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Tuesday 14 September 2021

हिंदी दिवस : आओ विचार करें

हिंदी दिवस : आओ विचार करें
हिंदी दिवस और पखवाड़ा इस बात का परिचायक है कि अभी हिंदी राज्य भाषा नही बन सकी है। वैसे भी हिंदी के बड़े परिवार से बहुत सी भाषा अपना अलग घर बसा चुकी है और बहुत सी लाइन में खड़ी है। इस तरह हिंदी का कद छोटा होता जा रहा है। हालांकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है ,जिन्हें इंग्लिश नही आती । लेकिन इसका अर्थ ये नही है कि हिंदी का चलन बढ़ा है। हिंदी का कद फ़िल्म , फिल्मी गाने और टीबी सीरियल  से  बढ़ा है। लेकिन शिक्षा के प्रसार में अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ने वाली की संख्या अधिक होती जा रही है। गैरसरकारी और निजी स्कूल का चलन केवल अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई के कारण बढ़ा है। 
आजकल बच्चे हिंदी में गिनती तक भूल गए और दूसरी और अंग्रेज़ी में भी बच्चे पारंगत नही है। लिखने में तो थोड़ा बहुत लिखने और रटने से काम चल जाता है। लेकिन बोलने में अभी भी पिछड़े है।  लेकिन लोग इससे भी खुश है कि उनका बच्चा अंग्रेजी में पढ़ रहा है। अभी भी समाज में अंग्रेज़ी जानने वाले का सम्मान अधिक होता है। इस  मानसिकता  ने भी हिंदी के प्रति उदासीनता पैदा की है। नौकरी तो एक कारण है ही। कुछ वर्ष पूर्व हिंदी मीडियम से किसी विद्यार्थी ने राजनीति शास्त्र में प्रथम स्थान प्राप्त किया, ये जानकर सबको ताज्जुब हुआ। विद्यार्थी को ये जानकर बुरा लगा , तब मैंने उस विद्यार्थी को कहा कि इसमें हतोत्साहित होने की कोई बात नही है क्योंकि जो प्रोफेसर भी है, वो प्लूटो का अनुवाद इंग्लिश में पढ़ते है, तुमने हिंदी में पढ़ा तो क्या अंतर पढ़ गया?  ये सब भीतर गहरे में पूर्वाग्रहों के कारण होता है। 
लेकिन गूगल ने लोगो को हिंदी लिखना सिखा दिया। आजकल बहुत लोग जिनको हिंदी टाइप नही आती वो भी हिंदी टाइप कर लेते है। मैं स्वयं इसी तरह टाइप करता हूँ। 
सरकारी विभाग में भले आप हिंदी में लिखे , लेकिन जबाव अंग्रेज़ी में ही आएगा। कम से कम केंद्र सरकार में तो हिंदी अनुभाग  केवल अनुवाद के लिए ही खुले हुए है। संसदीय प्रश्न का अनुवाद हिंदी में होना अनिवार्य है, वो भी इस कारण ।अभी स्मार्ट फोन आने से लोग हिंदी का भी इस्तेमाल भी करने लगे है। 
हिंदी को राज्य भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन इसलिए भी है क्योंकि अन्य राज्यों के नागरिक इसको अपने ऊपर हिंदी तो थोपना कहते है। इसका एक कारण हो सकता है कि भारत में अन्य भाषाओं को समुचित सम्मान नही मिला। स्कूल में विदेशी भाषा का विकल्प रहता है। आजकल संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन तमिल और अन्य भाषा का भी समृद्ध इतिहास रहा है। उन भाषाओं को स्कूल में एक विकल्प के रूप में क्यों उचित सम्मान नही मिलता? ये सोचने का विषय है।  ये भी विडंबना है कि लोग विदेशी साहित्य को जानते है ,लेकिन तमिल जैसी समृद्ध , प्राचीन और परिष्कृत भाषा के इतिहास  के संगम काल को नही जानते, जो ईसवी पूर्व चरमोत्कर्ष पर था।
