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Sunday 30 May 2021

द्वारका में स्थित बरगद के पेड़ की आत्मा की व्यस्था

द्वारका में स्थित बरगद के पेड़ की आत्मा की व्यस्था
अंततोगत्वा मेरी असमय मौत हो गई। मनुष्य इसको हत्या और मर्डर कहता है। ये द्वारका कंक्रीट के नगर से बहुत पहले से मैं रहा हूँ।लंबा कालखंड मैंने देखा है। कुछ दशक पूर्व मैं खेतों के बीच खड़ा आनंद से जीवन व्यतीत कर रहा था। दूर तक में देख पाता था। पहले मुझे सभी सम्मान करते थे। मुझे पोषक पदार्थ और पानी मिल  जाया करता था।
मेरे ऊपर कितने किस्म के खगचर रहते और आते जाते थे। मेरे शरीर से हवा में लटकती जड़े मेरे भारी शरीर को धरती पर मजबूती से पकड़े रहती है। मेरे समान उम्र के पेड़ों का घेरा मेरे से कितना ही बड़ा है।
लेकिन मैं अभागा  असवेंदनशील मनुष्यों के मध्य फंस कर रहे गया।  मेरे तने की नीचे इसने सीमेंट से मेरा आधार बन्द कर दिया। सीमेंट से पटा मेरा तना लंबे समय तक उम्मीद करता रहा कि मेरे तने के आधार को सीमेंट मुक्त करवा दे , एक दो मीटर तक मुझे मेरी हवा से झूलती जड़ों जमीन को पकड़ने में सफल हो सकें। लेकिन इस मूढ़मते और लालची मनुष्य ने मेरी परवाह किये बिना मेरे तने के आधार पर सीमेंट पाट दिया। मेरी जड़े जमीन के नीचे  तक नही जा सकी। शरीर मेरा भारी होता चला गए। मैं जमीन को अपनी जड़ों द्वारा पकड़ नही पाया। बिना लटकती जड़ों के मेरा आधार कमजोर होता चला गया।
कुछ सज्जन लोग मेरे को संरक्षित करने के लिए आये थे। लेकिन किसी ने उनकी बात को नही माना। वो मुझे हेरिटेज पेड़ बता रहे थे। मैंने उनसे सुना कि ये पेड़ बहुत ही घना और सुंदर है।लेकिन कुछ लोग केवल अपनी कार खड़ी करने के लिए उनके द्वारा  मेरे को सीमेंट से मुक्त करवाना नही चाह रहे थे। मुझे काफी लंबे समय तक  तकलीफ़ रही। मेरा स्वरूप बढ़ता गया और मैं खुद अपने भार और अपनी जड़ों की पकड़ को नही पा रहा था। 
आखिरकार मेरी  सारी उम्मीद बिखर गई और अंत में मैं मर गया और धराशाही हो गया। मुझे न जाने कितनी सदियों तक जीवित रहना था।
ये मनुष्य अभी चिपको आंदोलन की बात कर रहा था। बचपन में वृक्ष प्रेम की ये कविता पढ़ता था, " ये कदम का पेड़ अगर होता यमुना तीरे, मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे" ये भूल गया " हम पंछी एक डाल के" पेड़ों के प्रति इसकी श्रद्धा स्वार्थ से ओत प्रोत है। मेरे बदन पर सूत का धागा तो खूब बंधता रहा। लेकिन मेरी जड़ों को सीमेंट से ढक दिया। अभी तो मैंने एक सदी ठीक से नही देखी थी। भूल जाता है कि हमको भी पोषण चाहिए। धरती से रिस रिस कर पानी जड़ों तक जाता है।
हालांकि कुछ ऐसे भी है,जो मेरे मरने से आहत हुए है। मुझे दुबारा जमीन में लगाना चाह रहे है। मैं उनके प्रेम को प्रणाम करता हूँ। उनसे मैं यहीं कहूंगा, मेरे जैसे जितने भी पेड़ सीमेंट से ढके है, उनका तर्पण कर दो। उनको सीमेंट मुक्त कर दो। उनकी सेवा न भी करो ,लेकिन उनकी हत्या तो न करो। तुम समझते नही, ऐसे सीमेंट से ढके पेड़ धीरे धीरे मरते है, लंबे समय पोषण से वंचित रहते है।
ऐसा मत करो , पेड़ों से तुम्हारा जीवन है। हम तुम्हारे उद्भव से पूर्व ही दुनियां में अवतरित हो गए थे। मेरी मौत से तूने कितने खगचर, सूक्ष्म जीव का निवास स्थान ध्वस्त कर दिया ।कब तक तू पेड़ो को ऐसे ही इग्नोर करता रहेगा। मुझे ख़ाक की दो लाइन याद हो उठी: 
काट दिए है पेड़ सब,  कहीं नही है  छांव ।
कहते है सीना ठोक कर, बदल रहा है गांव।।
हे प्रकृति इसको सदबुद्धि प्रदान कर।  अभी मैं पेड़ की आत्मा हूँ, कैसे छोड़ जाऊं अपने शरीर को ,लेकिन जाना होगा। दशकों की याद भुलाना कितना कठिन है, ये मानव क्या जाने ?ये तो रामचरित मानस में मेरी बात को भी भूल गया , तुलसीदास लिखते है ",।।तहँ पुनि संभु समुझिपन आसन। बैठे वटतर, करि कमलासन।।
भावार्थ-अर्थात कई सगुण बसाधकों, ऋषियों, यहाँ तक कि देवताओं ने भी वट वृक्ष में भगवान विष्णु की उपस्थिति के दर्शन किए हैं।- रामचरित मानस। लेकिन अभी मनुष्य इस तरह समगरतापूर्ण चिंतन नही करता ,केवल संकीर्ण स्वार्थ के वशीभूत ये जीवन जीता है। सभी नही ,लेकिन कम नही है। मुझे जाना होगा अनंत यात्रा के पथ पर दिल में टीस लेकर कि मैं मनुष्य का क्या बिगाड़ा ?  कुछ भी नही मांगा और न ही शिकायत की ,उसके बाद भी मेरी असमय मौत हो गई । लेकिन मैं बदुआ नही दूंगा, लेकिन प्रकृति के विरुद्ध और अपने स्वार्थ के कारण ये व्यवहार मानव जाति के लिए संकट पैदा करेगा ,ये तय है।

रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल 
9810610400
29.5.2021