बचपन में बैंड बाजे वालों को देख कभी कभी दया भी आती थी। शादी का सबसे मुख्य आकर्षण होता था ,बारात का बैंड बाजा, जिसके बिना शादी कहां शादी लगती है। आज वर्षो बाद बैंड वालों को को दीवार पर टेक लगाए लोधी कॉलोनी में देखा तो बचपन की छवि उभर आई। संगीत मन को प्रफुल्लित कर देता है। लेकिन ये बैंड बाजे वालों को चेहरों पर उत्साहहीनता साफ झलक जाती है। कोई उमंग नही ,कोई जोश नही। कुछ खास धुन को ही बजाते रहते थे। "देश है,वीर जवानों का" आज मेरे यार की शादी है" 70 के दशक में " शीशी भरी शराब की पत्थर पे तोड़ दूं" खासतौर पर सुबह विदाई के समय ठंड के मौसम में आंखों में नींद और लगभग कांपते हुए , धुन " बाबुल की दुवाएं लेती जा" अभी भी बचपन की यादों में ले गई।
इतना कुछ बदल गया। शादी अब इवेंट्स बन चुकी है । टेंट से गुजरती हुई डेस्टिनेशन मैरिज तक आ गई, लेकिन ये बैंड बाजे वाले आज तक वहीं खड़े लगते है। पहले से ही कुछ लोग कंधो पर लाइट उठा कर चलते थे। कुछ बड़े बैंड ,जैसे हिंदू जिया बैंड , में कपड़े अच्छे होते थे। बाकी की हालत खस्ता रहती थी।
देखना है कि कब इनके चेहरों पर रौनक आयेगी और आयेगी ताजगी, ये तो देखना ही होगा।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
1.2.2023