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Tuesday 10 December 2019

*(पुरानी कविता है ,जिसमे भगीरथ के सिर से निकली धार को निर्मल अविरल बहने दो की अपील है)*

(पुरानी कविता है ,जिसमे भगीरथ के सिर से निकली धार को निर्मल अविरल बहने दो की अपील है)
कैलाश पर बैठे ध्यानस्थ 
सर्पों को गले में धारण 
किये भभूत मले शरीर 
में 
जटाओं में 
भागीरथी की स्वच्छ धारा 
को बर्फीले साम्राज्य 
के घमंड रहित 
सम्राट 
गण , भूत , पिचास 
से घिरे 
डर भय जिनके 
पैरों पर गिर कर
अपने को लोप 
कर देते है
त्रिशूल  गाढे 
तीसरी आंख 
को बन्द 
किये 
अर्द्ध नेत्रों से  संसार 
के जड़ चेतन के ज्ञाता
डमरू 
के स्वामी
आकाश पाताल
समेत सम्पूर्ण सृष्टी 
के रक्षक 
को क्या हमारे जैसे
तुच्छ 
स्वार्थी प्रकृति के भक्षक 
शिव की जटाओं से 
निकली स्वच्छ 
जल की 
धारा 
से बनी गंगा 
को भी अपनी 
निकृष्ट 
स्वार्थी 
नियत और सीरत से 
लील कर 
अपनी कलुषित 
मानसिकता
के अनुसार 
मैला कर देने
वाले
बर्फ के साम्राज्य 
को भी खत्म करने 
को आतुर 
अपने को शिव भक्त 
कह कर
गर्वान्वित अनुभव करते
शिवरात्रि 
पर
आडम्बर कर
प्रसन्न करने 
का ढोंग करते
नहीं थकते
झूट स्वार्थ
लालच 
से भरा 
क्या शिव की अर्चना कर सकेगा
भोले को भोला समझ 
भांग धतुरा सुल्फा 
शिव का भोग समझ 
अपनी स्वार्थ की 
पूर्ति करता है
जो 
अपने आराध्य 
के सिर से 
निकली जल धार 
को नहीं साफ़ रख 
सका 
वो क्या शिव की अर्चना करेगा
अब तो वो शिव की तीसरी आंख से भी डरता नहीं
क्या शिव खोलेंगे अपनी
तीसरी आंख 
नहीं 
क्योंकि
आदमी ने स्वयं अपनी
मौत का 
सामान जुटा 
जो लिया है
जल जंगल जमीन 
समेत सब कुछ लील 
कर 
क्या हो सकेगी 
शिव अर्चना
हाँ अभी भी 
किसान , मजदूर 
वनवासी समेत वो सभी जो 
मानव और प्रकृति 
की सेवा में
लगे है
शिव की मूर्ति 
नहीं 
उनके 
पास प्रतिक 
को ही शिव 
समझ 
पूरी तन्मयता 
से सजीव को करते है
स्मरण
उनके निश्चल प्रेम 
को भी देख नहीं 
खोलता शिव 
अपनी तीसरी आंख
मानव की 
नीचता को देख
वो तांडव करने को तैयार 
है
लेकिन वो शिव है
अवसर देना
क्षमा करना 
उनका स्वाभाव है
वो भोले है 
लेकिन भोले नहीं
कुछ ऐसा करें की 
न खुले उनकी 
तीसरी आंख
एक क्षण 
में स्वाहा हो 
जायेगा 
हमारे स्वार्थ का
साम्राज्य
शिव की अर्चना 
उसकी जटा 
से निकली  
धारा अविरल 
निर्बाध 
बहने दो
शिव नहीं कहता
की उनकी तरह कैलाश 
पर रहो 
लेकिन 
ऐसा मत करों की 
कैलाश 
पर ही संकट 
आजाये
संभव है 
कुछ इस तरह 
उसकी अर्चना 
हो सकती
है
शायद......
रमेश मुमुक्षु

पुरानी कविता है ,जिसमे भगीरथ के सिर से निकली धार को निर्मल अविरल बहने दो की अपील है)

*(पुरानी कविता है ,जिसमे भगीरथ के सिर से निकली धार को निर्मल अविरल बहने दो की अपील है)*
कैलाश पर बैठे ध्यानस्थ 
सर्पों को गले में धारण 
किये भभूत मले शरीर 
में 
जटाओं में 
भागीरथी की स्वच्छ धारा 
को बर्फीले साम्राज्य 
के घमंड रहित 
सम्राट 
गण , भूत , पिचास 
से घिरे 
डर भय जिनके 
पैरों पर गिर कर
अपने को लोप 
कर देते है
त्रिशूल  गाढे 
तीसरी आंख 
को बन्द 
किये 
अर्द्ध नेत्रों से  संसार 
के जड़ चेतन के ज्ञाता
डमरू 
के स्वामी
आकाश पाताल
समेत सम्पूर्ण सृष्टी 
के रक्षक 
को क्या हमारे जैसे
तुच्छ 
स्वार्थी प्रकृति के भक्षक 
शिव की जटाओं से 
निकली स्वच्छ 
जल की 
धारा 
से बनी गंगा 
को भी अपनी 
निकृष्ट 
स्वार्थी 
नियत और सीरत से 
लील कर 
अपनी कलुषित 
मानसिकता
के अनुसार 
मैला कर देने
वाले
बर्फ के साम्राज्य 
को भी खत्म करने 
को आतुर 
अपने को शिव भक्त 
कह कर
गर्वान्वित अनुभव करते
शिवरात्रि 
पर
आडम्बर कर
प्रसन्न करने 
का ढोंग करते
नहीं थकते
झूट स्वार्थ
लालच 
से भरा 
क्या शिव की अर्चना कर सकेगा
भोले को भोला समझ 
भांग धतुरा सुल्फा 
शिव का भोग समझ 
अपनी स्वार्थ की 
पूर्ति करता है
जो 
अपने आराध्य 
के सिर से 
निकली जल धार 
को नहीं साफ़ रख 
सका 
वो क्या शिव की अर्चना करेगा
अब तो वो शिव की तीसरी आंख से भी डरता नहीं
क्या शिव खोलेंगे अपनी
तीसरी आंख 
नहीं 
क्योंकि
आदमी ने स्वयं अपनी
मौत का 
सामान जुटा 
जो लिया है
जल जंगल जमीन 
समेत सब कुछ लील 
कर 
क्या हो सकेगी 
शिव अर्चना
हाँ अभी भी 
किसान , मजदूर 
वनवासी समेत वो सभी जो 
मानव और प्रकृति 
की सेवा में
लगे है
शिव की मूर्ति 
नहीं 
उनके 
पास प्रतिक 
को ही शिव 
समझ 
पूरी तन्मयता 
से सजीव को करते है
स्मरण
उनके निश्चल प्रेम 
को भी देख नहीं 
खोलता शिव 
अपनी तीसरी आंख
मानव की 
नीचता को देख
वो तांडव करने को तैयार 
है
लेकिन वो शिव है
अवसर देना
क्षमा करना 
उनका स्वाभाव है
वो भोले है 
लेकिन भोले नहीं
कुछ ऐसा करें की 
न खुले उनकी 
तीसरी आंख
एक क्षण 
में स्वाहा हो 
जायेगा 
हमारे स्वार्थ का
साम्राज्य
शिव की अर्चना 
उसकी जटा 
से निकली  
धारा अविरल 
निर्बाध 
बहने दो
शिव नहीं कहता
की उनकी तरह कैलाश 
पर रहो 
लेकिन 
ऐसा मत करों की 
कैलाश 
पर ही संकट 
आजाये
संभव है 
कुछ इस तरह 
उसकी अर्चना 
हो सकती
है
शायद......
रमेश मुमुक्षु

Wednesday 4 December 2019

इन विभागों की ड्यूटी क्या है?