हालांकि जवाहर नवोदय विद्यालयों में बच्चों को किसी अन्य राज्य में जाकर रहना होता है और उसकी भाषा सीखनी होती है। लेकिन मेरा दावा है ,इस विषय में सब लोग नही जानते। इसलिए हमें भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए। शिक्षा नीति 2020 में मातृ भाषा में शिक्षा के साथ अन्य भाषा के विकल्प का प्रावधान रखा है। इसके ठोस रूप से लागू होने से इसमें मूल रूप से परिवर्तन आ सकेगा, उम्मीद तो की ही जा सकती है।
एक बात तो हम सब स्वीकर कर ही लेंगे की हिंदी में पूरे देश की संपर्क भाषा होने का सामर्थ्य कहूँ या  संभावना, इस बात से इनकार नही किया जा सकता। हिंदी भाषा को आप किसी भाषा या बोली की तरह बोल सकते है , हिंदी भाषा का हिंदीपन खत्म नही होता। तमिल हिंदी , गुजराती हिंदी आदि बन कर भी हिंदी ही रहेगी । लेकिन किसी अन्य भाषा को हिंदी की तरह नही बोला जा सकता क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वो हिंदी ही हो जाएगी।  हिंदी में नए शब्दो को अपने भीतर समाहित करने  की काबलियत है, इसलिए हिंदी का आकार समय के साथ भी बढ़ता रहता है। कुछ लोग शुद्ध हिंदी की बात करते है ,लेकिन हिंदी अपने साथ विभिन्न शब्दों को लेकर चलती है। इसी कारण उसमें सम्प्रेषण की असीम संभावना है, इसलिए इस भाषा में संपर्क भाषा होने का गुण तो है। हिंदी परिवार से निकली राजस्थानी, मैथिली, ब्रज और अन्य भाषा भले वो अपनी अलग पहचान बना ले , लेकिन हिंदी की तरह संपर्क भाषा का स्थान नही ले सकती। भारत में किसी भी राज्य में आज भी हिंदी भाषा के कारण संपर्क हो सकता है। हालांकि अभी अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित किया जा रहा है। 90 के दशक में सरस्वती शिशु मंदिर का प्रचार इसलिए अधिक हुआ क्योंकि उसमें अंग्रेज़ी भाषा प्रथम कक्षा से पढ़ाई जाने लगी थी। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों ने हिंदी धर्म और संस्कृति का कितना प्रचार और प्रसार किया ,ये कहा नही जा सकता । लेकिन अंग्रेज़ी के प्रति दूर दराज में रहने वालों का भी आकर्षण बड़ा ही है। 
डंडे के बल पर इसको लागू नही किया जा सकता है। जिनको हिंदी आती है , उनको तो इसका उपयोग करना ही चाहिए। सामाजिक , धार्मिक और अन्य क्षेत्रों में अंग्रेज़ी और हिंदी वालों का अंतर दीख पड़ता है। कोर्ट कचेरी में अधिकांश काम अंग्रेज़ी में होता है। निचली अदालत में ज़िरह जरूर हिंदी या लोकल बोली में होती है, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो अखबार की खबर का भी अनुवाद करना होता है। जज केवल अंग्रेज़ी में ही ज़िरह करते है। क्लाइंट जिसके केस पर ज़िरह होती है, वो समझ ही नही पाता कि क्या हो रहा है। ये सब चीज़े लचीली होनी चाहिए। किसी भी भाषा को संपर्क भाषा तो होना ही है। अभी लोग दक्षिण में पढ़ रहे है। इस तरह उनको उसी राज्य की भाषा को जानना चाहिए । लेकिन वहां भी लोग हिंदी , जो अपने तरह से बोली जाती है , का इस्तेमाल करने लगे है। किसी ने कहा नही की हिंदी का इस्तेमाल करो। लेकिन वो एक संपर्क भाषा के रूप में स्वतः ही पहुँच गई। ये हिंदी को लाभ है। जैसे अंग्रेज़ी अलग देशों में उसी तरह बोली जाती है। लेकिन वो होती अंग्रेज़ी ही है। बहुत से लोग संस्कृत को संपर्क भाषा के रूप में प्रचारित करते है। संस्कृत पढ़ाई जाए । लेकिन वो हिंदी की जगह लेगी , फिलहाल संभव नही है।  अभी जो लोग संस्कृत के जानते है, वो ही आपस में संस्कृत नही बोलते है। इसलिए सभी भाषा का सम्मान और उनके इतिहास की जानकारी से सारी भाषा नजदीक आएगी। इस संदर्भ में जवाहर नवोदय विद्यालय ने जो पहल की है। इसके लिए राजीव गांधी के विज़न जिसमे दूरभाष और कंप्यूटर के साथ स्कूल में ही बच्चे एक अन्य भाषा भी सीख लेते है, एक बहुत बड़ा कदम था। इस तरह के ताने बाने से ही हिंदी के प्रति लोगो को गुस्सा नही आएगा,  बल्कि उनकी भाषा और बोली को यथोचित सम्मान न मिलने से वो हिंदी के विरुद्ध बोलते है।
