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Friday 29 November 2019

सेक्टर 4 द्वारका के तिरस्कारपूर्ण कचरे का रुदन.

सेक्टर 4 द्वारका के तिरस्कारपूर्ण कचरे का रुदन.
कचरे के जन्मदाता मानव तेरे से अज्ञानी इस धरती पर कोई नही। जिस कचरे के सामने जाने से  तू नाक सिकोड़ के चलता है। वो कभी तेरी रसोईघर की शान था। तेरे फ्रिज की शोभा और तेरी जीभ के स्वाद का  द्योतक। महामूर्ख जब तू गांव में बसता था ,तेरे पुरखे जो की अक्षरज्ञान से दूर थे ,उनके आस पास कचरा होता ही नही था। वो फलों के छिलके को ,बची कुछ सब्जी के पत्ते और डंठल को अपने पशु को से देता था ,या एक स्थान पर रख दिया करता था। जो अगले एक साल में खाद बन जाती थी। 
तेरी अक्ल ने ही प्लास्टिक पैदा किया।मुझे याद है तू किस तरह कुप्पा सा फूल गया था।प्लास्टिक को तूने अमर बनाने की कोशिश की और वो कोशिश तेरे जी का जंजाल बन गया। प्लास्टिक भी मुक्ति चाहता है। उसमें सब कुछ मिलकर तड़प तड़प के जान देते है। उनको सांस लेने की जगह नही मिलती। कितनी बार निरीह प्राणी उसको निगल कर दर्दनाक मौत मरते है। 
मूढ़मते जैविक अवशेष कूड़ा नही होता। तू  पार्क बनाता है और पतझड़ को कोसता है। पतझड़ खाद की ओर जाने की यात्रा है। बसंत से नए पत्तों यात्रा का आरंभ होता है।  महामूर्ख पत्तों  से खाद निर्मित होती है। किसी जंगल में जाकर  सीख जहां कुछ भी कचरा नही होता। प्रकृति सब कुछ अपने आँचल में समा लेती है।
हे एम सी डी के कर्णधारों शीघ्रता से मेरा तर्पण करो । मुझे अलग करो ताकि में अगली योनी में प्रवेश कर सकूं। घर से बचे कुछ जैविक खजाने को उसके उचित स्थान तक पहुंचा दो ,ताकि वो समय से खाद में परिवर्तित हो सके। जो आज सूखा पत्ता है कभी वो कोंपल के रूप में अस्तित्व में आया होगा। फिर रंग बदलता हुआ, हरा एवं पीला होता हुआ , सूखने लगा होगा। सूख कर वो अपने जन्मदाता पेड़ में खाद का रूप लेकर अपने अस्तित्व को पेड़ की नई कोंपलों और बीजो के रूप में आहूत कर डालता है। मूर्ख वो कूड़ा नही  होता कूड़ा तेरे दिमाग में भरा है। इसलिए तूने सारी वैविध्यपूर्ण पूर्ण धारा को कचरा घर बना दिया है। जो भी तूने लोभ से बनाया, वो तेरा ही काल बनकर तुझे लील लेने को आतुर है। तू अपने को स्वयंभू समझने लगा। प्लास्टिक और रासायनिक खाद आज तेरे लिए काल बन कर तेरे अस्तित्व को  चुनौती दे रहे है और तू ठगा सा अगल बगल झांक रहा है। हज़ारों वर्ष तू भी प्रकृति की चाल चलता रहा। अभी एक  शताब्दी के आस पास तूने प्रकृति की लय ही बिगाड़ने का काम किया है। तस्वीर तेरे सामने है। धरती जीतने  जीतने वाले एक बटन दबाकर तू अपने अस्तित्व को मिटा सकता है। लेकिन तू चिंता न कर तू कचरे से ही मर लेगा।
जल, वायु और समस्त दूषित कर कर दिया है। तू दूषित हवा और पानी से ही मर सकता है। एक पल ऑक्सीजन न मिले तो तेरा धरती से लोप ही हो जाये और तू अपने को विश्व विजयी समझता है।
धरती एक है ,तूने इसको अपनी खंडित सोच से खंड खंड कर डाला। लेकिन प्रकृति की चाल को रोकना तेरे बूते की बात नही। अभी दुनियां मुझे कचरा समझ कर घृणा करता है। ये तेरे भीतर छिपी गंदगी का परिचायक है। अगर तू घर से ही अलग अलग गीला सूखा कर ले ,तो कचरे के ढेर क्यों लगे? अब कचरा बढ़ गया तो  नए नए महंगे तरीके खोजों और उलझते रहो। अब तो चेत जा नही तो  फिर कब चेतेगा। अब झेल मेरे इस अवस्था से निकलने वाली गैसों और लीचट को , सूंघ बदबू और अपने पवित्र पावन शरीर को नाना बीमारियों का घर बना ले। जब हम प्रकृति में थे, उस वक्त तितलियां और मधु मक्खियों शहद बनाती थी। अब हमारी तूने ऐसी गत कर दी ,अब हमारे इस मिक्स कचरे में विषैले तत्व और विषाणु पैदा होंगे ,जो तुझे आराम से जीने नही देंगे।  तू अपनी मौत खुद ही मरेगा और अपनी गलती से ही सब कुछ झेलने को मजबूर होगा। हम तो कचरा बन झेल ही रहे है। ओ एम सी डी के कर्णधारों मेरा तर्पण करो।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,हिमाल 
29. 11.2019

