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Tuesday 16 November 2021

अवैध निर्माण/ नाजायज़ कब्जा और जनप्रतिनिधि द्वारा रुकवाने की पहल: क्या होती है?

अवैध निर्माण/ नाजायज़ कब्जा और जनप्रतिनिधि द्वारा रुकवाने की पहल: क्या होती है?
भारत में जब भी कोई जनप्रतिनिधि चुनाव जीत कर आते है तो वो निम्न शपथ लेता है। 
*'मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता/ हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा, मैं संघ ....के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगा तथा मैं भय या पक्षपात, या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूँगा।'*
क्या कभी किसी जनप्रतिनिधि ने सरकारी जमीन पर कब्जे, अवैध निर्माण आदि को शुरू से ही रुकवाने का भरसक प्रयास किया है?  जनता जब अवैध निर्माण और कब्जा करती है, क्या वो नेता से पूछते है?  नेता कभी अपने चुनाव क्षेत्र में अधिकारियों से कब्जे और अवैध निर्माण रुकवाने जैसी कोई मीटिंग लेता है। जबकि सरकारी काम, जैसे कोई भी विकास कार्य करने हो तो हम सब नागरिक जनप्रतिनिधियों के पास क्यों जाते है? जनप्रतिनिधि का काम मुख्य तौर पर विधायिका का काम होता है।  क्रियान्वयन का काम कार्यपालिका का होता है। लेकिन हम सफाई जैसे काम के लिए भी पार्षद को कहते है, जबकि एक पूरा विभाग इस काम के लिए है। 
जनप्रतिनिधि कभी कब्जा और अवैध  निर्माण को नही रुकवाते पाए जाते है ,बल्कि अगर अवैध निर्माण तोड़ा जाता है तो बहुत बार उसको रुकवाने का काम जरूर करते देखे  जाते  है। उनके करीबी ये सब आसानी से कर लेते है। जनप्रतिनिधि को भी उनके काम करने ही होते है।  
ये हम सब देखते है। 
अगर आप अधिकारियों से पूछो तो वो इस बात को दबी आवाज में कहते है। लेकिन बहुत से अधिकारी अपनी कार्यकारणी शक्ति का उपयोग करें,  तो जनप्रतिनिधि केवल उसका तबादला करवा सकते  है। इसलिए अगर कोई कनिष्ठ अभियंता अड़ जाए  तो उसका केवल तबादला होगा, या उसको किसी प्रकार का नुकसान किया जा सकता है। लेकिन उसको उसके काम से रोका नही जा सकता है। ये पक्का है।
इसी तरह आर डब्ल्यू ए भी पूर्ण रूप से गैर राजैतिक संस्था होती है, लेकिन अफसोस की बात है , कितनी बार ये किन्ही दलों और नेताओं के अनुसार ही संचालित होते है, जबकि इनकी भी शक्ति बहुत अधिक होती है। लेकिन कुछ छोटी छोटी मदद और पहचान के चलते ये अपनी शक्ति का उपयोग नही कर सकते। 
इसलिए व्यवस्था को मजबूत और  अक्षुण्ण रखना है तो जनप्रतिनिधि का चुनाव बहुत मांयने रखता है। हम देश के नागरिक है और वो हमारे द्वारा चुना प्रतिनिधि होता है। हम उसके नागरिक नही है। 
जिलाधिकारी, निगम के उपायुक्त,  पुलिस के एस पी/ डी सी पी एक आम आदमी और जिस तरह इनके पास शक्ति होती है, आम जन के लिए ये अभी भी बहुत बड़े अधिकारी  , जिनसे वो कभी मिल नही सकते, या मिलना आसान नही होता।  लेकिन वो भी अपनी शक्ति का अधिक उपयोग नही कर पाते। डी एफ ओ/डी एम/ एस पी/ अधिशाषी अभियंता / एस डी एम के पास शक्ति है। लेकिन फिर भी कब्जे और अवैध निर्माण होते है। जनप्रतिनिधि और ये सभी उच्च अधिकारी सभी शपथ लेते है। ग्रामप्रधान भी शक्ति शाली होता है। लेकिन क्या इन सभी की मीटिंग के एजेंडे में कभी उनके कार्यक्षेत्र में नाजायज़ कब्जे और अवैध निर्माण शामिल है? 
लेकिन हम आम नागरिक को भी वो ही अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि पसंद आता है ,जो ये सब करवा लें।
ये समग्र प्रयास से ही ठीक हो सकता है।  शीर्ष पर बैठे जनप्रतिनिधि को सबसे अधिक जिम्मेदार होना होगा और उसके लिए हम नागरिकों को उसके चुनाव से पहले उसका चयन करना होगा कि वो कैसा हो। जिस दिन हम आम नागरिक अपनी संविधान की शक्ति और कर्तव्य  को संतुलन कर लेंगे ,उसी दिन से बहुत कुछ बदलाव और चीज़े ठीक होने लगेंगी।
विधायिका , कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्ति को हम सब को समझना है। ये सब नागरिक के लिए है। अंत में नागरिक ही इनको सुचारू रूप से संचालित, नियंत्रित एवं किर्यान्वित कर सकते है। 
क्या कभी हम इस दिशा में सोचते है? ये हम सब नागरिकों को सोचना है। ज्ञात रहे राष्ट्रपति भी प्रथम नागरिक होता है। किसको चुनाव में वोट देना है, ये नागरिक को करना है, लेकिन मजे की बात है कि नेता और दल बताते है कि किसको चुनना है। इसको ही बदलना है। लेकिन ये तब होगा,जब हम नागरिक ये अपने आप से कर सकेंगे।
इस पर हम सब नागरिकों को गहराई से सोचना ही होगा क्योंकि प्रजातंत्र, लोक तंत्र  सब नागरिक के लिए, नागरिक के द्वारा और ही तय होता है। अधिक से अधिक नागरिकों की भागीदारी ही ये सब वास्तविक लोक तंत्र जहां पर सब कुछ जनता एवं संविधान के माध्यम से संचालित हो  सकें।
ये हम सब को  सोचना ही होगा।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
16.11.2021