इन विभागों की ड्यूटी क्या है?
डी डी ए का मूल काम है, किसानों की जमीन अधिग्रहित करके रेजिडेंशियल  और कमर्शियल यूनिट बनाये। आप सब को आश्चर्य होगा , डी डी ए की करीब 1300 एकड़ भूमि पर करीब 4 वर्ष पूर्व तक कब्जा हो चुका था। कैसे और क्यों कब्जा हुआ? इसका एक मात्र कारण है। जिम्मेदारी का अभाव, विभाग के  भीतर समन्वय की कमी, टेंडर के मकड़ जाल में फंसी व्यवस्था और प्रलोभन को नकारा  नही सकते। आजतक डी डी ए ने जितने इंफोर्समेंट  के नोटिस निकाले होंगे, उनमे से आधे से कम भी किर्यान्वयन की प्रक्रिया में आ जाते तो न तो जमीन पर कब्जा होता ,और न ही बिल्डिंग विरूप होती। 
नियम ताक पर रख कर कोई विभाग काम करेगा ,तो चीज़े बिगड़ ही जाती है। दूसरी ओर दबंग लोग भी विभाग को कमजोर बनाते है। अपनी मर्जी से कुछ   ही कब्जा कर लो और गैरकानूनी निर्माण कर लो। अधिकारी को तिलक लगाने से लेकर धमकी तक चलती है। एक बार नियम टूट जाये तो लोग उसका लाभ उठा लेते है। बहुत से मेहनती और ईमानदार अधिकारी भी होते है। जिनकी बात हम लोग भी कम करते है। 
इसमें मैं सिविल  सोसाइटी की कुछ कुछ जिम्मेदारी की बात करूंगा। बहुत बार बहुत से लोग विभाग को केवल गलत ही कहते है। उससे जो लोग मेहनती और ईमानदारी से काम करते है,उनके नैतिक साहस और सेल्फ रेस्पेक्ट पर कुप्रभाव पड़ता है। काम होते है, बहुत धीमे धीमे ,ये डी ङी ए की कमी है।
इनको स्वयं ही रोजमर्रा देखना चाहिए कि कौन सा रोड टुटा है। कहाँ पर रिपेयर करना है। ये उनकी रोजमर्रा की ड्यूटी है। लेकिन लिखने के बावजूद भी काम लंबित रहता है। इसलिए जनता परेशान होकर इनको बुरा भला कहती है।
इनको एक गैंग टीम बनानी चाहिए। आप बहुत से लोगो को याद होगा, रेलवे और सड़क के लिए भी एक गैंग टीम हुआ करती थी। रेलवे में तो अभी  ही है। ये टीम रोज खुद ही देखती रहे और समय रहते ही ठीक करती रहे ,तो सड़क और कुछ भी खराब ही न हो।
ये इनके ही काम होते है। रेसिडेंट्स को   खाली मेहनत करनी पड़ती है। 
ऐसे ही एम सी डी की कहानी है।।उनको डी डी ए से हैंडओवर हुआ है। वो ही टेंडर और लटकाना। आपस में ब्लेम गेम। काम इतना धीमे होता है की आदमी अधीर हो उठता है।ये भी उनके रोजमर्रा के काम है। एम सी डी में लोग पार्षद को बोलते है। पार्षद उनके काम  को करवाने के लिए विभाग को यहाँ वहां भेजता है। स्टाफ भी इसका आनंद लेते है।" साब ने वहां भेज दिया ,कर तो रहा हूँ।" पुराने घाघ उनके टोटका दे जाते है, वो सिखाते है, " *काम करियो मत फली फोडियो मत* *do nothing look buzy*
कुछ पुराने घाघ सिखाते है, *किसी काम को मना नही करना* हां साब करता हूँ। एक टोटका सरकारी काम में पुरातन समय से चल रहा है। *अफसर के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी कभी मत जाओ।*  मजे की नौकरी करें। 
कुछ ईमानदार और कर्मठ लोग विभाग को चलाते है। अब रही टेंडर और उससे जुड़ी कहानी ,ये जग जाहिर है। 
*विभाग को एक रेकी या गैंग टीम बनानी होगी ,जो रोजमर्रा पूरे इलाके की देख रेख करे। ये टीम रिपेयर का सामान लेकर चले। जिसमें सड़क, सिविल,बिजली, हॉर्टिकल्चर सभी शामिल हो ,छोटी छोटी रिपेयर रोजमर्रा होती रहे यो चीज़े खराब ही न हो।*
*एम सी डी को प्रति दिन कूड़ा उठाने ही  ही है। सुविधा और जुर्माना टीम एक साथ रूटीन में चले।*
ये ही एक मात्र तरीका है। कुछ पॉइंट ऐसे है, जो मैं 2007 से देख रहा हूँ। आजतक काम नही हुआ। हो सकता है, डी डी ए उसको भूल ही गया हो,उनको रिकॉर्ड में खोजना होगा।
स्टाफ की कमी  भी आड़े आती है।
बाकी फिर कभी।
रमेश मुमुक्षु
4.11.2019

Friday 29 November 2019

सेक्टर 4 द्वारका के तिरस्कारपूर्ण कचरे का रुदन.

सेक्टर 4 द्वारका के तिरस्कारपूर्ण कचरे का रुदन.
कचरे के जन्मदाता मानव तेरे से अज्ञानी इस धरती पर कोई नही। जिस कचरे के सामने जाने से  तू नाक सिकोड़ के चलता है। वो कभी तेरी रसोईघर की शान था। तेरे फ्रिज की शोभा और तेरी जीभ के स्वाद का  द्योतक। महामूर्ख जब तू गांव में बसता था ,तेरे पुरखे जो की अक्षरज्ञान से दूर थे ,उनके आस पास कचरा होता ही नही था। वो फलों के छिलके को ,बची कुछ सब्जी के पत्ते और डंठल को अपने पशु को से देता था ,या एक स्थान पर रख दिया करता था। जो अगले एक साल में खाद बन जाती थी। 
तेरी अक्ल ने ही प्लास्टिक पैदा किया।मुझे याद है तू किस तरह कुप्पा सा फूल गया था।प्लास्टिक को तूने अमर बनाने की कोशिश की और वो कोशिश तेरे जी का जंजाल बन गया। प्लास्टिक भी मुक्ति चाहता है। उसमें सब कुछ मिलकर तड़प तड़प के जान देते है। उनको सांस लेने की जगह नही मिलती। कितनी बार निरीह प्राणी उसको निगल कर दर्दनाक मौत मरते है। 
मूढ़मते जैविक अवशेष कूड़ा नही होता। तू  पार्क बनाता है और पतझड़ को कोसता है। पतझड़ खाद की ओर जाने की यात्रा है। बसंत से नए पत्तों यात्रा का आरंभ होता है।  महामूर्ख पत्तों  से खाद निर्मित होती है। किसी जंगल में जाकर  सीख जहां कुछ भी कचरा नही होता। प्रकृति सब कुछ अपने आँचल में समा लेती है।
हे एम सी डी के कर्णधारों शीघ्रता से मेरा तर्पण करो । मुझे अलग करो ताकि में अगली योनी में प्रवेश कर सकूं। घर से बचे कुछ जैविक खजाने को उसके उचित स्थान तक पहुंचा दो ,ताकि वो समय से खाद में परिवर्तित हो सके। जो आज सूखा पत्ता है कभी वो कोंपल के रूप में अस्तित्व में आया होगा। फिर रंग बदलता हुआ, हरा एवं पीला होता हुआ , सूखने लगा होगा। सूख कर वो अपने जन्मदाता पेड़ में खाद का रूप लेकर अपने अस्तित्व को पेड़ की नई कोंपलों और बीजो के रूप में आहूत कर डालता है। मूर्ख वो कूड़ा नही  होता कूड़ा तेरे दिमाग में भरा है। इसलिए तूने सारी वैविध्यपूर्ण पूर्ण धारा को कचरा घर बना दिया है। जो भी तूने लोभ से बनाया, वो तेरा ही काल बनकर तुझे लील लेने को आतुर है। तू अपने को स्वयंभू समझने लगा। प्लास्टिक और रासायनिक खाद आज तेरे लिए काल बन कर तेरे अस्तित्व को  चुनौती दे रहे है और तू ठगा सा अगल बगल झांक रहा है। हज़ारों वर्ष तू भी प्रकृति की चाल चलता रहा। अभी एक  शताब्दी के आस पास तूने प्रकृति की लय ही बिगाड़ने का काम किया है। तस्वीर तेरे सामने है। धरती जीतने  जीतने वाले एक बटन दबाकर तू अपने अस्तित्व को मिटा सकता है। लेकिन तू चिंता न कर तू कचरे से ही मर लेगा।
जल, वायु और समस्त दूषित कर कर दिया है। तू दूषित हवा और पानी से ही मर सकता है। एक पल ऑक्सीजन न मिले तो तेरा धरती से लोप ही हो जाये और तू अपने को विश्व विजयी समझता है।
धरती एक है ,तूने इसको अपनी खंडित सोच से खंड खंड कर डाला। लेकिन प्रकृति की चाल को रोकना तेरे बूते की बात नही। अभी दुनियां मुझे कचरा समझ कर घृणा करता है। ये तेरे भीतर छिपी गंदगी का परिचायक है। अगर तू घर से ही अलग अलग गीला सूखा कर ले ,तो कचरे के ढेर क्यों लगे? अब कचरा बढ़ गया तो  नए नए महंगे तरीके खोजों और उलझते रहो। अब तो चेत जा नही तो  फिर कब चेतेगा। अब झेल मेरे इस अवस्था से निकलने वाली गैसों और लीचट को , सूंघ बदबू और अपने पवित्र पावन शरीर को नाना बीमारियों का घर बना ले। जब हम प्रकृति में थे, उस वक्त तितलियां और मधु मक्खियों शहद बनाती थी। अब हमारी तूने ऐसी गत कर दी ,अब हमारे इस मिक्स कचरे में विषैले तत्व और विषाणु पैदा होंगे ,जो तुझे आराम से जीने नही देंगे।  तू अपनी मौत खुद ही मरेगा और अपनी गलती से ही सब कुछ झेलने को मजबूर होगा। हम तो कचरा बन झेल ही रहे है। ओ एम सी डी के कर्णधारों मेरा तर्पण करो।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,हिमाल 
29. 11.2019

