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Wednesday 14 November 2018

अवनि की मौत/नरभक्षी/ निवाला बने लोग: एक विमर्श

(अवनि की मौत/नरभक्षी/निवाला बने लोग: एक विमर्श )
किसी जंगल के बीच गांव में जब कभी शाम के धुंधलके में कोई बाघ/ शेर/तेंदुआ गांव  में दिख जाए तो गांव में दहशत का माहौल बन जाता है। अगर किसी इलाके में नरभक्षी बाघ आदि की आहट भी हो जाये तो पूरा इलाका ही डर में समा जाता है। शाम होते ही छोटे बच्चों को घर से बाहर नही निकलने देते है। कुछ समय पूर्व मैं  उत्तराखंड के अपने कार्यक्षेत्र में रात विरात आ जाता था, लेकिन अभी सोचना पड़ता है।
जब नरभक्षी जानवर कभी किसी बच्चे और बड़ो को उठाकर निवाला बना लेता है,  तो डर और गुस्सा आना स्वाभाविक है। अभी इसी वर्ष उत्तराखंड के किसी गांव में रात करीब 8 बजे एक परिवार शादी से लौटा तो उनका बच्चा गाड़ी से उतरा और तनिक सड़क पर आगे चला गया और कुछ गई क्षण में बच्चा सड़क से गायब हो  गया। गांव के लोग समझ गए। उन्होंने रात को ढूंढ मचा दी तो उस बच्चे का अध खाया शरीर मिला। वो लोग केवल शादी के लिए गांव आये थे। इस घटना से उस परिवार पर क्या असर हुआ होगा और उस ओर इलाके में दहशत और गुस्से का माहौल बन गया।
ऐसा ही होता है , जंगल के आस पास रहे है ,ग्रामीणों के साथ। ग्रामीण कभी भी बाघ आदि को मारना नही चाहते लेकिन ऐसी परिस्थिति में उनके पास क्या विकल्प होगा? जिसका अबोध बच्चा बाघ अपना निवाला बना ले तो परिवार क्या करें?
अभी अवनि बाघिन  की मौत ने देश को झकजोर दिया। उसके प्रति लोगों की चिंता और दुःख सोशल मीडिया में छाया रहा। लेकिन अवनि के द्वारा मारे गए 8 से अधिक लोगों की मौत का जिक्र भी नही हुआ। किसी ने भी उन मासूम लोगों की मौत के प्रति संवेदना प्रदर्शित की। इस बात का औचित्य समझ नही आया। जिन लोगों को अवनि ने निवाला बनाया उनके परिवार वालों पर क्या गुजरी होगी। ये भी हमको नही भूलना है।
वन विभाग और ग्रामीणों के बीच ये विवाद चलता ही रहता है। विकास की दौड़ ने जंगलो की शांति और नीरवता नष्ट कर दी। बाघ की  प्रजाति रात्रिचर है। उसका अपना इलाका होता है। सड़क, निर्माण, रिसोर्ट, चमक दमक, घोड़ा गाड़ी, चार धाम जैसे प्रोजेक्ट ने जंगलो के आस पास सब कुछ डिस्टर्ब हो गया। हेलीकॉटर टूरिस्ट से भी जंगल की शांति भंग होती है।
महानगर में रहने वालों को अपने जीवन की आपाधापी से बचने के लिए पहाड़ और जंगल ही चाहिए।
लोगो ने शहरों की शांति भंग करके जंगल में एक तरह से कब्जा ही कर किया। शहरीकरण से कचरा भी बढ़ गया। जंगली जानवरों की फूड हैबिट पर भी असर हुआ है। एक दूसरे के इलाकों में घुसपैठ से वन्य प्राणी और मानव की सहज सरल जीवन में व्यवधान तो आया ही है। उत्तराखंड में नरभक्षी गुलदार द्वारा काफी लोगों को निवाला बना चुके है।