द्वारका सेक्टर 5 आशीर्वाद चौक के सामने के कब्जे पर निर्मित हो रहे धर्मिक स्थल की आत्म व्यथा

द्वारका सेक्टर 5 आशीर्वाद चौक के सामने  कब्जे  पर निर्मित हो रहे धर्मिक स्थल की आत्म व्यथा
हे टैक्स पेयर्स मानव तूने मुझे डी डी ए की जमीन पर सेक्टर 5 मार्किट ठीक आशीर्वाद चौक पर ,एस डी एम सी के बेंच के सामने स्थापित करने का घोर पाप किया है। न तो तूने इस जमीन की गुणवत्ता की खोज की और न ही वास्तुशास्त्र के नियमों का पालम किया। बस पुरानी मूर्तियों के सहारे नुक्कड़ के मंदिर की स्थापना की कोशिश भूमि पर कब्जे के लिए की ,जो तेरा एक तरीका बन गया है। मुझे मालूम है ,हे मूर्ख मानव तेरे पुरखे धार्मिक स्थान की स्थापना के लिए भूमि का चयन करते थे ,वो भी दोषरहित भूमि का । तदनुसार प्रतिमा की विधिसंवत प्राणप्रतिष्ठा का अनुष्ठान संपन्न होता था। लेकिन ये तो कब्जे की जमीन है। भूमि के मालिक डी डी ए को  इसकी चिंता नही की उनकी मिल्कियत पर ये ये मानव कब्जा कर रहा है। हे डी डी ए तुझे अभी भी जिम्मेदारी का अहसास नही ,तेरी 1300 एकड़ अधिग्रहित  कृषि  भूमि पर कब्जा हो चुका है। 
 एस डी एम सी ने  यहां पर बेंच लगवा दिए। मानव की कमजोरी से बने विभाग ठीक उसके जैसे ही कार्य कर रहे है।
*विनती* मेरी भद्र समाज से करबद्ध विनंती है, मेरे को इस कब्जे की भूमि से तुरंत हटवा दो। वरना ये मानव मुझे इतना फैला देगा कि मैं हमेशा के लिए कैद हो जाऊंगा।
मुझे स्थापित करना ही है तो कब्जे की भूमि पर नही , बल्कि लीगल जमीन पर अपने पुरखों की तरह धार्मिक विधिनुसार करो।
हे    मार्किट एसोसिएशन   के पदाधिकारियों,   निगम के पार्षदों , उच्च  डी डी ए के उच्चाधिकारियों  ,  अपने मेठों को कहे कि कब्जे को पक्का करने की बजाए ,सही रिपोर्ट रिपोर्ट विभाग को दें। मुझे मुक्ति दो ताकि तेरे पाप तनिक कम हो सकें।
रमेश मुमुक्षु