Friday 15 October 2021

रावण की आत्मव्यथा

रावण की आत्मव्यथा
मेरी मृत्यु राम के धनुष से हुई। मैं जानता था कि ये होना ही था। ये वध मेरे तर्पण का आरंभ बिंदु था। मेरा सौभाग्य था कि साक्षात ईश्वर ने मेरे प्राण हरे। मैं  भी सदियों से ये सब भुगत रहा हूँ।सीता के हरण का पाप आजतक मुझे कुरेदता है। राम ने वध के उपरांत मेरा सम्मान किया  ,वो मृत्यु के दर्द को हरने वाला क्षण था। नारायण ने ही प्राण हरे ,ये मेरा सौभाग्य ही था।
लेकिन अभी कुछ वर्ष पूर्व मेरी तंद्रा यकायक टूट गई। पृथ्वी लोक से किसी निर्भया के क्रंदन और दर्द से पूरा ब्रमांड कंपन से हिलने लगा। मेरी भी सदियों बाद आंख खुल गई । इस क्रंदन ने मुझे भी विचलित कर दिया। मैं तो समझे बैठा था कि मेरी मृत्यु के उपरांत  पृथ्वी लोक में स्त्री के प्रति जो अपराध  मैंने किया वो मेरे वध के साथ ही लुप्त हो गया। निर्भया के चीख का सिलसिला जो शुरू हुआ ,आज भी जारी है। मैं 'रावण'  आज ये सब देख बहुत दुःखी हूँ। चारों और  एक के बाद एक निर्भया  के साथ अन्याय देख दिल दहल जाता है। कितने जघन्य अपराध मानव कर रहा है। 
हे राम तुम किस लोक में विरसजमान हो ,देख लो अपने संघर्ष से निर्मित दुनियां की अधोगति और कैसे ये मानव 14 वर्ष की संघर्ष गाथा भी  केवल याद करता है, ह्रदय में अनुभव नही करता। इनके पाप देखकर  मैं खुद भी स्तब्ध हूँ। सदियां मैंने अपनी चिता जलती देखी है। पाप पर  पुण्य की जीत की गाथा सुनते आया हूँ।  लेकिन आज मानव का ये हस्र देख अचरज हो रहा है। ईश्वर से निर्मित सृष्टि को नष्ट करने का पाप तू कर रहा है।   मुझे स्मरण आता है जब मैं मृत्यु शैय्या पर पड़ा था ,उस वक्त राम ने अपने अनुज लक्ष्मण से ज्ञान लेने को कहा ,उस वक्त मैंने तीन बातें बताई , जो आज भी सत्य है, उनका सार था" अपने गूढ़ रहस्य अपने तक रखना, शुभ कर्म में देरी ना करना, गलत काम से परहेज़ करना, और किसी भी शत्रु को कमज़ोर ना समझना , यह अमूल्य पाठ हर एक इंसान को अपने जीवन में उतारना चाहिए।लेकिन आज ये सब नदारद है।अभी ये मानव जो सृष्टि को नष्ट करने में तुला है, ये अदृश्य जीव से डरा हुआ ,मेरे पुतले भी नही जला पाया। ये भी मेरी तरह दम्भ में डूबा जा रहा है। हे राम ये मानव दिन रात जपता रहता है "होइहि सोइ जो राम रचि राखा।" लेकिन करता वही है ,जो उसको लाभकारी लगे , भले वो कहता रहता है कि सबै भूमि गोपाल की" लेकिन  विश्व के सबसे प्राचीन पर्वत अरावली से लेकर हिमालय समेत सब कुछ प्रदूषित और नष्ट भ्रष्ट करने में तुला है। हवा ,पानी , जलथल सब कुछ विकृत कर दिया। मेरे अनुज आई रावण का निवास पाताल लोक भी इस मानव ने भ्रष्ट कर दिया।
ये सब देखने से अच्छा है, पुनः चिरनिद्रा में चले जाएं। 
ये सब बोलकर रावण अंतहीन दिशा की चला गया और हम मानव के लिए  बहुत कुछ चिंतन करने के लिए छोड़ गया। समाज, लोकनीति,राजनीति समेत सब कुछ तहस नहस करने में तुला है।अपनी अपनी ढपली बजाते बजाते हम मानव अपने अस्तित्व को खतरे की ओर ले जा रहा है। अब देखना है कि हम मानव किस दिन एक सच्चा कदम उठाएंगे ,सही दिशा की ओर ....
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
15.10.2021

Tuesday 12 October 2021

पुरानी कविता (चलो घूम आओ घड़ी दो घडी)

पुरानी कविता 
(चलो घूम आओ घड़ी दो घडी)

न वाद न विवाद 
न आपस में झगड़ा
न तू तू 
न मैं मैं
न इसकी 
न उसकी 
न लेना 
न देना
क्यों आपस में 
मुँह फेर रहे है
बचपन से खेले
सभी संगी साथी
गुस्से से त्योरी 
तनी हुई क्यों है
कभी सुना 
और पढ़ा था
मतभेद बढ़ाना 
सबसे आसान है
हमको भी लगता 
था 
ये सच नहीं है
आपस में 
विरोधी तो भिड़ते रहे है
पर अपनों में दीवारें 
खड़ी हो रही हैं
ये कैसा अजब और गजब 
हो रहा है
गुस्से में राजा गुस्से में
प्रजा
लोकतंत्र कहीं 
दुबक सा गया है
बोलना बुलाना 
बहलना बहलाना 
कृष्ण के किस्से राधा 
कहा अब सुना ही सकेगी
कविता तो होगी
भाव न होगा
न होगा प्रेम 
न होगा आँखों की 
झीलों में 
जाना 
न होगा  बिहारी की 
कविता का उत्सव 
आँखों के इशारे 
सुना है
गुनहा है
चलो दिलदार चलो 
चाँद के पार चलो
पर मौत की सजा होगी
श्रृंगार रस सुना है
 गैर कानूनी और देशद्रोह 
होगा
कामदेव छुप कर
डरा सा हुआ है
न अब उड़ेगी जुल्फें
किसी की
सुना है आँखों
में चश्मे लगेंगे
बिल्डिंग बनेंगी
सड़के बनेंगी
नदियों को जोड़ो 
भले ही उनको मोड़ों
अब कोई न गा सकेगा
वो शाम कुछ अज़ीब थी
न अब साजन उस पार
होंगे
न शाम ही ढलेगी
न हवाएं चलेगी मदमस्त मदमस्त
न होगा गर
इन्तजार किस का
तो पत्थर बनेगा 
कोमल सा दिल अब
जिसमे न होगी कल की
कोई आशा 
भला ऐसे दिल को 
कर सकेगा कोई कैद
मज़ाल है किसी की
उसको झुका दे
ये उलटी धारा न 
बहने अब देना
दिलों को 
जोड़ों 
न तोड़ों 
वो धागा 
रहीम की ही सुन लो
न तोड़ो वो धागा 
फिर कभी ये जुड़ ही न
सकेगा
टुटा हुआ दिल
एटम पे भारा
भय से परे क्या मरना 
क्या जीना
सबको मिलकर 
बनेगा  बगीचा
नवरस बिना 
क्या जीवन का मतलब
बच्चे भी होंगे 
जवानी भी होगी
बुढ़ापा भी होगा
भाषा भी होगी
मज़हब भी होंगे
साधु भी होंगे 
सन्यासी भी होंगे
होंगे ये सब 
जब सारे 
ही होंगे 
सारे न होंगे तो 
अकेला कहाँ होगा
वैविध्य है जीवन और
कुदरत है सब कुछ 
सब कुछ है कुदरत
फिर क्या है मसला 
फिर क्या बहस है
चलो घूम आये 
चलो टहल आये 
मसले तो आते जाते 
रहेंगे 
हम फिर न होंगे
न होगा ये मंज़र
चलो लुफ्त ले लो 
घडी दो घडी 
चलो घूम आएं 
घडी दो घडी....
रमेश मुमुक्षु
(29.3.2017 ट्रैन में लिखी)