वैसे जंगली जानवर और मानव का टकराव हमेशा ही रहा है।  इसको समझना होगा कि कैसे इसको कम से कम किया जा सकते है। सोशल मीडिया में अवनि के बारे में ट्रॉल्लिंग और मैसेज वायरल होना सही था। लेकिन जो लोग अवनि के निवाला बने उनकी भी सुध लेनी थी।
लाइक ,थम और शेयर करने वालो को गांव में दहशत से जी रहे ,ग्रामीणों के डर को भी समझना ही होगा। एक बात को  नही भूलना चाहिए ,हम लोग मच्छर को मारने के लिए रेपलेंट इस्तेमाल करते है। चूहे , कॉक्रोच समेत जो भी मनुष्य को तंग करें , उससे बचने के उपाय करता ही है। बाघ समेत सभी जंगली जानवर को संरक्षित करना हमारा कर्तव्य है ,लेकिन मानव की सुरक्षा पुख्ता करने के साथ। कुछ ठोस कदम उठाने ही होंगे:
1. सबसे पहले वन विभाग को तुरंत टेक्नोलॉजी से  सुज्जाजित करें ताकि नरभक्षी जानवर ,बाघ आदि को जिंदा ही पकड़ सके।
2. ग्रामीणों की रक्षा भी सरकार के लिए चुनौती हो और उसको भी बचाने के लिए जो भी तकनीक व विशेषज्ञता उसको वन विभाग में उपलब्ध करवाना जरूरी है।
3. देश के सारे वनों के कब्जे युद्ध स्तर से हटवाये  जाए। वर्तमान में वनों की भूमि पर कब्जे हो रखे है। इससे से भी वन्य प्राणी का इलाका कम हुआ है और मानव हस्तक्षेप बढ़ गया है।
4. बाघ समेत सारे जंगली जानवरों की मूवमेंट को रूटीन चेक किया जाए।
5. नरभक्षी बाघ की मूवमेंट के लिए  ग्रामीणों से मिलकर सुरक्षा कवच बनाया जाए।
6. सरकार को भी वन विभाग में अगर कर्मचारी कम है तो ग्रामीणों को प्रशिक्षित कर इस काम में तैनात करें।
7. नरभक्षी के डर को कम करने के लिए पिंजरा , मचान, डिटेक्टर अगर हो तो और घात लगाने की तैयारी पुख्ता हो।
8. कोशिश हो कि जान से न मारा जाए ,लेकिन ग्रामीण की सुरक्षा भी हर कीमत पर पुख्ता और चाक चौबंद रहे।
9. टाइगर फ़ूड चेन का केंद्र है। वन विभाग और ग्रामीणों को एक साथ फूड चेन को संरक्षित करने में पहल करनी होगी।
10. वन विभाग, वन पंचायत, ग्राम सभा, ग्रामीण, अन्य सभी जिलास्तर के विभाग एक टास्कफोर्स को तैयार रखे।
आशा है , हम सब मिलकर  इस बारे में ठोस कदम उठा कर सम्पूर्ण वनप्रदेश और एनिमल हैबिटेट को संरक्षित करेंगे।  IIPCC के उपाध्यक्ष श्री एल गोर कहते है कि " अगर  किसी भी प्राणी का एक विशिष्ट  नेचुरल हैबिटेट होता है, अगर वो नष्ट हो जाये तो वो प्राणी भी नष्ट हो जाता है क्योंकि वो अपने से उस विशिष्ट नेचुरल हैबिटेट को पुनर्जीवित और सृजित नही कर सकता "। इस बात को सदैव याद रखना  ही होगा।
प्लीज अपने विचार जरूर दीजियेगा।

