हिंदी दिवस : आओ विचार करें
हिंदी दिवस और पखवाड़ा इस बात का परिचायक है कि अभी हिंदी राज्य भाषा नही बन सकी है। वैसे भी हिंदी के बड़े परिवार से बहुत सी भाषा अपना अलग घर बसा चुकी है और बहुत सी लाइन में खड़ी है। इस तरह हिंदी का कद छोटा होता जा रहा है। हालांकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है ,जिन्हें इंग्लिश नही आती । लेकिन इसका अर्थ ये नही है कि हिंदी का चलन बढ़ा है। हिंदी का कद फ़िल्म , फिल्मी गाने और टीबी सीरियल से बढ़ा है। लेकिन शिक्षा के प्रसार में अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ने वाली की संख्या अधिक होती जा रही है। गैरसरकारी और निजी स्कूल का चलन केवल अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई के कारण बढ़ा है।
आजकल बच्चे हिंदी में गिनती तक भूल गए और दूसरी और अंग्रेज़ी में भी बच्चे पारंगत नही है। लिखने में तो थोड़ा बहुत लिखने और रटने से काम चल जाता है। लेकिन बोलने में अभी भी पिछड़े है। लेकिन लोग इससे भी खुश है कि उनका बच्चा अंग्रेजी में पढ़ रहा है। अभी भी समाज में अंग्रेज़ी जानने वाले का सम्मान अधिक होता है। इस मानसिकता ने भी हिंदी के प्रति उदासीनता पैदा की है। नौकरी तो एक कारण है ही। कुछ वर्ष पूर्व हिंदी मीडियम से किसी विद्यार्थी ने राजनीति शास्त्र में प्रथम स्थान प्राप्त किया, ये जानकर सबको ताज्जुब हुआ। विद्यार्थी को ये जानकर बुरा लगा , तब मैंने उस विद्यार्थी को कहा कि इसमें हतोत्साहित होने की कोई बात नही है क्योंकि जो प्रोफेसर भी है, वो प्लूटो का अनुवाद इंग्लिश में पढ़ते है, तुमने हिंदी में पढ़ा तो क्या अंतर पढ़ गया? ये सब भीतर गहरे में पूर्वाग्रहों के कारण होता है।
लेकिन गूगल ने लोगो को हिंदी लिखना सिखा दिया। आजकल बहुत लोग जिनको हिंदी टाइप नही आती वो भी हिंदी टाइप कर लेते है। मैं स्वयं इसी तरह टाइप करता हूँ।
सरकारी विभाग में भले आप हिंदी में लिखे , लेकिन जबाव अंग्रेज़ी में ही आएगा। कम से कम केंद्र सरकार में तो हिंदी अनुभाग केवल अनुवाद के लिए ही खुले हुए है। संसदीय प्रश्न का अनुवाद हिंदी में होना अनिवार्य है, वो भी इस कारण ।अभी स्मार्ट फोन आने से लोग हिंदी का भी इस्तेमाल भी करने लगे है।
हिंदी को राज्य भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन इसलिए भी है क्योंकि अन्य राज्यों के नागरिक इसको अपने ऊपर हिंदी तो थोपना कहते है। इसका एक कारण हो सकता है कि भारत में अन्य भाषाओं को समुचित सम्मान नही मिला। स्कूल में विदेशी भाषा का विकल्प रहता है। आजकल संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन तमिल और अन्य भाषा का भी समृद्ध इतिहास रहा है। उन भाषाओं को स्कूल में एक विकल्प के रूप में क्यों उचित सम्मान नही मिलता? ये सोचने का विषय है। ये भी विडंबना है कि लोग विदेशी साहित्य को जानते है ,लेकिन तमिल जैसी समृद्ध , प्राचीन और परिष्कृत भाषा के इतिहास के संगम काल को नही जानते, जो ईसवी पूर्व चरमोत्कर्ष पर था।
हालांकि जवाहर नवोदय विद्यालयों में बच्चों को किसी अन्य राज्य में जाकर रहना होता है और उसकी भाषा सीखनी होती है। लेकिन मेरा दावा है ,इस विषय में सब लोग नही जानते। इसलिए हमें भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए। शिक्षा नीति 2020 में मातृ भाषा में शिक्षा के साथ अन्य भाषा के विकल्प का प्रावधान रखा है। इसके ठोस रूप से लागू होने से इसमें मूल रूप से परिवर्तन आ सकेगा, उम्मीद तो की ही जा सकती है।