द्वारका सेक्टर 5 आशीर्वाद चौक के सामने के कब्जे पर निर्मित हो रहे धर्मिक स्थल की आत्म व्यथा

द्वारका सेक्टर 5 आशीर्वाद चौक के सामने  कब्जे  पर निर्मित हो रहे धर्मिक स्थल की आत्म व्यथा
हे टैक्स पेयर्स मानव तूने मुझे डी डी ए की जमीन पर सेक्टर 5 मार्किट ठीक आशीर्वाद चौक पर ,एस डी एम सी के बेंच के सामने स्थापित करने का घोर पाप किया है। न तो तूने इस जमीन की गुणवत्ता की खोज की और न ही वास्तुशास्त्र के नियमों का पालम किया। बस पुरानी मूर्तियों के सहारे नुक्कड़ के मंदिर की स्थापना की कोशिश भूमि पर कब्जे के लिए की ,जो तेरा एक तरीका बन गया है। मुझे मालूम है ,हे मूर्ख मानव तेरे पुरखे धार्मिक स्थान की स्थापना के लिए भूमि का चयन करते थे ,वो भी दोषरहित भूमि का । तदनुसार प्रतिमा की विधिसंवत प्राणप्रतिष्ठा का अनुष्ठान संपन्न होता था। लेकिन ये तो कब्जे की जमीन है। भूमि के मालिक डी डी ए को  इसकी चिंता नही की उनकी मिल्कियत पर ये ये मानव कब्जा कर रहा है। हे डी डी ए तुझे अभी भी जिम्मेदारी का अहसास नही ,तेरी 1300 एकड़ अधिग्रहित  कृषि  भूमि पर कब्जा हो चुका है। 
 एस डी एम सी ने  यहां पर बेंच लगवा दिए। मानव की कमजोरी से बने विभाग ठीक उसके जैसे ही कार्य कर रहे है।
*विनती* मेरी भद्र समाज से करबद्ध विनंती है, मेरे को इस कब्जे की भूमि से तुरंत हटवा दो। वरना ये मानव मुझे इतना फैला देगा कि मैं हमेशा के लिए कैद हो जाऊंगा।
मुझे स्थापित करना ही है तो कब्जे की भूमि पर नही , बल्कि लीगल जमीन पर अपने पुरखों की तरह धार्मिक विधिनुसार करो।
हे    मार्किट एसोसिएशन   के पदाधिकारियों,   निगम के पार्षदों , उच्च  डी डी ए के उच्चाधिकारियों  ,  अपने मेठों को कहे कि कब्जे को पक्का करने की बजाए ,सही रिपोर्ट रिपोर्ट विभाग को दें। मुझे मुक्ति दो ताकि तेरे पाप तनिक कम हो सकें।
रमेश मुमुक्षु

Saturday 16 November 2019

पेड़ की आत्मकथा

पेड़ की आत्मकथा
मेरे मनुष्य भाई तूने दुनिया में कमाल ही कर दिया। जब मैंने होश संभाला तो  मैं खेतो के बीच खुश था। उस वक्त शांति ही शांति थी। तू भी मेहनत करता था। मेरी छाया में तूने दशकों गुजार दिए थे। मेरे पास पक्षी हमेशा रहते थे। हवा भी दूर से ही हाथ हिला देती थी। मुझसे मिलकर हवा दूर बह जाती थी। वर्षा तो धीमे धीमे मुझसे बातें करती रहती थी। बेलों के गले में घंटियां संगीत सुनाती थी। हल बेल में तेरे प्राण बसते थे। चारों और रंग बिरंगी तितली उड़ती कितनी सूंदर लगती थी। लहलहाते खेतों से बातचीत
होती थी। सरसों के फूलों पर मधुमखियों की कतारें गुनगुनाती उड़ती रहती थी और मेरी डालियों पर छत्ते बनाकर  शहद का आनंद देती थी। धुंधलका होते ही सब ओर शांति और नीरवता छा जाती थी। मेरी सेहत भी कितनी अच्छी रहती थी।
लेकिन देखते ही देखते सब कुछ बदल गया। खेत खत्म हो गए। सारे मेरे साथी पेड़ और झाड़ियां खत्म कर दी गई। कितने हमारे साथी कीट पतंग और पक्षी आज न जाने कहाँ पर खो गए। शाम होते ही मेरे गीदड़ साथी आ जाते थे।  अब कही खो गए। मेरे जन्म से ही मैंने शांति ही देखी थी। लेकिन ये मानव न जाने क्या क्या बनाता चला गया। सब ओर कंक्रीट के जंगल उग गए। सड़क और उनपर शोर मचाती गाड़ियां रात दिन गुजरती है। आकाश में गिद्ध की जगह आजकल हवाई जहाज उड़ते है।
पहली बार जब इन सब की आवाज सुनी थी ,तो कितना डर लगता था। लेकिन अब सब एक जैसा ही हो गया। हवा इतनी दुःखी और बीमार रहने लगी है। मज़े की बात है ,ये मानव ही है,जिसने हवा को बीमार किया है। अब खुद ही मास्क लगाकर घूमता है। कितनी बार शरीर छोड़ने का मन करता है। लेकिन मेरी  जड़ों की साथी  मिट्टी अकेली न पड़ जाए। इसलिए जिंदा हूँ। एक तरफ सड़क और गाड़ी और दूसरी ओर सीमेंट की बिल्डिंग। बस अब तो पुराने दिन याद करना ही हुआ।हवा नही, पानी नही और जो है,वो दूषित है। मेरे नीचे कोई नही आराम करता । अब केवल धुप  से बचने के लिए अपनी गाड़ी खड़े करते है। गाड़ी भी उदास खड़ी रहती है। क्या जीवन है,इसका दौड़ते रहे और ढोते रहो? 
  आजकल  सूरज भी कही खो गया लगता है। चांद की चमक भी धूमिल होती गई है। अजीब है,ये मानव पहले बनाता है,फिर आपस में झगड़ता है। सांस तक नही ले पाता है। लेकिन सब कुछ गंदा करता है। मैं अभी कितनी उम्र का हो गया हूँ, लेकिन अभी मुझे ये मानव जिसने मेरी छाया में कड़कती धूप में कितना आराम किया , भूल ही गया लगता है। ये सब कुछ भूल गया । हवा और पानी की मिठास और खुशबू ,ये अब नही रखता है,याद। जिस डाल पर बैठा है,उसको ही काट रहा है। मुझे याद नही आता कि पहले गंदगी भी होती थी। जो भी फेंकता था ,वो खाद बनती जाती थी। कितना मूर्ख है,पहले पन्नी पन्नी को देख खुश हो जाता था। अब पन्नी के नाम से भी डरता है। कितने मेरे साथी बिचारे पन्नी के कारण ही जान धो बैठे। मैं इसके ही मुँह से सुनता था " बोये बीज बाबुल का ,फल काहे को होये" । 
अभी मिट्टी के लिए , कीट पतंग और कुछ पक्षी के लिए जिंदा रहना ही होगा। खुद ही बिगाड़ता  करता है, खुद ही रोता है। खुद ही गंदा करता है और खुद ही साफ करने के लिए शोर भी करता है। अभी तो एक और अचरज की बात सुनी है, उस दिन मैना बता रही थी कि अब ये आप जैसे बूढ़े पेड़ों को उखाड़ कर कही  और भी लगा देता है। मुझे सुनकर डर भी लगा। भला ये मेरी जड़ों को उखाड़ कर मुझे कही और गाड़ देगा। कैसा दुष्ट मानव है, खुद कहता फिरता है,अपनी जड़ों को मत काटों , नही तो जीवित नही रह सकोगें। लेकिन हमारी जड़ों को उखड़ते हुए ,इसको कोई भावना नही रही। जब ये खुद का भला नही सोच सकता तो भला हम जैसे पेड़ों का भला क्या सोचेगा? ये तो शुक्र है,कुछ हम से प्रेम करने वाले मानव है। इसी कारण इस पर अंकुश है। अभी हवा को दूषित करके हम पेड़ों की याद इसको आ रही  है। लेकिन "अब पछताए क्या होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत", इसके मुख से ही सुनता आया हूँ।ये खुद ही अपने शोर शराबे से परेशान है।
आधी रात से भोर होने तक कुछ शांति मिलती है। सुबह होते ही , फिर चिल्ल पो आरम्भ। इसकी माया को देख हंस लेता हूँ। रात होने लगी है, सुस्ता लूँ , अभी रात होने के  साथ पक्षी भी आते  होंगे। जब तक जीवन है, देखते है ,ये सब और करता हूँ ,याद बचपन की ,जो  न जाने कहाँ पर पीछे छूट गया है।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल
15.11.2019