(रमेश मुमुक्षु)
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400

Sunday 4 November 2018

वायु का मानव को संदेश

(वायु का मानव को संदेश)
मैं वायु हूँ , शुद्ध, निर्मल और मंद मंद बहना मेरा स्वभाव है। कभी कभी तीव्र और प्रचंड रूप से भी बहती हूँ। दुनियां के सभी जीव मेरे कारण ही जीवित है। एक पल भी मैं बहना बंद कर दूं तो जीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जाये। लेकिन बहना मेरा स्वभाव ही है।मैं बहुत से कण और धूल अपने साथ ले कर बह सकती हूँ। वो भी कभी कभी। लेकिन ये मानव इतना मूर्ख है कि इसको अहसास ही नही कि वो इतने खरनाक रसायन, तत्व मेरे अंचल में भर रहा है। वो भूलता है कि  मेरी भी क्षमता है। पहले ये मानव बहुत कम प्रदूषण मेरे आँचल  में फेंक दिया करता था।लेकिन अभी तो ये दिन रात केवल अपने सुख और मूर्खता के पोषण के लिए इसके जीवन के आधार को ही नष्ट करने को उतारू है।
ये अपना विवेक खो गया है। जैसे जैसे तापमान कम होने लगता है, मैं इतनी प्रदूषण को कैसे साथ लेकर बह सकती हूँ। धीमी और जमीन का सहारा तक लेना होता है। कितने जीव भी मर जाते है। अचरज का विषय है कि ये स्वयं ही उपदेश देता हैं कि सुबह उठ कर लंबी सांस लो ताकि प्राण वायु से शरीर स्वस्थ और निर्मल बने। लेकिन इसने मुझे इतना प्रदूषित कर दिया की अब कह रहा है कि सुबह सांस संबंधी  योगा मत करो। सांस गहरा मत लो।
हे, मानव तू महामूर्ख है। अपनी ही बनाई गंदी दुनिया में केवल तू खुद ही उलझ गया।जल, जंगल ,जमीन तो तू नष्ट करने में लगा है और अब मुझे भी इतना प्रदूषित कर देगा कि घुट घुट कर अपना अस्तित्व ही न समाप्त कर ले ।
तूने कभी सोचा है, मेरे  निर्मल , भारहीन स्वभाव को कष्ट होता होगा। अब तो मेरे लिए भी बहना भी दूभर हो गया है। कितनी बार तो सूर्य की किरणें भी जमीन और मानव के शरीर को छूने असमर्थ हो जाती है। तूने कुछ भी नही छोड़ा। कभी सोचती हूँ रुक ही जाऊँ ,लेकिन मानव ही अकेला नही है और भी जीव है, उनके लिए बहना है। अंधे दम्भ में डूबे हुए ,कुछ देर चिंतन कर ले और कितना जहर मेरे  आँचल में उड़ेलेगा।अब तो अचंभा सा लगता है कि मास्क पहने लगा है कि प्रदूषित वायु शरीर में न प्रवेश करें।
इतना बज्र मूर्ख और असंवेदनशील है कि पहले खुद ही मुझे दूषित करने में लगा रहेगा और भी खुद ही वायु साफ करने के तरीके खोजता है। खुद ही प्रदूषण का उत्पादित करता है और फिर उसको शुद्ध करने के उपाए सोचता है। पहले मुझे दूषित करने के साधन आविष्कृत करेगा और फिर साफ करने की खोज करेगा।  मेरे प्रचंड रूप का अंदाज़ा मानव को पूरी तरह नही है, एक क्षण में मैं इसको तिनके की तरह उड़ा सकती हूँ।लेकिन मेरा स्वभाव विनाश नही बल्कि जीवन  है। लेकिन मूर्ख मानव तू खुद ही अपनी जान के पीछे पड़ा है। जब तू जनता है ,तू ऐसी ऐसी चीज़े बनाता है कि प्रदूषण इतना भर देगा कि स्वयं सांस लेना तुझे दूभर होगा। प्लास्टिक, रबर और कितने रसायन तूने मेरे आँचल में भर दिए। जल भी दुःखी है, भूमि भी उकता गई। तुझे इतना कुछ प्रकृति से मिला ,जिसको तू अनंत काल तक उपयोग कर सकता था।  लेकिन तुझे चैन और आराम नही। एक दम तू सब कुछ कर लेना चाहता है। सबको अपनी मुट्ठी में कसना चाहता ही।तू भूलता है, अगर मैं बहना छोड़ दूं तो कितने पल का होगा तेरा जीवन और तेरा अस्तित्व , ये तू खुद ही जानता है, लेकिन मानता नही।
अब भी समय है , चेत जा , वरना मुझे क्या जो मेरे आँचल में उड़ेलेगा ,वो ही तुझे लेना होगा।  तू ही सदियों से कहता आया है, बोयें बीज बबूल का तो आम कहाँ से होए। कुछ तो याद कर और तनिक रुक कर सोच और प्रकृति को शुद्ध ही रहने दे। तेरे प्रदूषण से प्रकृति को कोई अंतर नही होने वाला बस तेरा अस्तित्व नही रहेगा। सरीसृप तक लोप हो गए, तू भी कब तक रहेगा। ये तय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष , हिमाल
9810610400