Saturday 2 October 2021

महात्मा गांधी : सतत परम्परा के वाहक

महात्मा गांधी :  सतत परम्परा के  वाहक  
महात्मा गांधी एक नाम ही नही अपितु एक सतत परम्परा का वाहक कहूँ तो गलत न होगा। गांधी के विभिन्न आयाम एक साथ  चलते दिखाई देते है। गांधी प्रार्थना, रोजमर्रा की सफाई, लिखना, बोलना, सेवा, प्रकृति से जुड़ा हुआ जीवन, सतत ग्रामीण विकास , ग्राम स्वराज्य एक समग्र चिंतन और अहिंसा और साहस को स्थापित करने की पहल करने वाला एक व्यक्ति जो जीवन भर नया नूतन खोजता रहा ,बहुत ही सहज और सुगम मार्ग को बनाता गया। 
गांधी में समग्रता का उद्विकास  काल से आरम्भ होता है ,जब उनको अपनी गलती का अहसास और गलती स्वीकार करने का साहस गांधी को एक लंबी यात्रा की ओर ले जा रहा था। एक खोज जो निरंतर चल रही थी गांधी के भीतर। गांधी के भीतर जो पनप रहा था, उसकी पुष्टि गांधी पढ़ने की आदत से पूरी कर लेते थे। उनकी चिंतन यात्रा के दौरान उन्होंने लेव टॉलस्टॉय , जॉन रस्किन, डेविड हेनरी थोरो एवं गोपाल कृष्ण गोखले को जानकर अपने भीतर हो रही उथल पुथल को एक व्यवस्थित मार्ग की दिशा में आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। इन महान विभूतियों को उन्होंने अपने गुरुओं के रूप में ही हमेशा माना, क्योंकि जो मोहनदास के मन में भविष्य की कल्पना आकार ले रही थीं, इन सब को पढ़ कर , उनको लग गया कि उनका रास्ता और लक्ष्य सही दिशा में जा रहे है।
इसी कारण ट्रैन से नीचे फेंके जाने के कारण ही उन्होंने जो किया , वो अचानक से हो गया था, ऐसा नही उनके भीतर सत्य और अहिंसा का मार्ग प्रशस्त हो रहा था। इस घटना से उनको धरातल पर उतारने का अवसर मिला और सफल भी रहे। साउथ अफ्रीका का प्रयोग शायद मोहन दास को गांधी और महात्मा के मार्ग पर ले गया। विदेश जहां पर अंग्रेजों का शासन था। बाहर के देशवासी दोयम दर्जे के माने जाते थे। रंगभेद के अनुसार भारत के लोग भी काले ही माने जाते थे। उनके भीतर सत्य अहिंसा के आधार पर सफलता ने टॉलस्टॉय की बात को  सिद्ध कर दिया  कि इस युवा से सत्य , अहिंसा और शांति के विचार को प्रतिपादन करने की आशा ही नही विश्वास है। इसके अतिरिक्त अफ्रीका में उनके प्रयोग सफल हुआ और उनकी आहट भारत में भी सुनी जाने लगी।
भारत आने पर गोपाल कृष्ण गोखले ने उनका स्वागत और आशीर्वाद दिया। गांधी ने आज़ादी के आंदोलन में गांव की आवाज़ को जोड़ने का विलक्षण कार्य किया , जिसकी शुरुआत चंपारण से हुई। चंपारण ने ग्रामीण अंचल को मुख्य धारा में लाने का काम भी किया। 
गांधी को किसी भी रूप में इग्नोर नही किया जा सकता है क्योंकि गांधी समग्र और सतत परम्परा के वाहक कहे जा सकते है। गांधी के लिए सफाई ,स्वच्छता दैनंदिन का  अनिवार्य कर्म था, जो सहज और स्वाभाविक ही था।
गांधी ने आज़ादी के आंदोलन के साथ रचनात्मक कार्य की श्रृंखला आरंभ कर समग्रता का परिचय दिया। आज़ादी की लड़ाई में चंपारण के बाद नामक आंदोलन, विदेशी कपड़ों की होली और भारत छोड़ो के साथ रचनात्मक कार्यों में साबरमती आश्रम, गांधी विद्यापीठ , सेवा ग्राम समेत एक लंबी श्रखंला का प्रतिपादन भी किया। सेवा ग्राम में परचुरे शास्त्री कुटी में उन्होंने कुष्ठ होने के बाद भी सेवा की और उन्होंने कहा कि सेवा का संबंध ह्रदय से होता है, सेवा दिल से ही की जा सकती है। इसके बाद कुष्ठ निवारण के कार्य आरंभ हुए। 
नई तालीम के माध्यम से समग्र शिक्षा की बात कही और उनका प्रयोग भी  किया। स्त्री शिक्षा पर उनका बहुत जोर था। 
गांधी ने ग्राम स्वराज्य की कल्पना की जो भारत की महती परम्परा का परिचायक ही था। विदेशी हुकूमत के कारण ग्रामीण सहज परंपरा पर जो विपरीत असर पड़ा ,उसको पुनर्स्थापित करने का ही समग्र और सतत प्रयोग था । ग्राम स्वराज्य आज भी ग्रामीण जीवन और ग्रामीण जीवन को अक्षुण्ण रखने का कारगर उपाय है। ग्राम स्वराज्य जल,जंगल,जमीन,समेत स्थानीय संसाधन का सदुपयोग जो सतत विकास की अवधारणा का वाहक ही है। आज भी ग्राम स्वराज्य ही ग्रामीण स्वावलंबन का एक मात्र उपाए है, भले वो विभिन्न रास्ते से आये। ग्राम स्वराज्य का सबसे बड़ा पहलू है कि ग्रामीण अपने विकास की सही दिशा स्वयं ही खोजे और उसी के आधार पर आगे बढ़े। कृषि एवं पशुपालन एक सिक्के के दो पहलू है। प्राकृतिक एवं जैविक कृषि और जीवन गांधी जी के दो मजबूत 
सत्य व  अहिंसा की ओर जाना तो मानव के सहज स्वभाव में आता गया है। मानव और प्रकृति समेत सम्पूर्ण प्रकृति को एक समग्र दृष्टि से देखना ही जीवन के संरक्षण के लिए बहुत जरूरी है।
गांधी एक निरन्तर चलती आ रही सतत समग्र परम्परा का वाहक कहे तो गलत न होगा। 
गांधी का रामराज्य सर्व धर्म प्रार्थना से सराबोर था। इसलिए उनके हाथों में गीता रही , और मरते समय ह्रदय से राम कितना ये गांधी के द्वारा ही  होना था।
उनके जीवन दर्शन का आधार हिन्द स्वराज्य में गांधी लिखते है कि देश  को अंग्रेजों ने गुलाम कैसे बनाया  ,जबकि अंग्रेज  तो संख्या में कम थे। गांधी उत्तर देते है कि हम खुद ही गुलाम बने है। अगर हम उनकी जीवन शैली अपनाते रहे, धीमे धीमे स्वयं ही गुलाम होते चले गए। ये बात आज भी प्रासंगिक है। 
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में कहा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” ... गांधी अपने में एक विचार थे, गांधी युवा पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत  है।"

रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,गांधी शांति प्रतिष्ठान 
दन्या , उत्तराखंड 
9810610400