इसलिए उस दिन का इंतजार तो रहेगा जब हिंदी सप्ताह मनाना बन्द होगा और लोग अंग्रेज़ी को याद करेंगे।  लेकिन अंग्रेजी पढ़ेंगे जरूर। क्या आएगा ऐसा दिन ? ये सोचने का विषय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
15.9.2017
14.9.2021 (पुनः बदलाव के साथ पोस्ट किया है)
14.9.2022( पुनः बदलाव के साथ पोस्ट किया है)

Monday 6 September 2021

पेड़ और विकास : अरावली की सुबह

पेड़ और विकास : अरावली की सुबह
4.8.2018 
अभी सुबह मोर  और पक्षियों के कलरव ने  नींद खोल दी। बाहर देखा तो गुडगांव फेज 3 के पीछे अरावली के अवशेष और दूर जहां तक नज़रें जाती है , जंगल का वितान तना है। सच शहरों की बालकनी में खड़े होकर ऐसा दृश्य देखते ही बनता है। जंगल प्रकृति के सबसे खूबसूरत उपहार है। व्यक्तिगत रूप से मुझे मुगल गार्डन भी पसंद नही आता। शुद्ध प्राकृतिक  रूप से उगे पेड़ और उन के साथ इधर उधर पनप गई ,झाड़ियां जंगल को जंगल बना देती है। उसने यहाँ वहाँ उड़ते खगचर ,झींगुर समेत कीटपतंग उसके श्रृंगार ही है। कोई भी मौसम हो जंगल अपना रूप बदलता है। कभी पतझड़ तो कभी बरसात में गाड़े हरे रंग की चादर ओढ़ लेता है ,जंगल। जंगल के भीतर सांप की तरह पगडंडी को दूर से देखने का अहसास ही कुछ और है। सड़क भी अच्छी लगती है , लेकिन सड़क को निहारा नही जा सकता। सड़क पुरातन नही ,पगडंडी पुरातन है, जो मानव के बहुत भीतर तक अवचेतन मन और जीन में मानव की यात्रा के असंख्य दस्तावेज के रूप में समाविष्ट है। 
विभिन्न पेड़ जंगल की एकता और सुखी जीवन का दर्शन है। पेड़ वास्तव में मानव के अनुरूप नही बने है। मानव को केवल उससे गिरा ही खा सकता है। ये बने है ,पक्षी ,कीटपतंग और जानवरों के लिए जो उसकी गोद में बैठकर अपनी भूख और  थकान दूर करते है। 
ये पेड़ कितने ही जीवों के घर और आश्रयस्थल होते है। शायद हम इसकी चिंता और सुध नही लेते। पेड़ बढ़ने में समय लगता है। पेड़ अपने पूरे जीवन में उपयोगी रहता है। पेड़ जब ठूंठ का रूप लेता है ,उसमे भी जीव रहते है। जंगल का अपना एक संगीत रहता है। हवा चलती है , तो नाद होता है। कितनी ही वर्षा हो पेड़ अपने शरीर से उसको फैला देता है। पेड़ जमीन को पानी देते है। नदी को पैदा करता है। वायुमंडल को वायु ,जो जीवन के लिए उपयोगी है। धूप में चलते एक छोटा सा ठूंठ भी राहत दे जाता है। उच्च हिमालय के जंगल दिन में भी अंधेरा ओढ़े रहते है क्योंकि उनमें जीव पनपते है। जंगल के रंग जैसा कोई चित्र नही हो सकता। नाना रंग से सुज्जजित रन बिरंगी चादर जैसा सूंदर दृश्य क्या बना सकता है ,कोई मानव? मानव की सबसे खूबसूरत बिल्डिंग भी तभी सुन्दर  लगती है ,जब उसके चारों ओर पेड़ होते है। बिना पेड़ और हरियाली को उजाड़ कहा जाता है। लेकिन प्रकृति के स्वयं के वृक्षविहीन स्थल भी खूबसूरत होते है। दुनिया का कोल्ड डेजर्ट स्पीति का क्षेत्र खूबसूरत है क्योंकि उसमें बर्फ से प्रकृति चित्रकारी करती है। 
रेगिस्थान के टीले सागर की लहरों से लगते है। एक वक्त था ,मानव ने सभी जगह जीना सीखा और प्रकृति के साथ एकात्म और समरसता रखते हुए। 