Saturday 3 November 2018

हरिजन बस्ती में बिताया एक महीना: पुरानी स्मृति

हरिजन बस्ती पालम में बिताया एक महीना: पुरानी स्मृति।
यायावरी और जिज्ञासु जीवन एक स्थान पर नही ठहरता । कभी यहां तो कभी वहां। 1995 में मैं कुछ समय उत्तराखंड में रहा। लेकिन मेरी जिज्ञासा अभी शायद साउथ कैंपस के पहले तल्ले की आखिरी कुर्सी पर मंडरा रही थी।जहां पर विभिन्न पुस्तकों में ऐसे भटकान होती थी जैसे किसी घने अनजान जंगल में रास्ता खोजते हुए होता है।  मैं पुनः दिल्ली आ गया। जीवन को एक बार खुल्ला छोड़ दो तो कड़की का साम्राज्य आपको घेर लेता है। कड़की और अपने ही रास्ते चलने का निर्णय आदमी को कहां से कहाँ ले जाता है। नौकरी न करने का निर्णय और राष्ट्रीय हॉबी सिविल सर्विसेज के मेंस एग्जाम से पहले ही उसको सदा के लिए तिलांजलि देने का निर्णय और जीवन को अपने भीतर उमड़ रहें द्वंदों के बीच लाकर खड़ा कर देता है। उसी दौरान पेंटिंग भी कही किसी भीतर के किनारे से बाहर तेजी से निकल आई थी। 1996 साउथ कैंपस जाने के लिए मुझे एक महीना हरिजन बस्ती पालम में शिफ्ट करना  पड़ा। मेरे एक मित्र रावत के ससुर का एक प्लाट था ,यहां।ये भी खूब रही , 20 पॉइंट प्रोग्राम की जमीन भी बिक चुकी थी। खेर, पुस्तको का ढेर लेकर दोस्तों की मदद से यहां पर शिफ्ट किया। पुस्तके भी मोह माया से कम नही होती। एक समय बाद उनको पढ़ना भी नही होता, छोड़ना तो संभव ही नही। मुझे याद है, उस वक्त ब्रह्मा अपार्टमेंट का निर्माण हो रहा था। लोग कहते थे कि ये पपन कलां  परियोजना बन रही है। उस वक्त हरिजन बस्ती में कच्चे पक्के मकान थे। रात को लाइट गई तो पड़ोसी कहता कि आप की कुंडी निकल गई। ये कुंडी क्या बला है? कुंडी का अर्थ चोरी की बिजली। उस वक्त लगभग सभी कॉलोनियों में बिजली की चोरी का चलन था। कॉलोनियां भी बेतरतीव पनपती चली गई। मुुंशी प्रेमचंद के उपन्यास    गोदान में वर्णित घास फूस की तरह पनप रहीं थी।
मेरे वहां पर रहते हुए ही सड़क का निर्माण हुआ। उस वक्त वहां पर 801 बस चलती थी।
उसी वक्त मेरे पड़ोसी जो मजदूरी करते थे, उनके साथ शायद बागडोला में एच पी की गैस एजेंसी खुली थी, उनके साथ गया था। रामफल चौक कुछ भी नही था। एक बार  मेरे मित्र के गांव बामनौली से पैदल ही पालम आया। उस वक्त पूरे द्वारका में गड्ढे ही गड्ढे थे। महानगर बनने की तैयारी हो रही थी। मुझे कुछ धुंधली याद है कि जाट चौपाल पार करके , जहाँ पर अभी कूड़ा फेंका जाता है, शायद उस वक्त भी वहां पर ही कूड़ा फेंका जाता था। असल में ये गांव से बाहर का भाग रहा होगा।उस समय जोहड़ भी ठीक ही था। पालम से 781 बस में रात को चौपाल पार करके हरिजन बस्ती आने के समय कुत्तो की घुर्राती भीड़ का सामना करना पड़ता था। उस समय मुझे चेगीज़ आत्मयतोफ के लघू  उपन्यास पहला अध्यापक में दुष्यंन के पीछे भेड़िए पड़ जाने जैसा ही लगता था।अंधकार से पटा होता था, पूरा क्षेत्र। उस वक्त हैंड पंप से पानी लेते थे। ये पूरा इलाका धूल से भरा रहता था, जो आज भी है। पामम कॉलोनी, राजनगर पार्ट ii, यहां पर इतने मकान और फ्लैट बन गए है । अगर इन सभी इलाको को घूमो तो पाओगे कि धूल ही धूल उड़ती रहती है।  एक बार 1981 में भी प्लाट खरीदने राज नगर घर वालो के साथ आया था। उस वक्त 60 रुपये ग़ज़ प्लाट मिलता था।
आज सेक्टर 7 और 8 की हालात इसलिए लचर  है क्योंकि ये सब बिना प्लानिंग के बनता चला आया है। पालम क्रासिंग से सेक्टर 7 तक केवल घर ही घर है।कोई पार्क और खुली जगह नही। फाटक से यहाँ तक पूरे साल भीड़, जाम और धूल उड़ती रहती है। कचरे का कोई निस्तारण नही है। जब द्वारका महानगर में भी इतनी पुख्ता व्यवस्था  नही है ,तो उन घनी कॉनोनियाँ मैं कैसे हो सकती है।
मुझे याद है कि 2002 में सेक्टर 1 के चौराहे से शाम 7 बजे के बाद जाने से लोग डरते थे।  ऋषिकुल स्कूल है, वहां पर दूध की मदर  डेरी थी। ट्रैफिक बिल्कुल नही था।
उस वक्त ही अगर ये सब योजना बन जाती तो हमें ब्रह्मा अपार्टमेंट के बाहर खड़े होकर प्रोटेस्ट नही करना होता।
उस दिन वहां पर खड़े होकर 1996 का मंजर स्मृति शेष में उभर गया। 1996 से आजतक कूड़ा वहीं का वहीं है।
हो सकता है कि कुछ बातें भूल गया हूँ।मैं हरिजन बस्ती एक महीना रहा। लेकिन आता कम ही था। महीने बाद में शिफ्ट कर गया था। कैंपस दूर पड़ता था और फाटक पर घंटो फाटक खुलने का इंतजार भी खूब रहा करता था।
कभी कभी किन्ही जगहों पर हम अनायास ही चले जाते है। मेरा यहां पर आना और कुछ दिन रहना ,शायद इस लेख का आधार बनना ही है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,हिमाल