Tuesday 14 September 2021

हिंदी दिवस : आओ विचार करें

हिंदी दिवस : आओ विचार करें
हिंदी दिवस और पखवाड़ा इस बात का परिचायक है कि अभी हिंदी राज्य भाषा नही बन सकी है। वैसे भी हिंदी के बड़े परिवार से बहुत सी भाषा अपना अलग घर बसा चुकी है और बहुत सी लाइन में खड़ी है। इस तरह हिंदी का कद छोटा होता जा रहा है। हालांकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है ,जिन्हें इंग्लिश नही आती । लेकिन इसका अर्थ ये नही है कि हिंदी का चलन बढ़ा है। हिंदी का कद फ़िल्म , फिल्मी गाने और टीबी सीरियल  से  बढ़ा है। लेकिन शिक्षा के प्रसार में अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ने वाली की संख्या अधिक होती जा रही है। गैरसरकारी और निजी स्कूल का चलन केवल अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई के कारण बढ़ा है। 
आजकल बच्चे हिंदी में गिनती तक भूल गए और दूसरी और अंग्रेज़ी में भी बच्चे पारंगत नही है। लिखने में तो थोड़ा बहुत लिखने और रटने से काम चल जाता है। लेकिन बोलने में अभी भी पिछड़े है।  लेकिन लोग इससे भी खुश है कि उनका बच्चा अंग्रेजी में पढ़ रहा है। अभी भी समाज में अंग्रेज़ी जानने वाले का सम्मान अधिक होता है। इस  मानसिकता  ने भी हिंदी के प्रति उदासीनता पैदा की है। नौकरी तो एक कारण है ही। कुछ वर्ष पूर्व हिंदी मीडियम से किसी विद्यार्थी ने राजनीति शास्त्र में प्रथम स्थान प्राप्त किया, ये जानकर सबको ताज्जुब हुआ। विद्यार्थी को ये जानकर बुरा लगा , तब मैंने उस विद्यार्थी को कहा कि इसमें हतोत्साहित होने की कोई बात नही है क्योंकि जो प्रोफेसर भी है, वो प्लूटो का अनुवाद इंग्लिश में पढ़ते है, तुमने हिंदी में पढ़ा तो क्या अंतर पढ़ गया?  ये सब भीतर गहरे में पूर्वाग्रहों के कारण होता है। 
लेकिन गूगल ने लोगो को हिंदी लिखना सिखा दिया। आजकल बहुत लोग जिनको हिंदी टाइप नही आती वो भी हिंदी टाइप कर लेते है। मैं स्वयं इसी तरह टाइप करता हूँ। 
सरकारी विभाग में भले आप हिंदी में लिखे , लेकिन जबाव अंग्रेज़ी में ही आएगा। कम से कम केंद्र सरकार में तो हिंदी अनुभाग  केवल अनुवाद के लिए ही खुले हुए है। संसदीय प्रश्न का अनुवाद हिंदी में होना अनिवार्य है, वो भी इस कारण ।अभी स्मार्ट फोन आने से लोग हिंदी का भी इस्तेमाल भी करने लगे है। 
हिंदी को राज्य भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन इसलिए भी है क्योंकि अन्य राज्यों के नागरिक इसको अपने ऊपर हिंदी तो थोपना कहते है। इसका एक कारण हो सकता है कि भारत में अन्य भाषाओं को समुचित सम्मान नही मिला। स्कूल में विदेशी भाषा का विकल्प रहता है। आजकल संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन तमिल और अन्य भाषा का भी समृद्ध इतिहास रहा है। उन भाषाओं को स्कूल में एक विकल्प के रूप में क्यों उचित सम्मान नही मिलता? ये सोचने का विषय है।  ये भी विडंबना है कि लोग विदेशी साहित्य को जानते है ,लेकिन तमिल जैसी समृद्ध , प्राचीन और परिष्कृत भाषा के इतिहास  के संगम काल को नही जानते, जो ईसवी पूर्व चरमोत्कर्ष पर था।
हालांकि जवाहर नवोदय विद्यालयों में बच्चों को किसी अन्य राज्य में जाकर रहना होता है और उसकी भाषा सीखनी होती है। लेकिन मेरा दावा है ,इस विषय में सब लोग नही जानते। इसलिए हमें भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए। शिक्षा नीति 2020 में मातृ भाषा में शिक्षा के साथ अन्य भाषा के विकल्प का प्रावधान रखा है। इसके ठोस रूप से लागू होने से इसमें मूल रूप से परिवर्तन आ सकेगा, उम्मीद तो की ही जा सकती है।
एक बात तो हम सब स्वीकर कर ही लेंगे की हिंदी में पूरे देश की संपर्क भाषा होने का सामर्थ्य कहूँ या  संभावना, इस बात से इनकार नही किया जा सकता। हिंदी भाषा को आप किसी भाषा या बोली की तरह बोल सकते है , हिंदी भाषा का हिंदीपन खत्म नही होता। तमिल हिंदी , गुजराती हिंदी आदि बन कर भी हिंदी ही रहेगी । लेकिन किसी अन्य भाषा को हिंदी की तरह नही बोला जा सकता क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वो हिंदी ही हो जाएगी।  हिंदी में नए शब्दो को अपने भीतर समाहित करने  की काबलियत है, इसलिए हिंदी का आकार समय के साथ भी बढ़ता रहता है। कुछ लोग शुद्ध हिंदी की बात करते है ,लेकिन हिंदी अपने साथ विभिन्न शब्दों को लेकर चलती है। इसी कारण उसमें सम्प्रेषण की असीम संभावना है, इसलिए इस भाषा में संपर्क भाषा होने का गुण तो है। हिंदी परिवार से निकली राजस्थानी, मैथिली, ब्रज और अन्य भाषा भले वो अपनी अलग पहचान बना ले , लेकिन हिंदी की तरह संपर्क भाषा का स्थान नही ले सकती। भारत में किसी भी राज्य में आज भी हिंदी भाषा के कारण संपर्क हो सकता है। हालांकि अभी अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित किया जा रहा है। 90 के दशक में सरस्वती शिशु मंदिर का प्रचार इसलिए अधिक हुआ क्योंकि उसमें अंग्रेज़ी भाषा प्रथम कक्षा से पढ़ाई जाने लगी थी। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों ने हिंदी धर्म और संस्कृति का कितना प्रचार और प्रसार किया ,ये कहा नही जा सकता । लेकिन अंग्रेज़ी के प्रति दूर दराज में रहने वालों का भी आकर्षण बड़ा ही है। 
डंडे के बल पर इसको लागू नही किया जा सकता है। जिनको हिंदी आती है , उनको तो इसका उपयोग करना ही चाहिए। सामाजिक , धार्मिक और अन्य क्षेत्रों में अंग्रेज़ी और हिंदी वालों का अंतर दीख पड़ता है। कोर्ट कचेरी में अधिकांश काम अंग्रेज़ी में होता है। निचली अदालत में ज़िरह जरूर हिंदी या लोकल बोली में होती है, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो अखबार की खबर का भी अनुवाद करना होता है। जज केवल अंग्रेज़ी में ही ज़िरह करते है। क्लाइंट जिसके केस पर ज़िरह होती है, वो समझ ही नही पाता कि क्या हो रहा है। ये सब चीज़े लचीली होनी चाहिए। किसी भी भाषा को संपर्क भाषा तो होना ही है। अभी लोग दक्षिण में पढ़ रहे है। इस तरह उनको उसी राज्य की भाषा को जानना चाहिए । लेकिन वहां भी लोग हिंदी , जो अपने तरह से बोली जाती है , का इस्तेमाल करने लगे है। किसी ने कहा नही की हिंदी का इस्तेमाल करो। लेकिन वो एक संपर्क भाषा के रूप में स्वतः ही पहुँच गई। ये हिंदी को लाभ है। जैसे अंग्रेज़ी अलग देशों में उसी तरह बोली जाती है। लेकिन वो होती अंग्रेज़ी ही है। बहुत से लोग संस्कृत को संपर्क भाषा के रूप में प्रचारित करते है। संस्कृत पढ़ाई जाए । लेकिन वो हिंदी की जगह लेगी , फिलहाल संभव नही है।  अभी जो लोग संस्कृत के जानते है, वो ही आपस में संस्कृत नही बोलते है। इसलिए सभी भाषा का सम्मान और उनके इतिहास की जानकारी से सारी भाषा नजदीक आएगी। इस संदर्भ में जवाहर नवोदय विद्यालय ने जो पहल की है। इसके लिए राजीव गांधी के विज़न जिसमे दूरभाष और कंप्यूटर के साथ स्कूल में ही बच्चे एक अन्य भाषा भी सीख लेते है, एक बहुत बड़ा कदम था। इस तरह के ताने बाने से ही हिंदी के प्रति लोगो को गुस्सा नही आएगा,  बल्कि उनकी भाषा और बोली को यथोचित सम्मान न मिलने से वो हिंदी के विरुद्ध बोलते है।
इसलिए उस दिन का इंतजार तो रहेगा जब हिंदी सप्ताह मनाना बन्द होगा और लोग अंग्रेज़ी को याद करेंगे।  लेकिन अंग्रेजी पढ़ेंगे जरूर। क्या आएगा ऐसा दिन ? ये सोचने का विषय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
15.9.2017
14.9.2021 (पुनः बदलाव के साथ पोस्ट किया है)
14.9.2022( पुनः बदलाव के साथ पोस्ट किया है)