लेकिन अभी विकास का मॉडल केवल विकास ही देखता है। पेड़ उसके लिए डी पी आर के किसी चेप्टर का हिस्सा है। कलम चला दो , वो भी अब कंप्यूटर के कीपैड पर उंगली दौड़ेंगी कि 100 पेड़ काटेंगे 1000 लगा देंगे। मानव की जमीन का एक इंच भी कट जाए तो मार काट तक हो जाती है। लेकिन पेड़ और उसमें रह रहे ,जीव की कौन सुने। लेकिन मानव कबूतर को दाना देकर और चींटियों को आटा डाल अपना धर्म पूरा कर लेता है। क्या किसी विकास के मॉडल में इसकी चिंता होती है कि उपसर रहने वाले जीव कहाँ जाएंगे? उनका क्या होगा? अभी तो इसपर चर्चा भी करना बेमानी हो गया है। एक तरफा विकास और विचार संपन्नता लाता है ,लेकिन एकाकी और निपट अकेला बना देता है। विकास का हरेक मॉडल आदमी को एकाकी बना रहा है। प्रकृति में एकाकी कुछ भी नही , समग्रता ही है। भारत का पुरातन ज्ञान भी ये ही कहता है। लेकिन विकास की ज़िद्द और हठधर्मिता मानव को क्रूर बना देती है। जो आज हम झेल रहे है।
इसलिए विकास के चाहने वालों कम से कम पेड़ काटकर कर विकास करों। 
जंगल की आवाज़ हमेशा जिंदा रहे, इसको नही भूलना। ये वो जान सकते है ,जिन्होंने जंगल के बीच उसको महसूस किया होगा।
जल,जंगल ,जमीन और वायु सत्य और जीवन का आधार है। इसको संरक्षित करने का मॉडल ही सतत है और चिरस्थाई है।
अभी भी बाहर जंगल अपनी और बुलाता है। उसमें थोड़ा चल कर किसी चट्टान पर बैठना आकर्षित करता है। जंगल में बहती नदी का नाद संगीत की पराकाष्ठा ही है।
सोचना तो होगा ही ,अगर ये सब न हों, तो क्या करेगा मानव का विकास और उसका एकाकी जीवन।
इसलिए  चिपको आंदोलन का प्रसिद्ध  नारा और बात हमेशा याद रखनी है " 
जंगल के है क्या उपकार 
मिट्टी पानी और बयार
मिट्टी पानी और बयार 
जिंदा रहने के आधार।
(रमेश मुमुक्षु)
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
ramumukshu@gmail.com

Sunday 5 September 2021

अध्यापक दिवस के बहाने कुछ भूली बिसरी यादें ताजा हो गई।. know thyself -Socrates

अध्यापक दिवस के बहाने कुछ भूली बिसरी यादें ताजा हो गई: know thyself -Socrates
मासाब , गुरुजी, सर् की छवि हमारे दिल में अभी भी बैठी है कि दो तीन रसीद होने वाले है। हाथ आगे कर.... मुर्गा बन, डेस्क पर खड़ा हो जा, ये सब रूटीन की बातें थी  सबके पिताजी हुआ करते थे, डैडी का चलन शुरू हो गया था, कह दिया करते थे कि मासाब अगर ये न पढ़े तो हड्डी पसली एक कर देना..... घूमता रहता है। आवारा हिप्पी हो गया है। अच्छे मासाब का अर्थ जो डंडे से खबर लेते थे। हम भी ढीठ ही थे, कक्षा में खुसर फुसर करने की आदत जो ठहरी ,  कब खुसर फुसर हंसी में तब्दील हो जाती थी, ये आज तक कौतूहल ही बना हुआ है। मासाब को सुनाई पड़ जाता था। बस फिर क्या था, मुर्गा, डेस्क पर खड़ा और उल्टी हथेली करके स्केल से पिटाई शुरू। लेकिन हंसी बजाए रुकने की नॉन स्टॉप हो जाती थी। फिर क्या था,  हाथ और मुँह से  पिटाई पिटाई शुरू। ये सब शिक्षा में आम बात थी। आज जब हम उन अध्यापकों को याद करते है , तो ये ही कहते है कि जो बहुत कर्मठ हुआ करते थे, वो पिटाई भी करते थे। उनको ऐसे लगता था कि ये पढ़ क्यों नही रहा। बहुत बार तो बच्चें डर के कारण स्कूल न जाने की सोचते थे। लेकिन ऐसा सोचा तो घर में रेल पेल हो जाया करती थी। उस वक्त परीक्षा में नंबर मिलना राशन और कंट्रोल के अनाज मिलने जैसा ही था। 