Thursday 31 October 2019

सरकारी स्कूल में आई क्रांति:दिल्ली सरकार को सादुवाद

सरकारी स्कूल में आई क्रांति:दिल्ली सरकार को सादुवाद
एक समय था कि दिल्ली में सभी बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। लेकिन कालांतर में सरकारों स्कूल पिछड़ते चले गए। निजी स्कूल की रफ्तार इतनी  तेज हुई कि सरकारी स्कूल बन्द करने के कगार पर पहुँच गए। सरकारी स्कूल  के सुधार की बात घाटे का सौदा बन कर रह गई। सरकारी स्कूल को सभी लगभग भूलने लगे थे। यहां तक माहौल बन गया था कि लोग अपने बच्चों को गुस्सा करते हुए कह देते कि अगर कहना नही माना तो सरकारी स्कूल में डाल देंगे, बच्चा डर जाता था।  सरकार भी सरकारी स्कूलों को प्राइवेट हाथ देने का मन बना चुकी थी। 
लेकिन वर्तमान दिल्ली सरकार ने एक डेड इन्वेस्टमेंट को एक मिशन ही बना डाला। सरकारी स्कूल को सुधारना और इसके बारे में सोचना भी एक बड़ा चैलेंज ही था। सरकारी स्कूल को ठीक करने का अर्थ है ,शुद्ध रूप से आम आदमी के लिए कुछ ठोस और बड़ा कदम। सरकारी स्कूल में थोड़ा बहुत कमाने वाला भी नही पढ़ाना पसंद करता है। वो  बच्चों को गाली मोहल्लों के निजी स्कूल में पढ़ाना चाहता है। लेकिन श्री केज़रीवाल और मनीष जी ने दिल्ली के सरकारी स्कूल की काया ही पलट दी। टूटे फूटे और कभी साफ न रहने वाले स्कूल आज निजी स्कूल जैसे लगने लगे है। सम्पूर्ण गुणवत्ता पर एक मिशन की तरह दिल्ली सरकार जुटी है। स्कूल की बिल्डिंग से लेकर पढ़ाई एवं अन्य एक्टिविटी ने स्कूल को पूरी तरह बदल दिया और काया पलट हो गई। स्कूल की साज सज्जा से लेकर बच्चों को खुश रहने की बातें, तोतोचान ,जापानी  विश्व विख्यात उपन्यास में वर्णित बातों को जमीन पर लाने जैसा लगता है। सच में ये आप सरकार के साहस और मिशन का परिचायक ही है। पिछले पांच वर्षों में एक सपना साकार करने जैसा ही है। तरह तरह के स्कूल ,जैसे स्कूल ऑफ एक्सीलेंस जैसा प्रयोग देखते ही बनता है। अभी बहुत आम आदमी के बच्चे इन स्कूलों में जाते है, उनके स्वयं के जीवन में  परिवर्तन आने  लगा है। माहौल में परिवर्तन धीमे धीमे ही आता है। लेकिन दिशा और दशा के लिए दिल से धन्यवाद तो निकलता ही है।।
खेलों के लिए विश्व स्तरीय मैदान एक बड़ा कदम है। घुमनहेड़ा में हॉकी का आधुनिक मैदान बच्चों के खेल में आमूलचूल परिवर्तन का परिचायक सिद्ध होगा। 
मनीष जी और अरविंद जी ने ऐसा किया जैसे चंगेज़ आत्मतोफ के लघु उपन्यास " पहला अध्यापक "के टीचर दुष्यन ने किया । उस उपन्यास में रूसी क्रांति के बाद शिक्षा के विकास और संवर्धन के लिए दूरदराज में स्कूलों की स्थापना की और किर्गिस्तान के कुरकेव गांव में स्कूल की स्थापना की कहानी और स्टेपी मैदान में दूर दिखते टीले पर दो पॉप्लर के पौधों के रोपने के संग स्कूली शिक्षा का आरम्भ करने जैसा कुछ इन दोनों ने किया है। ऐसा काम सपना देखने वाले ही कर सकते है।
मैंने भी व्यक्तिगत रूप से सन 2000 में ठीक सरकारी स्कूल सुधार पर एक सपना बुना था। एक विस्तृत दस्तावेज तैयार किया था। हस्तक्षर अभियान भी आरम्भ किया ,लेकिन चरितार्थ नही हो सका। इसको मैं व्यक्तिगत विफलता ही समझूंगा। इसलिए भी दिल्ली सरकार के कदम को मैं अपने सपने को साकार होते हुए ,महसूस करता हूँ।  मेरे सपने को ,जो दिल्ली सरकार ने 14  वर्षों बाद साकार करना आरम्भ किया और 2019 तक ये मूर्त रुप भी लेने लगा है। जब मैं  अपने सपने की बात करता हूँ तो ये वो है ,जो हमने साकार करने की सोची ही नही ,आरम्भ भी किया था। लेकिन अंजाम तक नही जा सकें। संभव है, ऐसा सपना बहुत से लोगो ने देखा होगा। सपना देखते ही उसको साकार रुप देने में समय नही लगाना चाहिए। सपना एक व्यक्ति नही बहुत से व्यक्ति देखते है। जो पहल करता है, वो चरितार्थ भी करता है। 
दिल्ली सरकार ने कितनो के  सपने पूरे किए होंगे। ये चिंतन का विषय है। 
इस तरह स्कूल को सपने की तरह उभार देना , दिल्ली सरकार की बहुत बड़ी सफलता है। पूरा देश इस बात को  सिद्धान्त रूप से स्वीकार करता है।  बहुत कुछ अच्छा भी नही होगा। लेकिन जब एक आमूलचूल परिवर्तन होता है ,तो थोड़े कुछ पड़ाव समय के साथ यात्रा में शामिल होते रहते है। जिन्होंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई की है, उनको अपने सरकारी स्कूल को याद करना चाहिए। आज पुनः वहां पर  जा कर वो सारे पल स्मृतिपटल पर उभर आएंगे। मेरे जैसे केवल कक्षा में गप्प मारने वाले तो बहुत कुछ याद रखते ही है। टीचर की धुनाई, डंडा, मुक्का, मुर्गा और डेस्क पर खड़े होना ,कौन भूल सकता है। उस पर घर वालो का कहना " मास्टरजी शैतानी करे ,तो हड्डी फसली एक कर देना" । टीचर के नामकरण , मौका मिलते ही स्कूल से फुटक जाना ,कभी कोई भुला नही सकता।
 अंत में महान कवियत्री महादेवी वर्मा की लाइन याद हो उठी
 " चिर सजग आंखे उनींदी 
आज कैसा व्यस्त ताना ,
जाग तुझको दूर जाना", 
अभी दिल्ली सरकार की यात्रा जारी है। उम्मीद है ,जल्दी सरकारी स्कूल की ओर जनता का पॉजिटिव रुख आएगा, इस बात से  इंकार नही किया जा सकता, ऐसा मुझे विश्वास है। टूटते और बिखरते हुए  सपने को साकार करने के लिए ,दिल्ली सरकार,  तमाम एस एम सी टीम एवं  टीचर्स को सादुवाद ।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400