Monday 6 September 2021

पेड़ और विकास : अरावली की सुबह

पेड़ और विकास : अरावली की सुबह
4.8.2018 
अभी सुबह मोर  और पक्षियों के कलरव ने  नींद खोल दी। बाहर देखा तो गुडगांव फेज 3 के पीछे अरावली के अवशेष और दूर जहां तक नज़रें जाती है , जंगल का वितान तना है। सच शहरों की बालकनी में खड़े होकर ऐसा दृश्य देखते ही बनता है। जंगल प्रकृति के सबसे खूबसूरत उपहार है। व्यक्तिगत रूप से मुझे मुगल गार्डन भी पसंद नही आता। शुद्ध प्राकृतिक  रूप से उगे पेड़ और उन के साथ इधर उधर पनप गई ,झाड़ियां जंगल को जंगल बना देती है। उसने यहाँ वहाँ उड़ते खगचर ,झींगुर समेत कीटपतंग उसके श्रृंगार ही है। कोई भी मौसम हो जंगल अपना रूप बदलता है। कभी पतझड़ तो कभी बरसात में गाड़े हरे रंग की चादर ओढ़ लेता है ,जंगल। जंगल के भीतर सांप की तरह पगडंडी को दूर से देखने का अहसास ही कुछ और है। सड़क भी अच्छी लगती है , लेकिन सड़क को निहारा नही जा सकता। सड़क पुरातन नही ,पगडंडी पुरातन है, जो मानव के बहुत भीतर तक अवचेतन मन और जीन में मानव की यात्रा के असंख्य दस्तावेज के रूप में समाविष्ट है। 
विभिन्न पेड़ जंगल की एकता और सुखी जीवन का दर्शन है। पेड़ वास्तव में मानव के अनुरूप नही बने है। मानव को केवल उससे गिरा ही खा सकता है। ये बने है ,पक्षी ,कीटपतंग और जानवरों के लिए जो उसकी गोद में बैठकर अपनी भूख और  थकान दूर करते है। 
ये पेड़ कितने ही जीवों के घर और आश्रयस्थल होते है। शायद हम इसकी चिंता और सुध नही लेते। पेड़ बढ़ने में समय लगता है। पेड़ अपने पूरे जीवन में उपयोगी रहता है। पेड़ जब ठूंठ का रूप लेता है ,उसमे भी जीव रहते है। जंगल का अपना एक संगीत रहता है। हवा चलती है , तो नाद होता है। कितनी ही वर्षा हो पेड़ अपने शरीर से उसको फैला देता है। पेड़ जमीन को पानी देते है। नदी को पैदा करता है। वायुमंडल को वायु ,जो जीवन के लिए उपयोगी है। धूप में चलते एक छोटा सा ठूंठ भी राहत दे जाता है। उच्च हिमालय के जंगल दिन में भी अंधेरा ओढ़े रहते है क्योंकि उनमें जीव पनपते है। जंगल के रंग जैसा कोई चित्र नही हो सकता। नाना रंग से सुज्जजित रन बिरंगी चादर जैसा सूंदर दृश्य क्या बना सकता है ,कोई मानव? मानव की सबसे खूबसूरत बिल्डिंग भी तभी सुन्दर  लगती है ,जब उसके चारों ओर पेड़ होते है। बिना पेड़ और हरियाली को उजाड़ कहा जाता है। लेकिन प्रकृति के स्वयं के वृक्षविहीन स्थल भी खूबसूरत होते है। दुनिया का कोल्ड डेजर्ट स्पीति का क्षेत्र खूबसूरत है क्योंकि उसमें बर्फ से प्रकृति चित्रकारी करती है। 
रेगिस्थान के टीले सागर की लहरों से लगते है। एक वक्त था ,मानव ने सभी जगह जीना सीखा और प्रकृति के साथ एकात्म और समरसता रखते हुए। 
लेकिन अभी विकास का मॉडल केवल विकास ही देखता है। पेड़ उसके लिए डी पी आर के किसी चेप्टर का हिस्सा है। कलम चला दो , वो भी अब कंप्यूटर के कीपैड पर उंगली दौड़ेंगी कि 100 पेड़ काटेंगे 1000 लगा देंगे। मानव की जमीन का एक इंच भी कट जाए तो मार काट तक हो जाती है। लेकिन पेड़ और उसमें रह रहे ,जीव की कौन सुने। लेकिन मानव कबूतर को दाना देकर और चींटियों को आटा डाल अपना धर्म पूरा कर लेता है। क्या किसी विकास के मॉडल में इसकी चिंता होती है कि उपसर रहने वाले जीव कहाँ जाएंगे? उनका क्या होगा? अभी तो इसपर चर्चा भी करना बेमानी हो गया है। एक तरफा विकास और विचार संपन्नता लाता है ,लेकिन एकाकी और निपट अकेला बना देता है। विकास का हरेक मॉडल आदमी को एकाकी बना रहा है। प्रकृति में एकाकी कुछ भी नही , समग्रता ही है। भारत का पुरातन ज्ञान भी ये ही कहता है। लेकिन विकास की ज़िद्द और हठधर्मिता मानव को क्रूर बना देती है। जो आज हम झेल रहे है।
इसलिए विकास के चाहने वालों कम से कम पेड़ काटकर कर विकास करों। 
जंगल की आवाज़ हमेशा जिंदा रहे, इसको नही भूलना। ये वो जान सकते है ,जिन्होंने जंगल के बीच उसको महसूस किया होगा।
जल,जंगल ,जमीन और वायु सत्य और जीवन का आधार है। इसको संरक्षित करने का मॉडल ही सतत है और चिरस्थाई है।
अभी भी बाहर जंगल अपनी और बुलाता है। उसमें थोड़ा चल कर किसी चट्टान पर बैठना आकर्षित करता है। जंगल में बहती नदी का नाद संगीत की पराकाष्ठा ही है।
सोचना तो होगा ही ,अगर ये सब न हों, तो क्या करेगा मानव का विकास और उसका एकाकी जीवन।
इसलिए  चिपको आंदोलन का प्रसिद्ध  नारा और बात हमेशा याद रखनी है " 
जंगल के है क्या उपकार 
मिट्टी पानी और बयार
मिट्टी पानी और बयार 
जिंदा रहने के आधार।
(रमेश मुमुक्षु)
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
ramumukshu@gmail.com

