ही सत्य है। दुःख को अधिक करीब रख कर एक और सुख से वंचित होना है और दूसरी और फिर दुःख के संताप को झेलना होगा। ऐसे में जीवन जीना कठिन ही होगा। एक छोटा सा उदाहरण लेते है। किसी भी तरह की सफलता मिल गई । उससे खुशी होगी और खुशी सुख को निमंत्रण है। लेकिन केवल सुख में डूबने और अधिक खुशी दुःख की आगोश में ले जाता है। जब इसको ही समझ लेना है। इन दोनों को जीने की कला सभी तरह के ज्ञान के उद्विकास का कारण है। एक व्यक्ति बीमार और परेशानियों में भी खुश रह कर जीवन जीता है। लेकिन दूसरी ओर एक व्यक्ति सब कुछ होने के बावजूद भी दुःख के संताप से पीड़ित रहता है। बस ये ही सत्य है।
केवल जीवन जीने की कला जो अपने लक्ष्य की ओर ले जाये , इसकी बहुत अधिक परवाह करें कि दुःख होगा कि सुख । आदमी को लक्ष्य और काम में व्यस्त रखता है। दोनों को स्वीकार करते हुए। जो शायद सबसे अधिक कठिन होगा। लेकिन करना अनिवार्य ही है।करना होगा ही। इनसे ऊपर आनंद, परमानंद, चिदानंद और सदानंद की व्याख्या नाना प्रकार से हुई है।
सौ बातों की एक बात जीवन है तो जीना ही होगा ,अब रो के या खुश हो कर। दुःख बांटने और किसी के दुःख में शरीक होने से वो अपना सा लगता है। संतोष के मर्म को समझ लिया तो ,ये सब साथ भी हो तो जीवन अपनी सहज चाल में चलता जाता है। संतोष का अतिरेक फिर दुःख का कारण है। इसलिए ये सब साथ ही रहेंगे और इनको समझना और जीवन जीना ही एक मात्र सत्य है।
बाकी फिर कभी झोंका आया तो मीमाँसा करेंगे। चारों और ज्ञान का भंडार लुटाया जा रहा है। संत महात्मा और एक से ज्ञानी मौजूद है। लेकिन इन सबके बावजूद भी क्या.............। चर्चा हो ही सकती है।
रमेश मुमुक्षु