Tuesday 1 October 2019

गांधी : 150 रस्म अदायगी तक ही

गांधी : 150 रस्म अदायगी तक ही
जब कभी ग्रामीण विकास के विभिन्न आयामों की चर्चा होती है। ग्रामीण कुटीर उद्योग एवं स्थानीय संसाधन के समझदारी से उपयोग की बात होती है।  पर्यावरण एवं प्राकृतिक जीवन की चर्चा होती है। राजनीति में ईमानदारी और शांति अथवा अहिंसा की बात होती है, चर्चा गांधी तक स्वयं पहुंच जाती है। लेकिन गांधी की हत्या के बाद गांधी हमेशा खड़े मिले ,लेकिन उनके अपने और उनके विरोधवाले उनसे कन्नी काटने लगे। चाहने वालो ने उनको एक मूर्ति और सुबह शाम की प्रार्थना तक सीमित कर लिया और उनके विरोध वाले उनके विरोध के लिए तथ्य खोजने में लगे रहे। गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर राजघाट तक सीमित कर दिया और स्थानीय स्तर पर मूर्तियों तक सीमित कर दिया।  गांधी की नई तालीम जो देश को मिट्टी से जोड़ती थी, वो शिक्षा ऐरकंडिशन कमरों तक सीमित हो गई।  मिट्टी से कैसे दूर रहा जाए ,इस पर सबसे अधिक  जोर रहा।
गांधी ग्राम जहां पर ग्रामीण संसाधन,  मिट्टी की खुशबू की महक थी , पशुधन और जैविक कृषि थी,  वो सब कुछ रसायन में विलीन होता गया। गांधी का  अर्थ सभी हाथों को काम और सम्मानपूर्वक। हलदर बलराम के देश में किसान आत्महत्या  को मजबूर है ,जमीन जहरीली हो गई, जल दूषित हो गया, पशुधन आवारा हो गया, कृषि उत्पाद ज़हर से सराबोर है। ग्रामीण अर्थ तंत्र लगभग दम तोड़ चुका है।
खादी रोजगार परक थी ,अब फैशन हो  गई, उसका जन जन तक विस्तार होना था । लेकिन सिमट कर सम्भ्रांत होती गई। गांधी के संस्थान अभी भी मौजूद है,लेकिन गांधी नदारद है। दुनिया के सबसे उपजाऊ देश में जहां पर कृषि असीम हो सकती थी। कुटीर उद्योग सबसे बड़ा व्यापार हो सकता था। लेकिन सब विकास विनाश की रह की ओर बढ़ गया।  पेड़ों के पत्तो से बने  पत्तल को उपयोग में लाने वाला देश प्लास्टिक और थर्मोकोल में परिवर्तित होता गया।  गांधी का गांव सदियों से चली आई परंपरा से युक्त गांव था। जिसमे केवल हमने गतिरोध और पनप गई , कुरीतिओं और बुराइयों को दूर करना था। गांधी का चरखा ग्रामीण और निर्धन के लिए एक आधार था। चरखा एक सांकेतिक टूल था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आमूल चूल ताबड़ उलट फेर नही ,बल्कि धीमे धीमे विकास करना था । जिससे समय के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि में सुधार आ सकता था । लेकिन हरित क्रांति के आधार पर सदियों से चली आ रही जैविक कृषि को जड़ से उखाड़ना बच सकता था। गांधी धीमे धीमे लगते जरूर है, लेकिन उनकी चाल सतत और नित्य है।
ऐसा नही की विकास की पूरी धारा बेमानी है। लेकिन जल संकट, कृषि भूमि का नष्ट और बंजर होना। बहुआयामी कृषि को एक दो फसल तक सीमित करना गांधी का रास्ता नही है।
स्वराज्य केवल शब्द नही,  एक अहसास है , जो देश में आपसदारी और सद्भावना पैदा करने का एक मात्र आधार है। स्वराज्य में अंधराष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नही होता । स्वराज्य गर्व पैदा करता है, दम्भ नही। स्वराज्य देश की विभिन्नता को मजबूत करता है, कमजोर नही। मेरा देश बोलते हुए ,गर्व होना चाहिए ,दम्भ नही।
गांधी अहिँसा की बात कहते थे। अहिंसा मात्र हथियार न उठाना ही नहीं, बल्कि मन मैं बैठी हिंसा होती है ,जो युद्ध ही नही प्राकृतिक संसाधन के विरुद्ध भी हिंसा करती है। पिछले  पांच  दशक में प्रकृति के विरुद्ध हिंसा ने जल ,थल, नभ और भूमिगत सब कुछ निर्ममतापूर्ण लील लिया है। 
विश्व में हथियारों के जखीरे मन की हिंसा का प्रतिफल है। जिस पर बहुत कम बात होती है।
गांधी की स्वच्छता मन के भीतर से आती थी।, थोपी हुई नही थी। गांधी तन की सफाई के अतिरिक्त मन की सफाई पर जोर देते थे, ताकि गंदगी पैदा ही न हो। ये साफ दिख पड़ता है। दुनिया के हिंसक विकास के मॉडल ने गंदगी के ढेर लगा दिए ,जो विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। ऐसा केवल एक ही कारण से हुआ ,संकुचित सोच ,जिसने समग्र सोच को कुचल कर आगे बढ़ना चाह। गांधी प्रतियोगिता की जगह सामूहिकता और   समग्रता  की बात करते है। सब एक दूसरे के पूरक है ,न कि प्रतियोगी। मानव और प्रकृति में प्रतियोगिता नही ,  सामन्जस्य होता है।  सतत व समग्र विकास की अवधारणा में चींटी के अस्तित्व की बात  भी  उतनी महत्व रखती है, जितनी हाथी के  संरक्षण की।
गांधी को पूजना और मात्र मानना ही पर्याप्त  नही, जो उनकी हत्या के बाद आजकत हो रहा है। गांधी को केवल आत्मसात ही किया जा सकता है। आत्मसात के बाद वो जमीन पर खुद ही दीख पड़ेगा, मूर्ति के रूप में नही ,बल्कि अहिंसक और सतत विकास के रुप में, लहलहाते खेतों में, सेहतमंद पशुधन में और सभी धर्मों अथवा जातियों के बीच सद्भाव और प्रेम के रूप में। गांधी एक शरीर की हत्या हो सकती है,लेकिन गांधी की हत्या लगभग असंभव है क्योंकि गांधी अहिंसा , सद्भाव और प्रेम का परिचायक है, जो अस्तित्व के आधार तत्व है।  इतिहास साक्षी है, शांति का कोई विकल्प नही। युद्ध के बाद भी शांति ही एक स्थापित होती है। हिसा से दूर होना ही धर्म और अध्यात्म है। जो पुरातन और सत्य है। गांधी उसी सनातन परंपरा के वाहक है। कृष्ण ने कहां था कि शांति का कोई विकल्प नही। युद्ध केवल संहारक होता है। आज मानव दम्भ भरता है , अपने विकास का और अगर युद्ध हुआ था तो  खुद के हथियार मानव जाति को सर्वमुल नष्ट कर सकते है। ये केवल मन की हिंसा का प्रतिफल है।  जिसको गांधी ने कम करने का प्रयास किया। लेव टॉल्सटॉय ने गांधी  में शांति और अहिंसा की स्थापना की संभावना को 1910 में ही भांप लिया था।
गांधी दर्शन को उनकी हिन्द स्वराज्य में  प्रश्नकर्ता द्वारा पूछे गए प्रश्न कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया । उसका जबाव गांधी का मूल दर्शन कहा जा सकता है। उत्तर में गांधी लिखते है " अंग्रेजो ने नही बल्कि हम खुद ही उनके गुलाम बन गए", । मुठ्ठी भर अंग्रेज कैसे  हमें गुलाम बना सकते थे। लेकिन हम उनकी चीज़े के प्रति प्रभावित होते गए और अपना छोड़ते गए  ,बिना किसी आधार के ,ऐसी अवस्था में गुलाम बनना तय है। गांधी की ये बात आज भी सत्य है।
इसलिए गांधी मूर्ति नही ,कोई इमारत या  पुस्तक नही ,गांधी केवल होने से ही संभव है और करने से । गांधी 150 में गांधी को मनाने की बजाए ,आत्मसात किया जाए तो जमीन पर वो दिखने लगेगा, ये तय है।
(रमेश कुमार मुमुक्षु )
अध्यक्ष , गांधी शांति प्रतिष्ठान ,
दन्या, अल्मोड़ा ,उत्तराखंड

