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Sunday 10 April 2022

प्रकृति का दर्द: सुनेगा मानव

प्रकृति का दर्द: सुनेगा मानव

हम जंगली वन्य जीव, वृक्ष ,
जिन्हें इस मानव ने
 जब मर्जी हुई अपने रास्ते और सुविधा के लिए बेरहमी से हटा दिया।
ये इसकी किस्मत है कि 
ये हमारे पूर्वज सरिसृप के बहुत बाद में अवतरित हुआ, 
वरना उनके सामने ये चींटी सा लगता
हम इस पृथ्वी में मानव से पहले आये
लेकिन इसने धीमे धीमे सब कुछ लील लिया
उजाड़ दिया जहाँ इसका मन हुआ
ये भूलता है कि पेड़ों के नीचे 
प्रकृति के बीच जाकर ही इसके भगवानों को ज्ञान प्राप्त हुआ 
और इसने उनके शिवालय और स्मारक बनाने के लिए पेड़ और जंगल भी जब चाह नष्ट किये
हज़ारों वर्षो तक जीवित रहने वाले हमारे वृक्ष 
सिकोया, बाओबाब ,एस्पन के जंगल भी नष्ट कर दिए
जो हज़ारों साल जीवित रह सकते है,
एस्पन का जड़तन्त्र लाखोँ साल तक चेतन अवस्था में रह सकता है 
सागर के डेल्टा में मौजूद हमारे रिश्तेदार मैन्ग्रोव के को भी इसने नही छोड़ा ,ये डेल्टा भी नही छोड़ेगा
इसने केवल गंदगी ही पैदा की है, सागर के जल को भी नही छोड़ा
लेकिन ये मानव कंकरीट के जंगलों के निर्माण में लगा है ,
जो सौ साल भी रह सकेंगे खड़े
हाँ मानव के पूर्वज सैकड़ो साल तक मौजूद रहने वाले निर्माण करता था
इसको हर जगह जल्दी और बेरोकटोक जो जाना है
भले हम प्राणी और वृक्ष खत्म होते रहे
ऐसा मूर्ख है कि लौट लौट पुनः वन की ओर जाता है 
और वहां पर भी अपनी सुविधा के अनुसार हमको दूर करता रहता है
हज़ारों साल से बना हमारा आपसी रिश्ता इसने दो सदियों में ही लील लिया
जल,थल ,नभ इसके लिए केवल 
उसकी सुविधा के लिए मार्ग ही है
जिन ज्ञान ग्रंथो व चिंतन की ये बात करता है, उनके मनीषी सहस्रों किलोमीटर पैदल ही 
भूमि पर चलते चलते इतिहास रच गए
शंकर, नानक समेत  लंबी फेहरिस्त है, ज्ञान साधक और ज्ञान स्थापकों की 
जो विवेकानंद को सागर की  ओर खींच लेती है, ज्ञान के चक्षु खोल देती है
लेकिन हम उनके हर स्थान को लील रहे है
शांति को उजाड़ कर उनके नाम से ध्यान के ढोंग में तल्लीन है
सघन वनों की बलि चढ़ा कर धार्मिक यात्रा पथ को सुगम करने की होड़ प्रकृति में व्याप्त सुमधुर संगीत को बेसुरा करने की जिद मानव के पूर्वजों द्वारा दीक्षित ज्ञान को स्वाहा कर न जाने किस दिशा की ओर बेसुध सा  भागा जा रहा है
खगचर की नाना कलरव , झींगुर की आवाज़, हवा का सर सर बहना, कल कल करती दूर घाटी से उठती नदी का कर्णप्रिय संगीत, जलप्रपात का सघन नाद जो अपनी ओर आकर्षित करता है
उच्च हिमालय क्षेत्र में व्याप्त बर्फ का पिघलता साम्राज्य जो भय उत्पन्न करने लगा है
मौसम का  बेतरतीव बदलता रूप प्रलय की आहट ही तो है
धुंध के बीच चलना अब जाता रहा है।
देवदार के जंगल के बीच जाने से ही उसके होने को महसूस किया जा सकता है
भोजपत्र की चर्चा हमेशा करता रहा, लेकिन वो भी अब कही खो गए। इसको अभी तक समझ नही आया है कि ये रास्ते सुंदर और लंबे तो बना लेगा, लेकिन जाएगा कहाँ और कहां पहुँचना चाहता है??
हम जंगली समझे जाने वाले प्राणी कैसे अपनी बात कहे 
प्रकृति का विलाप  सुनाए ,
लेकिन 
ह्रदय हीन मानव  कुछ प्रकृति प्रेमी  ही है,  कला से ओतप्रोत कुछ पंक्तियां स्मरण हो चली
महाकवि  स्व: शंकर  कुरूप की मलयालम के काव्य संग्रह ' ओटक्कुषल (बांसुरी) 
"यह वनस्थली खड़ी है
विविध पुष्पचीन्हों से सज्जित 
हरित साड़ी पहनकर अपने कोमल शरीर पर अकारण अंकुरित पुलक से सिहरी
पक्षियों के कलरव से बारंबार कलहास करती हुई"  
मानव के इसी रूप को देख कविवर सुमित्रनंदन पंत ने लिखा 
"सुंदर है, विहग ,सुमन सुंदर 
मानव तुम सबसे सुंदरतम "
सुन कर ये पंक्तियां  मानव के प्रति आदर होने लगता है। काश इसको ये अपने जीवन में उतार लें तो हम सभी प्राणी ,वृक्ष, खगचर मिलकर रह सकें, क्या ये हो सकेगा , भविष्य में.....???
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
9.4.2022