Sunday 5 September 2021

अध्यापक दिवस के बहाने कुछ भूली बिसरी यादें ताजा हो गई।. know thyself -Socrates

अध्यापक दिवस के बहाने कुछ भूली बिसरी यादें ताजा हो गई: know thyself -Socrates
मासाब , गुरुजी, सर् की छवि हमारे दिल में अभी भी बैठी है कि दो तीन रसीद होने वाले है। हाथ आगे कर.... मुर्गा बन, डेस्क पर खड़ा हो जा, ये सब रूटीन की बातें थी  सबके पिताजी हुआ करते थे, डैडी का चलन शुरू हो गया था, कह दिया करते थे कि मासाब अगर ये न पढ़े तो हड्डी पसली एक कर देना..... घूमता रहता है। आवारा हिप्पी हो गया है। अच्छे मासाब का अर्थ जो डंडे से खबर लेते थे। हम भी ढीठ ही थे, कक्षा में खुसर फुसर करने की आदत जो ठहरी ,  कब खुसर फुसर हंसी में तब्दील हो जाती थी, ये आज तक कौतूहल ही बना हुआ है। मासाब को सुनाई पड़ जाता था। बस फिर क्या था, मुर्गा, डेस्क पर खड़ा और उल्टी हथेली करके स्केल से पिटाई शुरू। लेकिन हंसी बजाए रुकने की नॉन स्टॉप हो जाती थी। फिर क्या था,  हाथ और मुँह से  पिटाई पिटाई शुरू। ये सब शिक्षा में आम बात थी। आज जब हम उन अध्यापकों को याद करते है , तो ये ही कहते है कि जो बहुत कर्मठ हुआ करते थे, वो पिटाई भी करते थे। उनको ऐसे लगता था कि ये पढ़ क्यों नही रहा। बहुत बार तो बच्चें डर के कारण स्कूल न जाने की सोचते थे। लेकिन ऐसा सोचा तो घर में रेल पेल हो जाया करती थी। उस वक्त परीक्षा में नंबर मिलना राशन और कंट्रोल के अनाज मिलने जैसा ही था। 
लेकिन गुरु जी तो गुरु जी ही थे, पीछे सबके नाम रखे होते थे। हम सब के भी असली नाम न होकर दूसरे नाम हुआ करते थे। सारे बच्चें सुबह 8 बजे रेडियो पर समाचार के खत्म होने का इंतजार करते थे क्योंकि सब के पिताजी साईकल या पैदल ही आफिस जाते थे। ये सरकारी कॉलोनी वाले बच्चों की कथा है। पिताजी दूर दिखे नही की बच्चे बाहर दौड़ जाते थे, जैसे कर्फ्यू से निकले हो। 
लेकिन आज भी वो सारे अध्यापक याद आते है। बहुत से अध्यापक बहुत डेडिकेटेड हुआ करते थे। कुछ ऐसे भी थे,जो बिना पिटाई के पढ़ा लिया करते थे। कभी कभार वो सूद सहित निपटा देते थे। अगर कोई टीचर हल्के मिल जाये तो बच्चे भी अपनी कसर निकाल लिए करते थे। अनूठा संबंध होता है, विद्यार्थी और अध्यापक का, भूल नही सकता कोई। उस वक्त ट्यूशन का  चलन लगभग नही था। टीचर ही संभाल लिया करते थे।  किसी भी बच्चे के जीवन में टीचर का रोल अहम होता है। टीचर का समर्पण और पढ़ाने के तरीके से बच्चे को तरासा जाता है। आज बहुत कुछ बदल गया, लेकिन टीचर तो टीचर ही है। कुछ भी हो टीचर का सम्मान तो होना ही चाहिए और टीचर भी इसको मात्र नौकरी न समझे। टीचर का सबसे बड़ा काम होता है , बच्चे के भीतर छिपी प्रतिभा को खोज कर उसका परिष्कार करना। हालांकि व्यवस्था में इसका वक्त कम मिलता है। जब ये सुनने में आता है कि क्या तीर मार रहा है टीचर , वेतन मिलता है, उसका ये काम ही है, तो लगता है कि कुछ मिस हो गया।  वेतन से ही पढ़ाई नही होती, उसके लिए बहुत अलग अलग अवसर होते है। लेकिन टीचर का बहुत दायित्व होता है कि वो बच्चे में कैसे निखार लाये। अगर टीचर और विद्यार्थी के बीच कनेक्ट कम हुआ तो शिक्षा पर असर पड़ेगा। जरुरी नही कि डरा कर ही पढ़ाई हो  सकती है। टीचर की अपनी तैयारी और रुचि बच्चे को आकर्षित करती है। तोतोचान जैसी बच्ची हो तो  सोसाकू कोबायाशी जैसा अध्यापक और स्कूल चाहिए। इसके अतिरिक्त  चंगीज़ आत्मतोव की पुस्तक पहला अधयापक के दूईशेन का स्कूल जिसको  उस पिछड़े   गांव कुरकुरेव की पहकी विद्यार्थी अल्तीनाई  विख्यात होने के बाद भी स्तेपी के दूर ऊँचें टीले पर पोपलर के पेड के नीचे बिताए स्कूल के दिन और अपने अध्यापक को आज हमेशा याद करती है।प्राचीन भारत में आचार्य चाणक्य जिन्होंने एक बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर सम्राट बना दिया। परमहंस राम कृष्ण ने अपना शिष्य खुद ही खोज लिया, जो विवेकानंद ही थे।
इतिहास भरा हुआ है। ऑनलाइन के जमाने में जहाँ बच्चे जानकारी रखते है, वहां पर नए तरह के चैलेंज है। लेकिन सबसे बड़ा काम और लक्ष्य होना चाहिए ,बच्चे की प्रतिभा, सृजनात्मकता और अन्वेषण प्रतिभा को खोजना और उसका परिष्कार करना। सर्वपल्ली राधाकृष्णन और उनके द्वारा दर्शन पर लिखी पुस्तकें भी  आज हमारी धरोहर है। उनके जन्म दिन को ही अध्यापक दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्वभारती के संस्थापक गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कोई विश्व विद्यालय की चार दीवारी नही बनाई, उनका कहना था कि शिक्षा खुली और निर्बाध होनी चाहिए, ताज़ा हवा जैसी। महान दार्शनिक गुरु सुकरात कहा करते थे  ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।' उनका मुख्य ज्ञान सूत्र था, " स्वयं को जानो", Know thyself"। ये प्राचीन भारतीय दर्शन का आधार ज्ञान सूत्र रहा है।   
आज के दिन तो ये सब याद आ ही जाता है। 
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
5.9.2021