Friday 20 September 2019

चल यार टहल आये तनिक

                चल यार टहल आये तनिक
ये अकेला वाक्य आदमी के भीतर स्फूर्ति और ताजगी ले आता है।लेकिन ये जीवन से दूर हो गया। ये वाक्य बचपन में रोजमर्रा होता था। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ ,ये सब तिरोहित होते चले गए। किसी दोस्त के साथ किसी भी उम्र में ये वाक्य एक जैसा अहसास देता है। इसके लिए जीवन की औपचारिकता दूर करनी होती है। नुक्कड़ पर तनिक खड़े होने की आदत को कायम रखना होता है। स्ट्रेस दूर करने के सैंकड़ो नुस्खे मिलते है। लेकिन ये अकेला सदियों पुराना नुस्खा है। करना कुछ नही, बस अपने दोस्त और जो आपके करीब है,उसके साथ ही चलना है। समय भी बहुत नही खर्च होता। कभी बाजार जाना हो तो साथ पैदल ही हो लिए। लेकिन उस वक्त जो आनंद का स्राव होगा ,वो ठीक वैसा ही होता है, जो बचपन में प्राइमरी स्कूल।में होता होगा। 80 साल की उम्र मैं भी अगर दो दोस्त मिलते है ,तो उनका अहसास बचपन वाला ही होता है। कभी सुना होगा दो बुजुर्ग कहते है कि वो लड़का जो साथ पढ़ता था,आजकल कहाँ पर है। बचपन का अहसास मनुष्य के भीतर अगर जीवित रहेगा तो वो जीवन में बोर नही हो सकता। साथ टहल आने का सबसे बड़ा आनंद क्या है, अकेलापन दूर होता है। कुछ टहलने से सेहत भी बनी रहती है। नयापन महसूस होता है। लेकिन आजकल ये सब करीब जीवन से तिरोहित होता गया है। कभी दोस्त एक दूसरे से बिना मिले नही रहते थे। लेकिन उम्र के साथ ये अहसास हम खुद हो खत्म करने लगते है। आपस में रूटीन में गपशप करना भी काफी हद तक आनंद देता है। जीवन में स्ट्रेस लगे तो मित्रों के साथ टहल आये, नुक्कड़ पर चाय गटक ली और गपशप कर ली,फिर देखों स्कूल के समय का आनन्द आएगा। इसके लिए पैदल चलने का सबसे अधिक आनंद होता है।
कुछ कहेंगे का  समय कहाँ पर है। लेकिन अगर हम अपने पूरे 24 घंटे के हिसाब को एक बार दुबारा से देंखे तो पाएंगे कि कितना समय जिसको हम व्यस्त कहते है, आराम से निकाल सकते है। कभी कभार कहीं  दूर घूमने भी जा सकते है। नैनीताल ,शिमला जैसी जगह दो दिन के लिए चले गए।खुल के गपशाप करली। जितना भी स्ट्रेस पाला हुआ है, छू मंतर हो जाएगा। लेकिन चल यार टहल आये तनिक के लिए आदमी वर्षो तक समय नही निकाल पाता। जिनके पास लक्ष्य है, ये उनके लिए भी जरूरी है। कितने व्यस्त हो जाओ,लेकिन हर व्यक्ति के दिल के किसी कोने में ये अहसास होता ही है, बस जरूरत है, उसको जीने की। वो लोग जो बोर होते है, उनको अकेलापन महसूस होता है। वो इसलिए जीवन में आता है क्योंकि ये अहसास जब जीवन से हम दूर कर देते है।
इसलिए एक बार करके देख लो यारों बचपन का अहसास उभर के लौट आएगा। फिर मन कहेगा " चल यार टहल आये तनिक"
रमेश मुमुक्षु
9810610400