Thursday 25 October 2018

पटाखे और वायु प्रदुषण

पटाखे और वायु प्रदूषण
दीवाली में पटाखे का इंतजार हर बच्चें को होता है। बड़े भी इंतजार में रहते है कि कब दीवाली आये और पटाखे फोड़े। आज से नही हमेशा ही रहा है। कम से कम शहरों में बहुत अधिक रहा है। अभी भी ग्रामीण अंचलों में लगभग नही है। उसका एक बड़ा कारण आर्थिक समृद्धि महानगरों जैसी नही रही।
70 के उत्तरार्ध में जब हम बच्चे होते थे ,स्कूल में जाते थे। उस वक्त पटाखों के प्रति हमारा अनुराग देखते ही बनता था। दोस्त लोग सब मिलकर सदर बाजार सस्ते पटाखे लेने जाते थे। वो ऐसा होता था ,मिशन इम्पॉसिबल के लिए रणबांकुरे जा रहे हो। उस वक्त सबसे बड़ा बम होता था, जिसको चलती बोली में गोला बम बोलते थे। अगर वो हरी सुतली वाला हुआ था, ऐसा लगता था कि हम ही हम है। उस वक्त बच्चो के पास थोड़े बहुत पटाखे होते थे।
अलग अलग लोकल नाम होते थे, गोला बम, टाइम बम, हवाई, सुर्री, चकरी, लड़ी, हथगोला और छोटे बच्चों के लिए फुलझड़ी, फिरकी, हेंटर और सबका चहिता अनार। ये उसवक्त के पटाखे होते थे।
बच्चे भी खूब आंतकवादी होते थे, किसी के लेटर बॉक्स, बड़े पाइप और गोले बम की बत्ती छील कर टाइम बम बना लिया करते थे। लगे रहते थे ,रात तक। अगर किसी के पास मुर्गा ब्रांड होता था तो समझों वो बादशाह ही है। ये सब लंबे समय से लोग मज़े लिया करते थे। रामलीला के समय से ही प्लानिंग बन जाती थी। पिता सबके हिटलर की तरह होते थे। मां को मखन्न लगाना बहुत पहले से शुरू हो जाता था। एक कमाने वाला कैसे पटाखों के लालायित बच्चो की मांग पूरी करते। बच्चों को अगर पूरा शिवकासी भी दे दो ,उनका मन नही भरता। एक ओर एक ओर करते करते रात हो ही जाती है।
उस समय अगले दिन बचे कुचे पटाखे ढूंढने के मिशन। फुस्स हुए पटाखे मिल जाते थे, तो उनका मसाला निकाल कर जलाने का आनंद कुछ और ही होता था। अचरज मत कीजियेगा उनमें से बहुत से उच्च पदों पर है और रिटायर्ड हो गए होंगे। हम जैसे कलम घिस्सु अभी पेपर काले करते , अब स्मार्ट फ़ोन पर लिखने लगे है।
इतना आनंद और चहल पहल हमारे भीतर बहुत भीतर बैठा हुआ है, एक दम कैसे जाए? न्यायधीश महोदय के पोती पोते ने भी मांग कर दी तो लाना ही होगा। बच्चे जानते है कि ये पर्यावरण के लिए घातक है, लेकिन बालमन प्रलोभन को कैसे तज दें। मां बाप की ममता और तर्क एक ही दिन तो हुआ। क्या फर्क पड़ता है? ये ब्रह्म वाक्य आदमी से क्या कुछ नही करवा लेता।
ऐसा नही कि पहले पर्यावरण दूषित नही होता था। मुझे इसका बहुत गहरा अनुभव है क्योंकि मुझे 1979 से ही दमा, आस्था है। मैं तो वायु प्रदुषण मापक कुदरती ही हूँ  । कितनी बार मुझे दमे का अटैक भी हुआ। नेबुलाइजर तैयार रखना होता है। लेकिन ये प्रदूषण  70 के दशक में भी होता था। दीवाली के दिन जलने वाले और सांस रोग से पीड़ित कितने ही बीमार होते है। लेकिन मन है कि मानता नही, बम देख कर फिसल जाता है। पहले भी प्रदूषण के कारक थे। सभी लोग कोयले, लकड़ी और गोबर के कंडे जला कर खाना खाते थे। लेकिन डिवाइस कम थे। अभी इतने डिवाइस और उपभोक्ता आइटम बढ़ जाने से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से प्रदुषण बढ़ गया है। हमारी जीवन शैली पर्यावरण के किये घातक साबित होती जा रही है। इस पर विचार करना ही होगा।