Tuesday 6 July 2021

क्या मानव फूल सृजित कर सकता है

क्या मानव फूल सृजित कर सकता है
मानव ने खूब प्रगति की  है ,लगभग सभी क्षेत्रों में , वनस्पति के जीन में भी वो कुछ कुछ कर देता है। उसके दावे है कि वो किसी ग्रह पर बस्ती बनाएंगे।ये हो भी सकता है । लेकिन वंसुधरा में बिखरे अनगिनत फूल हम बना पाएं है।हम मानव जब जब प्रगति के शिखर पर पहुंचें हमने मानव का संहार किया। मानव द्वारा मानव का संहार हमारे मानव इतिहास का सबसे मुख्य विषय रहा है। लेकिन एक छोटे से फूल को बना देना हमारे बस में नही है। उच्च हिमालय पर भी प्रकृति कमल उगा देती है। हमारे लिए वर्षा का आना कभी सुखद और कभी विषाक्त होता है। लेकिन प्रकृति का ये नियम है । वर्षा में ही सुदुर हिमालय  समेत सभी जगह पर पुष्प उगते है। लेकिन हम मानव को चैन नही। एक फोटो के लिए पहाड़ खोदने को आतुर भूखें भेड़ियों की तरह जो स्टेपी के मैदान में बर्फानी रातों को शिकार खोजता है। जबकि उसके आस पास भी सैकड़ों पुष्प खिलते है। लेकिन वो पुष्प नही  देखने जाता ,बस निरुद्देश्य ही जाता है। इस सूरज मुखी फूल ने बता दिया कि चाहे लूं भी चले , लेकिन प्रकृति सृजन करती रहती है, हर क्षण , बस नज़र को उसके पास तक ले जाना होता है। जॉन रस्किन सही कहते थे, मानव क्यों रिक्रिएशन के लिए जाता है , जब ये कुछ क्रिएट नही करता है। बदहवास सा केवल भीड़ करता है। प्रकृति की आगोश में खोने वाले आज भी है। लेकिन हमारी जिद है कि  सभी जगह पर हम जाए , उन स्थानों को देखने भी जाएं ,जो  शांत और सुदूर है ,  लेकिन वहां पर भी भीड़ में जाये और शोर मचाकर कर उसकी शांति का बखान करें।  पिछले लॉक डाउन में ये सिद्ध हो गया कि केवल मानव ही प्रकृति को नष्ट कर रहा है। ये रुकेगा तो सब ठीक चलेगा।घाटी, दून, नदी, नदी का उद्गगम, बुग्याल, बर्फ की चोटी सब लील लेगा। अभी तरक्की के नए नए तरीक़े सीख लिए है, अब तेजी से सब कुछ देखने को आतुर मानव अपने आस पड़ोस को कभी नही देखता, सूर्यास्त की ओर नज़र नही भी नही उठाता ,लेकिन दुनियां के नक्शे में खोजता रहता है कि कहां पर सूर्यास्त अच्छा होता है। केवल अपनी हवस को दूर करने के लिए  ये टिड्डियों के दल की तरह हम भागते है। अभी पर्वत को घंटो निहारने वाले पटाक्षेप में गुम हो गए होंगे। "अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।"ऐसे हिमालय को देखने वाले नागार्जुन अब नही मिलेंगे और आएंगे। अलका पूरी की यात्रा वृतांत सुनने वाले कालिदास किस पहाड़ की चोटी पर बैठकर ये सोच पाएंगे और मेघदूत लिखेंगे। एवरेस्ट को भी नही बक्शा।पिछले दिनों अंटार्टिका में बहुत बड़े आइसबर्ग का टूटना केवल एक छोटी सी किसी अखबार के कोने में छपी छपी घटना थी ,एक फिलर की तरह। कनाडा में 49 डिग्री भी एक दिन सुर्खी बटोरने के लिए थी। 
1992 में रोहतांग ट्रेक की यात्रा के समय एक प्रोफेसर मिले ,पैर में प्लास्टिक के जूते, एक बोरी लपेटी हुई,एक पिट्ठू बेग , ने हमें बताया कि घूमने के लिए " एक निरंजन, दो सुखी ,तीन में झगड़ा ,चार दुखी" अब तो भीड़ ही भीड़ है। हिमालय में कौसानी  और कन्याकुमारी के विवेकानंद केंद्र के पास बैठकर सूर्यास्त की याद आ गई , लेकिन सूर्यास्त को केवल देखने के इतर खामोशी से निहारना होता है, तनिक शांत बैठकर महसूस करने से ही  प्रकृति से एकाकार हुआ जा सकता है, ये तय है।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष , हिमाल 
9810610400
6.7.2021

Saturday 26 June 2021

कोरोना खत्म नही हुआ है

कोरोना खत्म नही हुआ है
मास्क लगा ले मास्क लगा ले 
मास्क लगा रे ।
जब जब भी तू भीड़ में जाये
 मास्क लगा रे ।।
आफिस , दुकान किसी का घर हो
मास्क लगा रे ।।।
दो ग़ज दूर ही रहना सब से 
मास्क लगा र v।
हाथों को नित साफ ही रखना 
मास्क लगा रे v
बाहर तू खाना कम कर दे  अब 
मास्क लगा रे vi
इम्युनिटी का जाप किये जा 
मास्क लगा रे vii
दोनों वैक्सीन जल्द लगा ले 
मास्क लगा रे viii
कोई जन भी  छूट न जाये  
मास्क लगा रे xv
दूजी लहर को कभी न भूलो 
मास्क लगा रे x
कोरोना खत्म नही हुआ है
मास्क लगा रे xi
तीसरी लहर को न आने दे 
मास्क लगा रे xii
अब तो सुधर ले कुछ तो डर ले
मास्क लगा रे 
मास्क लगा ले मास्क लगा ले
मास्क लगा रे 
मास्क लगा ले मास्क लगा ले 
मास्क लगा रे ।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष हिमाल,
9810610400
25.6.2021

Tuesday 22 June 2021

कोविड की दूसरी लहर के बाद : मंजर ऐसा की कुछ हुआ ही नही

कोविड की दूसरी लहर के बाद : मंजर ऐसा की कुछ हुआ ही नही
पिछले दिनों किसी जरूरी काम से तिलक नगर जाना हुआ और आज सेक्टर 12 की ओर जाने पर लगा कि जैसे अप्रैल और मई की मेमोरी सभी के दिमाग़ से डिलीट हो गई हो। उसके बाद सेक्टर 14 मेट्रो स्टेशन के पास इरोज़ मॉल में दारू का ठेका । भीड़ ही भीड़ , डर मुक्त और उन्मुक्त लोग इधर उधर बिना किसी डर के दिखाई पड़ रहे है। अप्रैल और मई के महीने में मजाल है, कोई एक मास्क लगाकर बाहर निकल जाए, दो दो मास्क लगाते थे। दिन रात फ़ोन बजते थे, ऑक्सीजन, बेड, दवा, प्लाज़्मा, आई सी यू, वेंटीलेटर और शमशान घाट में लंबी लाइन, किसी परिचित और पहचान वाले की खबर, किसी के अस्पताल में जूझते हुए की चिंता और न जाने कितनी खबर। लॉक डाउन में चारों ओर सन्नाटा। 
एक बात से इंकार नही किया जा सकता है कि लोग उकता गए, कहीं दूर जाना चाहते है। लेकिन हम सब सुरक्षित रहे और सबसे पहले कोरोना के लिए नियत व्यवहार को जीवन का अंग बना ले , जब तक हम इस को अपने जीवन से दूर न कर दें। जैसे अभी मास्क पहनने वाले बड़े है। 
लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर निर्देश का पालन हो। ऐसा लगता है, हम सब थक गए या भविष्य की चिंता छोड़ दी।क्या ये सही है?
इस तरह उन्मुक्त होना उचित है?
कोरोना अनुशासन को जीवन में उतारना ही होगा, क्या ये सच बात है? 
पिछले दिनों द्वारका पुलिस के अतिरिक्त डीसीपी 1 श्री शंकर चौधरी ,ने एक आदेश / निर्देश जारी किया । उनका काम करने का तरीका भिन्न है। मुझे लगता नही कि उसपर कुछ बहुत चर्चा भी हो रही है। शुक्रवार 3 बजे तक एस एच ओ को पूरे सप्ताह की रिपोर्ट देनी है। लेकिन हम अलमस्त हो गए लगते है। 
आदेश और निर्देश से बेहतर है, हम खुद ही इन बातों का पालन करना सीख लें। कितनी आर डब्ल्यू ए है, जो सर्विस प्रोवाइडर की वैक्सीन की बात कर रहे है। हम लोग कम से कम वैक्सीन के लिए प्रयास तेज कर सकते है। निर्माण से जुड़े लोगों को वैक्सीन के लिए तैयार कर सकते है।।उनके लिए वैक्सीन लगवाने की पुख्ता व्यवस्था कर लें तो कम से कम वैक्सीन से ख़तरा तो कम हो जाएगा। बिना वैक्सीन के पॉकेट और सोसाइटी में न आने देने की बात को लागू करने का प्रयास किया जा सकता है। 
असल में निर्देश और आदेश केवल कागज़ और ऑनलाइन तक ही सिमट हो गए है। कहीं भी कोरोना संबंधी निर्देशों का पालन तो दूर पूरी तरह मानये भी नही जा रहे है, ऐसा लगता है।
जब मेट्रो को छोड़ सभी जगह खुली छूट हो गई, नियम पालन नही हो रहे। मेट्रो में कम से कम कुछ तो पालन हो ही रहा है। तीसरी लहर की चर्चा होती रहती है। अगर इस तरह बिना किसी निर्देश के चलता रहा तो अंजाम हम देख ही चुके है। लेकिन इतना जल्दी भूल गए, ये गंभीर सोच का विषय है।
चिंतन तो कर ही सकते है।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष हिमाल 
9810610400
22.6.2021