Saturday 13 April 2019

क्या नज़फगढ़ झील को वेटलैंड घोषित किया जाएगा ताकि गंगा यमुना भी संरक्षित हो सकें

(क्या नजफगढ़ झील को वेटलैंड घोषित किया जायेगा ताकि गंगा और यमुना भी संरक्षित रह सकें)
अभी 26 मार्च 2019 को Original Application 153 of 2014, Execution Application No. 16 of 2019 INTACH Indian National Trust for Art and Cultural Heritage  के NGT  एक्सक्यूशन  अप्लिकेशन नो. 16 ऑफ 2019 , की दिल्ली और हरियाणा के मुख्यसचिव  को डायरेक्शन दी गई ,जिसके तहत दोनों से एक्शन टेकन रिपोर्ट मांगी गई ,कि नजफगढ़ झील को वेटलैंड अधिसूचित करने संबंध क्या प्रगति हुई है।
INTACH की याचिका के द्वारा ही पिछले साल दिल्ली सरकार और हरियाणा सरकार को झील को वेटलैंड के रूप में अधिसूचित करने के निर्देश दिए गए थे। हरियाणा सरकार की ओर से  एक ब्रीफ डॉक्यूमेंट केंद्रीय पर्यावरण , वन एवं वायु परिवर्तन मंत्रालय को झील को अधिसूचित हेतू प्रेषित किया गया। लेकिन इसी बीच वेटलैंड(कंसर्वशन एंड मैनेजमेंट )रूल्स, 2017 के कारण अब राज्य को ही वेटलैंड को अधिसूचित करना होगा।   NGT की डायरेक्शन तक ये अधर में अटका हुआ है।
नजफगढ़ झील का पानी का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता था।  वर्तमान में नज़फगढ़ झील हरियाणा के खेड़की माजरा ग्राम ,गुरुग्राम में स्थित है। जिसका कुल क्षेत्रफल 120. 80 हेक्टेयर है। जो latitude 28 डिग्री 30'10'N और 76 डिग्री 56'39" E में अवस्थित है।साहिबी नदी अरावली पर्वत ,राजस्थान के जीतगढ़ और मनोहरपुर ,जिला जयपुर से निकलती है। साहिबी नदी अपनी बहुत से सहायक नदियों की धारा से एक बड़ी नदी का रूप लेकर अलवर और कोटपूतली में बहती है। रिवाड़ी में मानसून के दौरान बड़ा पानी स्रोत बनाती है। हालांकि अभी पानी कम होता गया है।
मानसून में ही दिल्ली की ओर नजफगढ़ एक बहुत बड़ी पानी की झील बनाती है। वही से एक छोटे नाले कब रूप में यमुना में समाहित होती है। एक तरह से नजफगढ़ झील और नाले को साहिबी की धारा कह सकते है। लेकिन कालांतर में इसके संरक्षण न करके अभी ये मात्र  गंदा नाला ही रह गया है।
नजफगढ़ झील साहिबी नदी के अतिरिक्त   गुरुग्राम , रोहतक जिला एवं  दक्षिण पश्चिम जिले से भी पानी एकत्रित होता है और ये सब मिला कर नजफगढ़ झील का कैचमेंट एरिया करीब 906 वर्ग किलोमीटर बनता है।
इस तरह नजफगढ़ झील एक बहुत समृद्ध और विस्तृत पानी का स्रोत दिल्ली और हरियाणा के लिए हो सकता था।
मुगल दरबार में फारस के कुलीन मिर्ज़ा नजफ़ खाँ के नाम पर नजफगढ़ झील पड़ा।
पिछले 7 दशक में इस पूरे नजफगढ़ झील के कैचमेंट क्षेत्र में बाढ़ भी आई । 1958,1964, 1978, 1985 एवं 1996 आई ,जो इसके जल संग्रहण क्षेत्र का परिचायक है।1964 एवं 1977 की बाढ़ इसके बंद के पार चली गई थी, जिससे दिल्ली के शहरी इलाके लगभग 100  दिन से अधिक पानी में डूबे रहे।
नजफगढ़ झील को चौड़ा करने से पहले ये पूरा क्षेत्र लगभग पूरे साल पानी से भरा रहता था।  इसको लोकल बोली में ढहर कहते थे। इस झील के आस पास गांव में घूमते हुए किसी स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि यहां पर अंग्रेज़ पक्षियों के शिकार के लिए ही आते थे। नजफगढ़ झील में सारी जमीन निजी जमीन है। इसलिए मानसून के बाद जब पानी वाष्पीकृत होता था ,तो लोग जमीन पर खेती करते थे। बहुत अधिक उपजाऊ जमीन है,यहाँ पर।  वर्षों बाढ़ देखने के कारण यहां के स्थानीय लोग इससे निदान चाहते थे। साहिबी नदी अपने साथ कितनी ही छोटी छोटी जल धारा लेकर एक बड़ा कैचमेंट एरिया बनाती थी। अंग्रेज़ो के समय 1886 में यहां नजफगढ़ झील से यमुना तक 51 किलोमीटर तक एक नाला खोदा गया, जिसको सही साहिबी नाला भी कहा जाता था। उससे पहले प्राकृतिक तरीके से पानी यमुना तक बहा करता था। 1964 में इसको नज़फगढ़ नाला कहा गया।
नजफगढ़ झील का पूरा क्षेत्र निजी भूमि ही है।  जब कभी मानसून के बाद पानी उतरता होगा तो लोग खेती कर लिया करते थे। पहले जब नज़फगढ़ झील के बीचों बीच तटबंध  नही बना था तो दिल्ली के गांव भी नज़फगढ़ झील के हिस्से थे। एक बहुत विस्तृत और न खत्म होने वाला प्राकृतिक जल स्रोत था, लेकिन समय रहते इस पर दूरदृष्टि पूर्ण कार्य नही किये जाने के कारण ,इस पर संकट आ ही गया।
नज़फगढ़ झील ब्रिटिश काल से ही।पक्षी विहार और शिकार दोनों के लिए जाना जाता था। अंग्रेज़ यहां पर डेरा जमाये रहते थे।
आज भी ये झील प्रवासी पक्षियों के लिए उपयुक्त स्थान है।कभी नज़फगढ़ झील में साइबेरियन क्रेन भी देखा गया था। आज इसको बर्ड्स पैराडाइस कहा जाता है। दिल्ली में करीब 400 बर्ड्स पाई जाती है।जिसमे 25% माइग्रेटरी प्रवासी पक्षी है। अकेले नज़फगढ़ के झील के क्षेत्र में 200 के करीब पक्षियों की प्रजाति पाई जाती है। जिनमे से गरेटर फ्लेमिंगो करीब 9 महीने रहता है।3 बया बर्ड की प्रजाति यहां पर मिलती, ब्लैक ब्रेस्टेड वीवर, लार्ज फ्लॉक ऑफ ब्लैक टेल गोडविट,, ब्लैक नेक्ड स्टोर्क, पेंटेड स्ट्रोक, सारस क्रेन एवं ब्लैक फ्रैंकोलिन समेत बहुत से पक्षी मिलते है।इन पक्षियों को संरक्षित करना जरूरी है  ताकि ये प्रवासी पक्षी आते रहे । अगर नज़फगढ़ झील को संरक्षित किया जाते तो पक्षी प्रेमियों के लिए ये एक पैराडाइस ही कहा जा सकता है।
लंबे समय से ही ग्रामीण लोग बाढ़ से निजात पाने की मांग करते रहे थे। उसी कारण तटबंध  निर्माण से हरियाणा और दिल्ली के बॉर्डर में झील बंट गई। दिल्ली के हिस्से में गुमहानहेड़ा,  राउता,झटीकरा, जैनपुर, शिकारपुर आदि में तटबंध के कारण झील में पानी लगभग समाप्त हो गया। हालांकि 1964, 1978 और 1995 की बाढ़ ने बंध के पार आकर 100 दिन से अधिक पानी जमा रहा।  अभी दक्षिण पश्चिम जिला और गुरुग्राम में पानी विशेषकर भूजल खतरे के निशान आ गया है। तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने अकेले गुरुग्राम के करीब 600 से छोटे बड़े  जल स्रोत खत्म कर दिए।   गुरुग्राम में 1990 के बाद बड़े स्तर पर शहरीकरण ने पैर पसारे दिए है। जिसके कारण जल स्रोत पर बहुत प्रतिकूल  असर पड़ा।
गुरुग्राम में वन क्षेत्र 2010 तक 10 प्रतिशत होना था और 2020 तृक 20 प्रतिशत लेकिन अभी 6 प्रतिशत ही रह गया है।
दूसरी ओर दिल्ली के डी डी ए के जोनल प्लान एल लो लाइन एरिया में ग्राम राउता, गुमहानहेड़ा, जैनपुर, शिकारपुर, एवं झाटीकरा की करीब 890 एकड़ जमीन पर झील के रूप में विकसित करने की संभावना है। जो एक ओर बड़ा जल स्रोत हो सकता है ,दूसरी ओर एक पर्यटन के दृष्टिकोण  एक बड़ी धनराशि अर्जन स्रोत हो सकता है।  हालांकि ये संभव नही लगता क्योंकि इतनी बड़ी धनराशि क्षतिपूर्ति के ये देना आसान नही। लेकिन भविष्य को देखते हुए ,जबकि जल स्रोत लगभग खत्म हो चुके हो, सरकार को इस बड़े कदम को उठाना ही चाहिए। भले इसके लिए बड़ी धनराशि क्यों न खर्च हो जाये।
INTACH के श्री मन्नू भटनागर और उनकी टीम ने लंबे समय से नज़फगढ़ झील के  संरक्षण के ये ठोस प्रयास किये । उनके अनुसार एक झील इस क्षेत्र के लिए बहुत ही बेशकीमती जल स्रोत है।  उन्होंने इस पर अध्ययन करके और ठोस काम करके कुछ ठोस सिफारिश भी की है झील के समाधान हेतू:
# एरिया जो कंटूर 209 में आता है, को स्थायी जल स्रोत घोषित किया जाए।
#झाटीकरा पुल पर रेगुलेटर निर्मित किया जा सकें ,ताकि जल स्तर को 208-209 mamsl तक नियंत्रित किया जा सकें।
#चूंकि ये जमीन पर बिल्डिंग नही बनेगी ,इसलिए किसानों को क्षतिपूर्ति फंक्शनल प्लान फ़ॉर वाटर रिचार्ज इन एनसीआर और संभावित नार्थ इंडिया कैनाल एंड ड्रेनेज एक्ट के माध्यम से किसानों की क्षतिपूर्ति की जाए। कंटूर 209 की जमीन को लीज पर देने की संभावना देखी जा सकती है।
#दिल्ली की ओर बहुत सी ग्राम सभा की जमीन तटबंध  आस पास बिखरी हुई है, उसको एक साथ एकत्रित कर उसके बदले डिप्रेशन एरिया में दे दी जाए।
#झील क्षेत्र HFL तक नेचुरल कनजरवेशन जोन NCZ NCRPB 2012 की नीति के तहत इसको वेटलैंड रूल्स 2010और अभी 2017के अंतर्गत वेटलैंड घोषित किया जाए।
#इस क्षेत्र में कोई भी निर्माण वर्जित हो HFL एरिया में ।
#गंगा नोटिफिकेशन 7 अक्टूबर 2016 के अंतर्गत गंगा और उसकी सहायक नदियों के बेसिन पर कोई भी निर्माण पूर्णतः वर्जित है। चूंकि ये साहिबी नदी , जो की गंगा की एक ट्रिब्यूटरी , नज़फगढ़ झील उसका ही विस्तारित जल क्षेत्र है। इसके संरक्षण का सीधा असर यमुना और गंगा दोनों के संरक्षण पर पड़ेगा।
# दिल्ली की ओर तटबंध को भी खुला रखा जाए ताकि पानी  सहज रूप से फेल सके।
# प्रदूषित जल को बादशाह पुर  ड्रेन के पानी को झील में जाने से पहले ही साफ कर लिया जाए ताकि नज़फगढ़ झील और यमुना के जल की प्रदूषण से बचाया जा सके और साथ ही भूजल को भी संक्रमित होने से बचा लिया जाए।
# कुछ हद  तक दोनों राज्यों को झील के निकट भूजल निकासी की नियंत्रित  अनुमति दी जाए कुछ आय अर्जित हो सकें।
#झील का पश्चिम एरिया पक्षी अभयारण्य घोषित किया जाए और नज़फगढ़ झील कनजरवेशन & मैनेजमेंट बोर्ड स्थापित किया जाए एनसीआर प्लानिंग बोर्ड, दिल्ली एवं हरियाणा  के तहत ।
#जमीन के दाम अधिक है , इसलिए दोनों राज्यों को रेवेन्यू शेयरिंग और PPP मोड के तहत कार्य करना होगा।
इसके अतिरिक्त डेटिल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (DPR) भी तैयार करनी चाहिए।
*नज़फगढ़ वाटर वे का प्रस्ताव*
एक बार अगर झील का पानी साफ हो जाए तो नज़फगढ़ झील को एक वाटर वे की तरह विकसित किया जा सकता है। ये यमुना तक करीब 51 किलोमीटर है ,जिसमे 38 नाले गिरते है ,वजीराबाद तक। वज़ीराबाद  बैराज से ओखला बैराज तक ये वाटर वे बन सकता है। NGT के निर्देश के अनुसार नदियों और नालों में  पानी के प्रवाह को बाधित नही किया जा सकता है।
वाटर वे से लोगो को नदी की यात्रा का अवसर मिलेगा और नज़फगढ़ नाला जो सबसे अधिक प्रदूषित जल यमुना में प्रभावित करता है। उससे भी यमुना के प्रदूषण को दूर किया जा सकता है।
अंत में ये एक गंभीर मुद्दा है। विकास केवल नगर उप  नगर बनाकर नही होता। विकास जल ,जंगल ,जमीन और प्रकृति और मानव के जीवन को खतरे में डाल कर नही किया जा सकता है। इस विषय में आगे आने वाली पीढ़ी को संरक्षित और पर्यावरण को बचाकर प्रदान करना है।ढासा रेगुलेटर को पार कर बाढ़सर गांव में जहां पर बरसात का पानी गले तक रहा करता था। अभी वहीं पर AIIMS की स्थापना कर दी गई।। बहुत से बिल्डर चाहते है कि कीमती जमीन पर नए प्रोजेक्ट आने चाहिए। कम लोगो को माइग्रेटरी बर्ड्स की चिंता नही। जल स्रोत संरक्षण की गहरी सोच नही। अभी ये सब बचाया जा सकता है, अगर दोनों राज्यों की सरकार भविष्य की पीढ़ियों के लिए सोचें तो।
2017 में इंटेक  INTACH के द्वारा NGT में नज़फगढ़ झील को वेटलैंड के रूप में अधिसूचित किया जाए। NGT ने इसको वेटलैंड स्वीकार किया था।
2017 के बाद आजतक नज़फगढ़ झील  को वेटलैंड के रूप में अधिसूचित किया जाए। इस बेच वेटलैंड रूल्स 2017 आ गया, जिसके अनुसार राज्य ही स्वयं से वेटलैंड को अधिसूचित करेंगी।
लेकिन इसमें कुछ भी प्रगति नही हुई। इस कारण  INTACH ने एक्सएक्यूशन एप्लीकेशन  फ़ाइल की और पुनः NGT ने दिल्ली सरकार और हरियाणा सरकार के मुख्य सचिव को ATR जमा करने के निर्देश दिए है।  अब देखना है कि दोनों सरकार नज़फगढ़ झील के संरक्षण के लिए क्या ठोस कदम उठाती है।
इसके चारों ओर निर्माण अपने पैर पसार रहा है। वो ऐसा करके भविष्य की पीढ़ियों के लिए घोर जल संकट को आमंत्रित कर रहे है। INTACH के प्रयास की सराहना होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त लेफ्टिनेंट कर्नल एस एस ओबरॉय की याचिका भी नज़फगढ़ झील को वेटलैंड घोषित करने की भी NGT में फ़ाइल हुई थी। कुछ पक्षी प्रेमी भी इसको संरक्षित करने में लगे है। आशा है, हम सभी को इस जल के बड़े स्रोत को और हज़ारों माइग्रेटरी पक्षियों के आश्रयस्थल को बचाना ही होगा।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400