एक बात तो हम सब स्वीकर कर ही लेंगे की हिंदी में पूरे देश की संपर्क भाषा होने का सामर्थ्य कहूँ या संभावना, इस बात से इनकार नही किया जा सकता। हिंदी भाषा को आप किसी भाषा या बोली की तरह बोल सकते है , हिंदी भाषा का हिंदीपन खत्म नही होता। तमिल हिंदी , गुजराती हिंदी आदि बन कर भी हिंदी ही रहेगी । लेकिन किसी अन्य भाषा को हिंदी की तरह नही बोला जा सकता क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वो हिंदी ही हो जाएगी। हिंदी में नए शब्दो को अपने भीतर समाहित करने की काबलियत है, इसलिए हिंदी का आकार समय के साथ भी बढ़ता रहता है। कुछ लोग शुद्ध हिंदी की बात करते है ,लेकिन हिंदी अपने साथ विभिन्न शब्दों को लेकर चलती है। इसी कारण उसमें सम्प्रेषण की असीम संभावना है, इसलिए इस भाषा में संपर्क भाषा होने का गुण तो है। हिंदी परिवार से निकली राजस्थानी, मैथिली, ब्रज और अन्य भाषा भले वो अपनी अलग पहचान बना ले , लेकिन हिंदी की तरह संपर्क भाषा का स्थान नही ले सकती। भारत में किसी भी राज्य में आज भी हिंदी भाषा के कारण संपर्क हो सकता है। हालांकि अभी अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित किया जा रहा है। 90 के दशक में सरस्वती शिशु मंदिर का प्रचार इसलिए अधिक हुआ क्योंकि उसमें अंग्रेज़ी भाषा प्रथम कक्षा से पढ़ाई जाने लगी थी। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों ने हिंदी धर्म और संस्कृति का कितना प्रचार और प्रसार किया ,ये कहा नही जा सकता । लेकिन अंग्रेज़ी के प्रति दूर दराज में रहने वालों का भी आकर्षण बड़ा ही है।
डंडे के बल पर इसको लागू नही किया जा सकता है। जिनको हिंदी आती है , उनको तो इसका उपयोग करना ही चाहिए। सामाजिक , धार्मिक और अन्य क्षेत्रों में अंग्रेज़ी और हिंदी वालों का अंतर दीख पड़ता है। कोर्ट कचेरी में अधिकांश काम अंग्रेज़ी में होता है। निचली अदालत में ज़िरह जरूर हिंदी या लोकल बोली में होती है, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो अखबार की खबर का भी अनुवाद करना होता है। जज केवल अंग्रेज़ी में ही ज़िरह करते है। क्लाइंट जिसके केस पर ज़िरह होती है, वो समझ ही नही पाता कि क्या हो रहा है। ये सब चीज़े लचीली होनी चाहिए। किसी भी भाषा को संपर्क भाषा तो होना ही है। अभी लोग दक्षिण में पढ़ रहे है। इस तरह उनको उसी राज्य की भाषा को जानना चाहिए । लेकिन वहां भी लोग हिंदी , जो अपने तरह से बोली जाती है , का इस्तेमाल करने लगे है। किसी ने कहा नही की हिंदी का इस्तेमाल करो। लेकिन वो एक संपर्क भाषा के रूप में स्वतः ही पहुँच गई। ये हिंदी को लाभ है। जैसे अंग्रेज़ी अलग देशों में उसी तरह बोली जाती है। लेकिन वो होती अंग्रेज़ी ही है। बहुत से लोग संस्कृत को संपर्क भाषा के रूप में प्रचारित करते है। संस्कृत पढ़ाई जाए । लेकिन वो हिंदी की जगह लेगी , फिलहाल संभव नही है। अभी जो लोग संस्कृत के जानते है, वो ही आपस में संस्कृत नही बोलते है। इसलिए सभी भाषा का सम्मान और उनके इतिहास की जानकारी से सारी भाषा नजदीक आएगी। इस संदर्भ में जवाहर नवोदय विद्यालय ने जो पहल की है। इसके लिए राजीव गांधी के विज़न जिसमे दूरभाष और कंप्यूटर के साथ स्कूल में ही बच्चे एक अन्य भाषा भी सीख लेते है, एक बहुत बड़ा कदम था। इस तरह के ताने बाने से ही हिंदी के प्रति लोगो को गुस्सा नही आएगा, बल्कि उनकी भाषा और बोली को यथोचित सम्मान न मिलने से वो हिंदी के विरुद्ध बोलते है।
इसलिए उस दिन का इंतजार तो रहेगा जब हिंदी सप्ताह मनाना बन्द होगा और लोग अंग्रेज़ी को याद करेंगे। लेकिन अंग्रेजी पढ़ेंगे जरूर। क्या आएगा ऐसा दिन ? ये सोचने का विषय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
15.9.2017
14.9.2021 (पुनः बदलाव के साथ पोस्ट किया है)
14.9.2022( पुनः बदलाव के साथ पोस्ट किया है)