Saturday 16 November 2019

पेड़ की आत्मकथा

पेड़ की आत्मकथा
मेरे मनुष्य भाई तूने दुनिया में कमाल ही कर दिया। जब मैंने होश संभाला तो  मैं खेतो के बीच खुश था। उस वक्त शांति ही शांति थी। तू भी मेहनत करता था। मेरी छाया में तूने दशकों गुजार दिए थे। मेरे पास पक्षी हमेशा रहते थे। हवा भी दूर से ही हाथ हिला देती थी। मुझसे मिलकर हवा दूर बह जाती थी। वर्षा तो धीमे धीमे मुझसे बातें करती रहती थी। बेलों के गले में घंटियां संगीत सुनाती थी। हल बेल में तेरे प्राण बसते थे। चारों और रंग बिरंगी तितली उड़ती कितनी सूंदर लगती थी। लहलहाते खेतों से बातचीत
होती थी। सरसों के फूलों पर मधुमखियों की कतारें गुनगुनाती उड़ती रहती थी और मेरी डालियों पर छत्ते बनाकर  शहद का आनंद देती थी। धुंधलका होते ही सब ओर शांति और नीरवता छा जाती थी। मेरी सेहत भी कितनी अच्छी रहती थी।
लेकिन देखते ही देखते सब कुछ बदल गया। खेत खत्म हो गए। सारे मेरे साथी पेड़ और झाड़ियां खत्म कर दी गई। कितने हमारे साथी कीट पतंग और पक्षी आज न जाने कहाँ पर खो गए। शाम होते ही मेरे गीदड़ साथी आ जाते थे।  अब कही खो गए। मेरे जन्म से ही मैंने शांति ही देखी थी। लेकिन ये मानव न जाने क्या क्या बनाता चला गया। सब ओर कंक्रीट के जंगल उग गए। सड़क और उनपर शोर मचाती गाड़ियां रात दिन गुजरती है। आकाश में गिद्ध की जगह आजकल हवाई जहाज उड़ते है।
पहली बार जब इन सब की आवाज सुनी थी ,तो कितना डर लगता था। लेकिन अब सब एक जैसा ही हो गया। हवा इतनी दुःखी और बीमार रहने लगी है। मज़े की बात है ,ये मानव ही है,जिसने हवा को बीमार किया है। अब खुद ही मास्क लगाकर घूमता है। कितनी बार शरीर छोड़ने का मन करता है। लेकिन मेरी  जड़ों की साथी  मिट्टी अकेली न पड़ जाए। इसलिए जिंदा हूँ। एक तरफ सड़क और गाड़ी और दूसरी ओर सीमेंट की बिल्डिंग। बस अब तो पुराने दिन याद करना ही हुआ।हवा नही, पानी नही और जो है,वो दूषित है। मेरे नीचे कोई नही आराम करता । अब केवल धुप  से बचने के लिए अपनी गाड़ी खड़े करते है। गाड़ी भी उदास खड़ी रहती है। क्या जीवन है,इसका दौड़ते रहे और ढोते रहो? 
  आजकल  सूरज भी कही खो गया लगता है। चांद की चमक भी धूमिल होती गई है। अजीब है,ये मानव पहले बनाता है,फिर आपस में झगड़ता है। सांस तक नही ले पाता है। लेकिन सब कुछ गंदा करता है। मैं अभी कितनी उम्र का हो गया हूँ, लेकिन अभी मुझे ये मानव जिसने मेरी छाया में कड़कती धूप में कितना आराम किया , भूल ही गया लगता है। ये सब कुछ भूल गया । हवा और पानी की मिठास और खुशबू ,ये अब नही रखता है,याद। जिस डाल पर बैठा है,उसको ही काट रहा है। मुझे याद नही आता कि पहले गंदगी भी होती थी। जो भी फेंकता था ,वो खाद बनती जाती थी। कितना मूर्ख है,पहले पन्नी पन्नी को देख खुश हो जाता था। अब पन्नी के नाम से भी डरता है। कितने मेरे साथी बिचारे पन्नी के कारण ही जान धो बैठे। मैं इसके ही मुँह से सुनता था " बोये बीज बाबुल का ,फल काहे को होये" । 
अभी मिट्टी के लिए , कीट पतंग और कुछ पक्षी के लिए जिंदा रहना ही होगा। खुद ही बिगाड़ता  करता है, खुद ही रोता है। खुद ही गंदा करता है और खुद ही साफ करने के लिए शोर भी करता है। अभी तो एक और अचरज की बात सुनी है, उस दिन मैना बता रही थी कि अब ये आप जैसे बूढ़े पेड़ों को उखाड़ कर कही  और भी लगा देता है। मुझे सुनकर डर भी लगा। भला ये मेरी जड़ों को उखाड़ कर मुझे कही और गाड़ देगा। कैसा दुष्ट मानव है, खुद कहता फिरता है,अपनी जड़ों को मत काटों , नही तो जीवित नही रह सकोगें। लेकिन हमारी जड़ों को उखड़ते हुए ,इसको कोई भावना नही रही। जब ये खुद का भला नही सोच सकता तो भला हम जैसे पेड़ों का भला क्या सोचेगा? ये तो शुक्र है,कुछ हम से प्रेम करने वाले मानव है। इसी कारण इस पर अंकुश है। अभी हवा को दूषित करके हम पेड़ों की याद इसको आ रही  है। लेकिन "अब पछताए क्या होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत", इसके मुख से ही सुनता आया हूँ।ये खुद ही अपने शोर शराबे से परेशान है।
आधी रात से भोर होने तक कुछ शांति मिलती है। सुबह होते ही , फिर चिल्ल पो आरम्भ। इसकी माया को देख हंस लेता हूँ। रात होने लगी है, सुस्ता लूँ , अभी रात होने के  साथ पक्षी भी आते  होंगे। जब तक जीवन है, देखते है ,ये सब और करता हूँ ,याद बचपन की ,जो  न जाने कहाँ पर पीछे छूट गया है।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल
15.11.2019