लेकिन अभी प्रदूषण की स्थित कही अधिक बुरी हो चुकी है। अभी प्रदूषण के कारक बहुत अधिक बढ़ चुके है। पटाखे इतने घातक है कि उनका प्रभाव पर्यावरण पर पहले की अपेक्षा हज़ारों गुना बढ़ गया है। बिना पटाखे के ही सांस लेना कठिन होता है ।
हमने कभी पक्षियों और अन्य प्राणियों के बारें में नही सोचा। कितने मर जाते होंगे। जो रात्रि विश्राम करने वाले प्राणी होते होंगे ,उनके साथ क्या बीतती होगी ?इसका हमने कभी आंकलन नही किया। हम चींटियों और कबूतरों को दाना देकर समझते है कि हम पुण्य कमा रहे है।  अब हमें सोचना ही होगा। किसी बीमार के लिए, बच्चों की सेहत के लिए, जलने की दुर्घटना के लिए, कीट पतंग और सभी खगचर के लिए। दीवाली के दिन हम हमेशा खुश होते थे कि मच्छर मर गए। ये भी अजीब सा अहसास हुआ। बहुत कुछ और भी नुकसान होता होगा।
अब हम लोग जान गए है कि वायु प्रदूषण का स्तर ख़तरे के निशान से ऊपर चला गया है। ये न हो की हमे गाड़ी समेत सभी डिवाइस ही जीवन और सांस लेने के लिए मजबूरी में बंद करने पड़े।
अब ये हम पर है, हमने मिठाई में जहर मिलना शुरू किया तो बर्फी खाना ही बंद हो गया। अब बम ऐसे बने है जैसे 10000 बमों की लड़ी  , एक और ध्वनि प्रदुषण और दूसरी और वायु प्रदुषण।
जब मैं कभी पहाड़ो में चला जाता हूँ ,तो सांस आने लगती है। दिल्ली में कितनी बार खांसी ठीक नही होती, वो ठीक हो जाती है।
ये अब गंभीर समस्या के रूप में उभर गया है।
अब तो अगर पटाखे न ही उपयोग हो , तो सबसे अच्छा हो और अपने पर्यावरण को बचा सकें। सांस से पीड़ित लोगों के लिए , पेड़ों में रह रहे खगचर के लिए हमे इस आनंद से ओत प्रोत आदत को जीवन के लिए छोड़ना ही होगा। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नही दिखता। इस समय भी सांस लेना सहज नही होता। क्या जीवन से बढ़ कर कोई आनंद है? क्या हमें अपने हाथों से ही अपने वातावरण को दूषित करना चाहिए? ये अभी सोचना नही, निर्णय लेने की घड़ी है। मुझे तो ऐसा ही लगता है। ये लिखते लिखते मेरी निगह खिड़की के बाहर गई, वहाँ पर शहतूत का वृक्ष है, उसके पत्ते धूल से पटे हुए है। इनको भी बचाना है, अपने जीवन के लिए। पर्यावरण संरक्षण करना है , अपने जीवन के लिए और मानव जीवन तभी रहेगा ,जब सम्पूर्ण पर्यावरण संरक्षित रहेगा, ये तय है। इन सब मानव के खटराग का असर अंटार्टिका पर दीख पड़ रहा है। इसलिए हमें 'पर्यावरण संरक्षण मानव विकास के लिए और मानव विकास के लिए पर्यावरण संरक्षण' को सदैव याद रखना ही होगा , अगर जिंदा रहना है ,तो ।
रमेश मुमुक्षु

