सी सी आर टी के पिछले गेट के सामने सड़क की रेलिंग पर पड़े उपेक्षित गड्ढे की आत्मव्यथा
उपेक्षा का दर्द कितना कचोटा होगा, ये वो ही समझ सकते है, जिन्हें इसका एहसास कभी होता होगा। मैं एक गद्दा हूँ ,गद्दे के बिना मनुष्य का कोई वजूद नही। कितनी हसरत से ये मनुष्य गद्दा खरीदता है। कितना खुश होता है, खरीदते हुए। शादी विवाह में ये गद्दे के बिना शादी भी नही करता। मुझे भी अच्छा लगता है ,जब मनुष्य मुझे इस्तेमाल करता है। थका हुआ , बाहर से आकर जब मुझे पर पसर जाता है तो स्वर्ग का आनंद आता है, इसको। दाम्पत्य जीवन का आधार गद्दा ही होता है। ये जग जाहिर है।
अपनी शानो शौकत से आदमी गद्दा खरीदता है। गरीब और अमीर सभी किसी न किसी गद्दे पर सोते ही है।
मैं भी कभी एक खूबसूरत गद्दा था। मुझे भी कोई बड़े शौक से लाया था। मुझे भी बड़े सम्मान से रखा गया था। मुझ पर नई नई चादर डाली जाती थी। मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। लेकिन ये मनुष्य कितनी बार जब अपने माँ बाप का भी तिरस्कार कर देता है ,तो मैं तो बेजुबान गद्दा ही हूँ। एक दिन मुझे भी बाहर निकाल दिया गया। एक ताज्जुब की बात है, जब हम गद्दे बाहर कर दिए जाते है, उस समय हमारी बेकद्री शुरू हो जाती है।हर कोई हमें उपेक्षा और तिरस्कारपूर्ण फेंक देता है।
मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ , कोई बेदर्दी और नकारा किस्म का आदमी मुझे द्वारका सेक्टर 7 , नई दिल्ली में स्थित सांस्कृतिक संस्थान सी सी आर टी के पिछले गेट के सामने सड़क की रेलिंग पर लटका गया। मुझे लगा था कि जल्दी ही मुझे कही और ले जाया जाएगा। लेकिन महानुभावों मैं इस रेलिंग पर बेताल की तरह लटका हुआ हूँ।लेकिन अभी तक कोई विक्रमादित्य प्रकट नही हुआ। ऐसे नही की यहां पर कोई आता नही है। कुछ डी डी ए नाम के विभाग से यहां पर लोग कुछ कुछ काम करने आते है। बागवानी विभाग से भी आते है, लेकिन मेरे नीचे कुछ पौधे और खोद कर जाते है, लेकिन वो मेरी ओर देखते भी नही। इतना ट्रैफिक मेरे को पिछले कई महीनों से देख रहे है, लेकिन किसी का ह्रदय नही पिघला। इतना उपेक्षित तो कूड़ा भी नही होता है। मेरे पुर्वज प्राकृतिक संसाधन से बनाया करते थे। मेरा तर्पण प्राकृतिक तौर हो जाया करता था। मेरे पुरखे जमीन में विलीन हो जाया करते थे। लेकिन मैं कृत्रिम पदार्थों से बना हूँ, न मैं विलीन होता हूँ ,न मेरा शरीर पहले जैसा रहता है।
कब मेरा तर्पण होगा। बहुत बार मैंने देखा है कि एमसीडी की गाड़ी बगल से निकल जाती है। उसने भी कभी मेरी ओर नही देखा। कभी कभी द्वारका की सफाई का अभियान भी चला ,रेस्जिडेंट्स मार्च करके ,मेरे बगल से बिना देखे निकल गए।
मेरा सभी डी डी ए ,एमसीडी और सभी द्वारका वासियों से करबद्ध विनती है कि मेरा उद्धार कर दें। मेरे कृत्रिम शरीर में कोई विषाणु और कीटाणु भी नही पनपते है। ये मानव ने अपनी सुविधा के लिए विकास का ऐसा मॉडल चुना की उसके लिए सिरदर्द ही बनता गया है।
मेरे पुरखे कपास, नारियल , पुराने कपड़े से बनते थे। वो कहीँ न कहीं इस्तेमाल हो जाते थे। लेकिन मेरा शरीर मुक्ति को तरस रहा है। देखते है, कौन मेरा तर्पण करने आएगा। मैं बेताल से विक्रमादित्य के इंतजार में आंखे बिछाए हूँ। मुझे फ़िल्म का एक गाना याद आता है " हुजूर आते आते बहुत देर कर दी....
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल,
9810610400
17.12.2020