लेकिन गुरु जी तो गुरु जी ही थे, पीछे सबके नाम रखे होते थे। हम सब के भी असली नाम न होकर दूसरे नाम हुआ करते थे। सारे बच्चें सुबह 8 बजे रेडियो पर समाचार के खत्म होने का इंतजार करते थे क्योंकि सब के पिताजी साईकल या पैदल ही आफिस जाते थे। ये सरकारी कॉलोनी वाले बच्चों की कथा है। पिताजी दूर दिखे नही की बच्चे बाहर दौड़ जाते थे, जैसे कर्फ्यू से निकले हो। 
लेकिन आज भी वो सारे अध्यापक याद आते है। बहुत से अध्यापक बहुत डेडिकेटेड हुआ करते थे। कुछ ऐसे भी थे,जो बिना पिटाई के पढ़ा लिया करते थे। कभी कभार वो सूद सहित निपटा देते थे। अगर कोई टीचर हल्के मिल जाये तो बच्चे भी अपनी कसर निकाल लिए करते थे। अनूठा संबंध होता है, विद्यार्थी और अध्यापक का, भूल नही सकता कोई। उस वक्त ट्यूशन का  चलन लगभग नही था। टीचर ही संभाल लिया करते थे।  किसी भी बच्चे के जीवन में टीचर का रोल अहम होता है। टीचर का समर्पण और पढ़ाने के तरीके से बच्चे को तरासा जाता है। आज बहुत कुछ बदल गया, लेकिन टीचर तो टीचर ही है। कुछ भी हो टीचर का सम्मान तो होना ही चाहिए और टीचर भी इसको मात्र नौकरी न समझे। टीचर का सबसे बड़ा काम होता है , बच्चे के भीतर छिपी प्रतिभा को खोज कर उसका परिष्कार करना। हालांकि व्यवस्था में इसका वक्त कम मिलता है। जब ये सुनने में आता है कि क्या तीर मार रहा है टीचर , वेतन मिलता है, उसका ये काम ही है, तो लगता है कि कुछ मिस हो गया।  वेतन से ही पढ़ाई नही होती, उसके लिए बहुत अलग अलग अवसर होते है। लेकिन टीचर का बहुत दायित्व होता है कि वो बच्चे में कैसे निखार लाये। अगर टीचर और विद्यार्थी के बीच कनेक्ट कम हुआ तो शिक्षा पर असर पड़ेगा। जरुरी नही कि डरा कर ही पढ़ाई हो  सकती है। टीचर की अपनी तैयारी और रुचि बच्चे को आकर्षित करती है। तोतोचान जैसी बच्ची हो तो  सोसाकू कोबायाशी जैसा अध्यापक और स्कूल चाहिए। इसके अतिरिक्त  चंगीज़ आत्मतोव की पुस्तक पहला अधयापक के दूईशेन का स्कूल जिसको  उस पिछड़े   गांव कुरकुरेव की पहकी विद्यार्थी अल्तीनाई  विख्यात होने के बाद भी स्तेपी के दूर ऊँचें टीले पर पोपलर के पेड के नीचे बिताए स्कूल के दिन और अपने अध्यापक को आज हमेशा याद करती है।प्राचीन भारत में आचार्य चाणक्य जिन्होंने एक बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर सम्राट बना दिया। परमहंस राम कृष्ण ने अपना शिष्य खुद ही खोज लिया, जो विवेकानंद ही थे।
इतिहास भरा हुआ है। ऑनलाइन के जमाने में जहाँ बच्चे जानकारी रखते है, वहां पर नए तरह के चैलेंज है। लेकिन सबसे बड़ा काम और लक्ष्य होना चाहिए ,बच्चे की प्रतिभा, सृजनात्मकता और अन्वेषण प्रतिभा को खोजना और उसका परिष्कार करना। सर्वपल्ली राधाकृष्णन और उनके द्वारा दर्शन पर लिखी पुस्तकें भी  आज हमारी धरोहर है। उनके जन्म दिन को ही अध्यापक दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्वभारती के संस्थापक गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कोई विश्व विद्यालय की चार दीवारी नही बनाई, उनका कहना था कि शिक्षा खुली और निर्बाध होनी चाहिए, ताज़ा हवा जैसी। महान दार्शनिक गुरु सुकरात कहा करते थे  ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।' उनका मुख्य ज्ञान सूत्र था, " स्वयं को जानो", Know thyself"। ये प्राचीन भारतीय दर्शन का आधार ज्ञान सूत्र रहा है।   
आज के दिन तो ये सब याद आ ही जाता है। 
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
5.9.2021