Tuesday 23 October 2018

कूड़ा जलाना पाप हैं।

(कूड़ा जलाना पाप है)
शीषर्क में लिखे नारे के साथ करीब 100 के आस पास द्वारका के रेसिडेंट्स सेक्टर 7, ब्रह्मा अपार्टमेंट के बाहर ,जिसमे करीब 15 NGOs भी शामिल थी, हाथों में प्ले कार्ड लिए नारा लगा रहे थे कि कूड़ा न जलाया जाए। कूड़ा जलाना पाप है। (क्षमा करें नाम मैं नही लिख रहा क्योंकि सबके नाम याद नही रहते। ये प्रोटेस्ट जनता का प्रोटेस्ट था । संस्था भी जनता का एक रूप है।)
अचरज का विषय है ,करीब चार वर्षों से स्वच्छ भारत की दिन रात चर्चा है। हर चीज़ में स्वछ भारत लिखा है। द्वारका समेत पूरी दिल्ली में सर्दियों में होने वाले प्रदूषण की चर्चा है। उसके बावजूद भी जलाने वाले बाज नही आ रहे। तू डाल डाल मैं पात पात । कूड़ा है कि बढ़ता जाता है। ज्यों ज्यों आदमी की आय बढ़ती है, कूड़ा भी बढ़ता जाता है।
लेकिन सारा कूड़ा घर से आता।है। घर से सोसाइटी और मोहल्ले में इकट्ठा होता है। उसके बाद किसी भी खाली प्लाट पर डाल दो। घर साफ हो गया और बाहर की चिंता किसे।
कूड़ा उठाने की जगह एक तिल्ली लगाई,  सब स्वाहा हो गया। तिल्ली लगाने वाला एक बार भी नही सोचता कि कूड़ा केवल जैविक नही है। कूड़े में प्लास्टिक उत्पाद, सेनेटरी पैड्स समेत न जाने क्या क्या होता है ?तिल्ली लगाने वाला सोचता है कि चलो काम हल्का हो गया। लेकिन उसको ये क्यों नही मालूम कि जलाकर उसने वायु प्रदुषण ही पैदा किया है। कितने लोग सांस की बीमारी से पीड़ित होते है। कितने दम भी तोड़ते होंगे।
प्रशासन कचरा निस्तारण से लेकर ये भी समझाने में पूरी तरह फेल  हो गया कि कचरे को जलाने से क्या नुकसान होते है।
कचरे का निस्तारण : घर से ही होना चाहिए। इतनी चेतना अभी नही  आई। इसके अतिरिक्त एक व्यवस्था भी पनपती है। अगर सरकारी व्यवस्था चाक चौबंद हो , व्यवस्थित हो तो ही ये सब सुधर जाता है। पूरी दिल्ली कचरे का ढेर बनती जा रही है। लेकिन मेट्रो रेल में सफाई का एक बड़ा कारण है ,पुख्ता सिस्टम। अगर SDMC घर से ही कूड़ा उठाने की व्यवस्था को सुचारू रूप से शुरू कर दे तो एक ओर sdmc की कमाई भी बढे क्योंकि जिसको हम कूड़ा बोल रहे है ,वो एक तरह से खजाना भी है। कल्पना कीजिये कि अगर दिल्ली के प्रत्येक घर से सेग्रेगेटेड होकर कूड़ा अलग अलग हो जाये तो कितनी जैविक खाद का उत्पादन हो जाये और कितना और समान अन्य कामों के लिए इस्तेमाल हो सकता है। इसमे कुछ जानकर लोग आंकड़े दे सकते है।
कचरे में बदबू : कचरा एक साथ होने से ही बदबू शुरू होती है। बदबू के साथ ही विषाणु एवं कीटाणु का विस्तार होने लगता है। ये सभी के किये घातक होता है।
SDMC : अगर sdmc इस काम को अंजाम नही देगी तो कौन देगा। स्टाफ कम है, तो उसको बढ़ाने की ओर कदम बढ़ाओ। इतने बेरोजगार है, उनको रोजगार मिलेगा। कूड़े के एक एक कतरे का सुनियोजित तरीके से उपयोग करें ताकि sdmc की कमाई में वृद्धि हो जाये।
चालान कटे: एक बार व्यवस्था सही होने पर चालान काटने की मुहिम तेज होनी चाहिए। मुझे याद आता है ,मेरे एक अजीज  दोस्त ने 90 के दशक के शुरू में चीन की राजधानी बीजिंग स्थित तियानमेन स्क्वायर में सिगरेट का बड फेंक दिया । लेकिन तुरंत पुलिस ने मित्र को पकड़ा और चालान काट दिया। अभी 2018 में ऐसा PMO के आस पास भी एक सपना ही है।
जनता: जनता घर और बाहर सभी अपनी जगह मान कर साफ रखे । ये हमारे लिए कल्पना से परे  ही है। इससे हमारा रिपोर्ट कार्ड स्वयं उजागर हो जाता है।
SDMC को भी एक मिशन बना लेना चाहिए कि कचरा जलाने पर 100% रोक लगेगी ताकि हवा का प्रदुषण कम हो सके। द्वारका सबसे अधिक चर्चित महानगर है। यहां रहना एक शान मानी जाती है। लेकिन हवा की गुणवत्ता जब आनंद विहार से नीचे हो तो गंभीर चिंतन तो करना ही हुआ। लगातार प्रोटेस्ट भी संभव नही हो सकता।
आशा है , दक्षिण दिल्ली नगर निगम इस ओर युद्ध स्तर पर पहल करें और कम से कम कूड़ा न जलने दे । इस काम के लिए  sdmc को आगे आना ही होगा। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नही।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष , हिमाल
9810610400