Friday 5 April 2019

*नष्ट होते पर्यावरण संरक्षण की आशा: सरला बहन

(नष्ट होते पर्यावरण संरक्षण की आशा: सरला बहन)
जंगल में जानवरों को भेजने की जगह खेतों में चारा लगाओ। छोटे पेड़ बचाओ। पत्तियां न तोड़ो ,पेड़ों से प्रेम करो, प्रकृति की चाल के साथ चलो। पर्यावरण संरक्षण शब्द की रचियता और जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्रकृति में  आत्मसात करके जिया और प्रकृति पर आने वाले संकट के प्रति सचेत  किया और दर्शन भी विश्व को प्रदान किया। शोर से दूर हिमालय के आगोश में शांत वातावरण में विश्व पर्यावरण के संरक्षण पर गहन चिंतन और मनन करने वाली सरला बहन के जन्मदिन 5 अप्रैल को  उनकी कहीं और लिखी एक एक बात मार्ग दर्शक की तरह विकास की सही दिशा की ओर आज  ही इशारा करती है।
गांधी जी ने कुछ सोच कर सरला बहन  को को कौसानी भेजा होगा। उनको  सरला बहन में एक बड़ी संभावना दिखी होगी। सरला बहन ने सच कौसानी से ही स्त्री शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण और जय जगत को सिद्ध करने के लिए अपना जीवन आहूत किया।
प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका और पागलपन को देख उन्होंने शांति और अहिंसा का मार्ग खोजने की अपनी यात्रा में गांधी जी को एक अडिग
पड़ाव ही नही मंजिल के रूप में पाया। युद्ध और विकास के उफनते उन्मांद और युद्ध रोमांस से दुनिया विनाश की उस नाव में  बैठी हुई है, जिसका चप्पू उनके हाथ के नियंत्रण से बेकाबू होने के कगार पर होता जा रहा है। प्रकृति की अपनी एक  चाल होती है। सतत और निरंतर ,कोई जल्दबाजी नही ,उतावलापन नही जीत और हार की रेस से परे केवल चलते जाना ही है। गांधी ने इस चाल को अनुभव किया और उसकी चाल और उससे निकल रहे संगीत को समझा और उसकी चाल में कदम मिलाकर ग्राम स्वराज्य का मॉडल निर्मित किया। शिक्षा की  नई तालीम में इन सब को पिरो दिया। प्रकृति ने जो दिया है, उसकी चाल के साथ सतत चला जा सकता है।  प्रकृति के इर्द गिर्द ही मानव अपना विकास कर सकता है। मानव अस्तित्व के लिए प्रकृति का विनाश नही अपितु संरक्षण ही मंत्र हो सकता है। शिक्षा  प्रकृति के अनुसार होनी चाहिए , उसके विरुद्ध नही। प्रकृति के परे कोई मार्ग हो ही नही सकता।
गांधी के जीवन दर्शन और जीवन ने ये सब एक सूत्र में सरला बहन ने विश्व को प्रदान किया। विश्व युद्ध की विभीषिका को देख कैथरीन, उनका असली नाम, संमझा की युद्ध जीतने वाला और युद्ध हारने वाला दोनों ही हारते है। केवल मानव के भीतर दम्भ और दूसरे को हराने का उन्माद जो विनाश का पर्याय है ,ही जीतता है। ।आज ये सब हमारे सामने चरितार्थ हो रहा है।
सरला बहन के जन्मदिन पर उनकी हिमदर्शन की धार पर बैठना और प्रकृति के संरक्षण की गहन चिंतन करना मानव को एक दिशा प्रदान करता है। लक्ष्मी आश्रम का सतत परिवेश आज  ही एक आशा प्रदान तो करता ही है। हालांकि विश्व में बेतरतीव भागता विकास सब कुछ लील लेने को अंधी दौड़ में चारो ओर भाग रहा है। उसकी अंधी दौड़ को रोक पाना संभव नही है।लेकिन गांधी के ग्राम स्वराज्य में अभी भी गांव को गांव बनाने की दिशा और मार्ग संरक्षित है। पुरखों की सतत और मेहनत के परिचायक खेत और गांव आज भी मानव सभ्यता को अमरता प्रदान करने की असीम क्षमता है।
सरला बहन ने लक्ष्मी आश्रम को एक मॉडल के रूप में विकसित किया। ये गांधी का ही जीवित मॉडल है। दूसरी और हिमदर्शन कुटीर को चिंतन स्थली के रूप में सरला बहन ने विश्व को प्रदान किया।
आज विकास के बेतरतीव मॉडल को मानव ही नही वन्य प्राणियों की सहज और नीरव जीवन शैली को भी प्रभावित किया है। विकास की तुरत गति ने सतत गति को बाधित ही किया है। वन्य प्राणियों का जंगल से बाहर आना इसका संकेत है। पर्यावरण संरक्षण ही इसका एक मात्र समाधान हो सकता है।
विश्व में जल संकट का गहराता भयावह रूप प्रकृति की चाल को बाधित करने वाले  तुरत विकास का ही परिणाम है। मुट्ठी भर लोग दुनियां को तेजी से भागना चाहते है, इस भागमभाग में वो न जाने किस मंजिल को छूना चाहते है और पूरी मानव जाति को इस चाल में अपने अंधकूप में झोंकना चाह रहे है। ये आज प्रकृति के विनाश से संमझा जा सकता है। जब महानगर की चकाचौंध में सांस लेना कठिन हो जाती है, उस वक्त सब बेमानी लगता है। खाने के स्वाद में तेजी से आये बदलाव , विश्व में पिघलते ग्लेशियर, भारत में गंगा नदी समेत सारी नदियों को नालों में परिवर्तित होते देख प्रकृति की सतत चाल को समझना भी कहाँ  रह गया  है, संभव।
ये सब सहसा सरला बहन के जन्मदिन पर याद हो चला। कृत्रिम शोर से दूर प्रकृति के संगीत के साथ कैसे सुरताल मिल कर चला जा सकता है। ये सरला बहन के जीवन दर्शन और उनकी यादों में आज भी कौसानी के लक्ष्मी आश्रम और उनकी चिंतन स्थली हिमदर्शन में खोजा जा सकता है, बस प्रकृति की चाल के संग चलने मात्र से , जंगल के संगीत में सराबोर हुए, आज भी तमाम कोलाहल के बावजूद भी पक्षियों  का कलरव ध्यान खींच ही लेता है। हिमालय की बर्फानी चोटियां अपनी ओर आकर्षित आज भी करती है। घाटियों से आती हवा एक संगीत ही तो है। घने जंगल में अनहद का संगीत तनिक एकाग्र होने  से सुना जा सकता है। आज भी सूर्यास्त की लालिमा , रात का  सन्नाटा , चन्द्रमा का प्रकाश अपने होने का अहसास छोड़ ही जाता है। ये सब सतत और निरंतर ही है। तुरत विकास की अवधारणा से ये कब तक रहेगा, इस पर चिंतन तो करना ही होगा ,ये तय है।
*रमेश मुमुक्षु*
अध्यक्ष, गांधी पीस फाउंडेशन, दन्या, अल्मोड़ा, उत्तराखंड
9810610400