तनिक विचार करें : स्त्री का मंदिर प्रवेश

तनिक विचार करें : स्त्री का मंदिर प्रवेश
जब से मानव का प्रादुर्भाव पृथ्वी पर हुआ है। आम आदमी से लेकर सारे अवतार, पीर पैगम्बर सभी स्त्री की कोख से जन्मे है। भूर्ण से पूर्व इन सब की मां को मासिक धर्म की पावन प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। उसके बाद स्त्री पुरुष के समागम से बच्चे का जन्म हुआ।  उपरोक्त और सारी सृष्टि का ये ही विधान है।
# उपरोक्त सभी के देवालयों, धार्मिक स्थलों पर उनको पैदा करने वाली स्त्री को प्रवेश की अनुमति नही है। 
क्या ईश्वर ने ये आदेश दिया है? कदापि नही।
इसके पीछे एक बात रही होगी। आजकल  सेनेटरी पैड्स के कारण रक्त के रिसाव की संभावना करीब खत्म हो गई है। मालूम नही चलता कि स्त्री मासिक धर्म में है। जब ये पैड्स नही थे , तो रिसाव की संभावना 100 प्रतिशत होती होगी। उस वक्त सफाई और गंदगी के कारण ये प्रतिबंध शुरू हुआ होगा। अभी शहरीकरण से पूर्व ग्रामीण अंचलों में अभी भी स्त्री को घर में आने की मनाही है। खाना भी नही बना सकती।
# लेकिन आज गंदगी और सफाई की बात नही रही।
# क्या आप कल्पना कर सकते है कि आज कोई फरमान जारी कर दे कि मासिक धर्म होने की अवधि में स्त्री सांसद, अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक समाज से अलग, घर से भी अलग रहे।
क्या ये संभव और उचित है? कदापि नही।
# अगर पैड्स न होते  अभी भी रिसाव होता, कपड़ो आदि में दीख पड़ता , तो स्त्री को खुद ही अच्छा नही लगता।
# अभी भी जो आदिवासी नग्न रहते है, वो तो पैड्स नही लगाते। वो हम सब सभ्य समाज कहे जाने वालों के पूर्वज ही है। हम कपड़ों तक आगये ,पैड्स बना लिए। वो ठीक वैसे ही है। जब से मासिक धर्म से घृणा शुरू हुई, तभी से नियम पनप गए।
# एक समय था,  जब मानव प्रकृति में रहता था। उस समय  परिवार नही पनपे थे। उस समय मासिक धर्म में सेक्स न होने पर आदमी औरत को मारने को उतारू हो जाता था। उस समय स्त्री की शारीरिक स्थिति सामान्य नही होती।
उसके बाद स्त्री ने मासिक धर्म में छुपना शुरू किया।ये ही प्रथा के रूप में आज भी प्रचलित है।
### उपरोक्त बातों के आधार पर स्त्री को धार्मिक स्थलों में प्रवेश प्रतिबंधित होना ।क्या उचित और न्यायपूर्ण है?
इस पर अपनी प्रतिक्रिया दें और अपनी राय रखें।
प्रवेश प्रतिबंधित होना उचित है।  इस पर भी खुल कर कहे।
रमेश मुमुक्षु