Friday 4 June 2021

बरगद की आत्म व्यथा भाग -2 मुझ पर धागा बाधने वाले दो पैर के प्राणी : मुझ में भी प्राण है

बरगद की आत्म व्यथा भाग -2
मुझ पर धागा बाधने वाले दो पैर के प्राणी : मुझ में भी प्राण है। 
मेरे शरीर को सीमेंट से पूरी तरह दबा दिया गया है। मैं द्वारका उपनगर नई दिल्ली की सेक्टर 6 की मार्किट में शनिमंदिर के पास ही स्थित हूँ, या सजायाफ्ता हूँ। मेरे कुछ साथी भी। जो मेरे आस  पास मेरे जैसे ही तकलीफ में है। मेरे एक ओर सड़क और दूसरी ओर मार्किट ,ये तय है कि मेरी वृद्धि सदैव बाधित रहेगी। मैं अपनी एरियल रूट्स को जमीन तक कैसे ला सकूंगा। मेरा वजन बढेगा और एक दिन तय है कि मैं गिर ही जाऊं। 
मुझ पर धागा बांधने वाले केवल अपने स्वार्थ के लिए आते है। किसी को मेरी सुध नही कि मेरे भीतर भी प्राण है। मुझे भी अपने शरीर को खुल कर पोषक तत्व और प्रकृति का आनंद चाहिए।काश,  अगर हम खुद यहाँ से वहां चल सकते तो हमेशा इस मनुष्य से दूर ही जाकर बसते।
जब मेरे बीज से अंकुर फूटा था,उस वक्त ही मुझे किसी खुले स्थान पर यहां से हटा कर उगा दिया जाता तो बहुत ही अच्छा रहता। लेकिन ये मनुष्य ठीक मेरे सामने शनिवार को मंदिर में अपने कष्ट निवारण के लिए आता है ,लेकिन किसी को आज तक मेरा दर्द नही सुना। ऐसे ही मेरा भाई पीपल और सभी फाइकस परिवार के पेड़ जिनके बीज पक्षी खाकर यहाँ बिखेर देते है ।जब मनुष्य ने अपने घर नही बनाये थे ,तो हम जंगल अथवा खुले स्थान पर ही उगते थे। लेकिन अभी हम शहरीकरण के दंश और अभिशाप को झेलने के लिए छत, पाइप, दीवार कही भी उग जाते है। 
कब ये मनुष्य मेरी सुध लेगा और कम से कम मेरे शरीर को सीमेंट से मुक्त करेगा। मेरा भार बढेगा तो मेरे शरीर को हल्का करना ही होगा ,वरना मैं अपने भार से गिर जाऊंगा। कल ये मनुष्य 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाएगा  और बड़ी बड़ी बातें करेगा ,लेकिन मुझे कोई नही देखेगा। बस मेरे नीचे अपनी गाड़ी खड़ी करने की सोचता है ताकि धूप से बच सकें।
देखता हूँ ,कौन मेरी फरियाद सुनेगा और कब तक। 
हे प्रकृति ये  बुद्धिहीन ,स्वार्थी, पढ़े लिखे अल्पज्ञानी को कब  मेरी तकलीफ  का अहसास होगा। मुझे मालूम है  कि कुछ लोगों को वास्तव में इसका ज्ञान और जानकारी  नही है,वो मेरे शरीर में निर्दोष भाव से धागा बांधते है, मुझे उनसे कभी तकलीफ नही होती।  लेकिन जो जानते और समझते है, उनके ऊपर  मैं क्षुब्ध रहता हूँ। सरकारी विभाग वाले जो समझते है ,वो भी मेरी सुध नही लेते। कुछ लोग है, जिनके भीतर संवेदना है ,लेकिन वो कम ही है। अभी मेरे अग्रज को, जो गिर गया था ,उसको लगा दिया है।  अब  देखता हूँ ,कब तक मेरा और मेरे परिवार का शरीर सीमेंट से मुक्त होता है। कब तक मनुष्य के भीतर संवेदना का संचार होता है , कब तक.....?
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
4.6.2021

Sunday 30 May 2021

द्वारका में स्थित बरगद के पेड़ की आत्मा की व्यस्था

द्वारका में स्थित बरगद के पेड़ की आत्मा की व्यस्था
अंततोगत्वा मेरी असमय मौत हो गई। मनुष्य इसको हत्या और मर्डर कहता है। ये द्वारका कंक्रीट के नगर से बहुत पहले से मैं रहा हूँ।लंबा कालखंड मैंने देखा है। कुछ दशक पूर्व मैं खेतों के बीच खड़ा आनंद से जीवन व्यतीत कर रहा था। दूर तक में देख पाता था। पहले मुझे सभी सम्मान करते थे। मुझे पोषक पदार्थ और पानी मिल  जाया करता था।
मेरे ऊपर कितने किस्म के खगचर रहते और आते जाते थे। मेरे शरीर से हवा में लटकती जड़े मेरे भारी शरीर को धरती पर मजबूती से पकड़े रहती है। मेरे समान उम्र के पेड़ों का घेरा मेरे से कितना ही बड़ा है।
लेकिन मैं अभागा  असवेंदनशील मनुष्यों के मध्य फंस कर रहे गया।  मेरे तने की नीचे इसने सीमेंट से मेरा आधार बन्द कर दिया। सीमेंट से पटा मेरा तना लंबे समय तक उम्मीद करता रहा कि मेरे तने के आधार को सीमेंट मुक्त करवा दे , एक दो मीटर तक मुझे मेरी हवा से झूलती जड़ों जमीन को पकड़ने में सफल हो सकें। लेकिन इस मूढ़मते और लालची मनुष्य ने मेरी परवाह किये बिना मेरे तने के आधार पर सीमेंट पाट दिया। मेरी जड़े जमीन के नीचे  तक नही जा सकी। शरीर मेरा भारी होता चला गए। मैं जमीन को अपनी जड़ों द्वारा पकड़ नही पाया। बिना लटकती जड़ों के मेरा आधार कमजोर होता चला गया।
कुछ सज्जन लोग मेरे को संरक्षित करने के लिए आये थे। लेकिन किसी ने उनकी बात को नही माना। वो मुझे हेरिटेज पेड़ बता रहे थे। मैंने उनसे सुना कि ये पेड़ बहुत ही घना और सुंदर है।लेकिन कुछ लोग केवल अपनी कार खड़ी करने के लिए उनके द्वारा  मेरे को सीमेंट से मुक्त करवाना नही चाह रहे थे। मुझे काफी लंबे समय तक  तकलीफ़ रही। मेरा स्वरूप बढ़ता गया और मैं खुद अपने भार और अपनी जड़ों की पकड़ को नही पा रहा था। 
आखिरकार मेरी  सारी उम्मीद बिखर गई और अंत में मैं मर गया और धराशाही हो गया। मुझे न जाने कितनी सदियों तक जीवित रहना था।
ये मनुष्य अभी चिपको आंदोलन की बात कर रहा था। बचपन में वृक्ष प्रेम की ये कविता पढ़ता था, " ये कदम का पेड़ अगर होता यमुना तीरे, मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे" ये भूल गया " हम पंछी एक डाल के" पेड़ों के प्रति इसकी श्रद्धा स्वार्थ से ओत प्रोत है। मेरे बदन पर सूत का धागा तो खूब बंधता रहा। लेकिन मेरी जड़ों को सीमेंट से ढक दिया। अभी तो मैंने एक सदी ठीक से नही देखी थी। भूल जाता है कि हमको भी पोषण चाहिए। धरती से रिस रिस कर पानी जड़ों तक जाता है।
हालांकि कुछ ऐसे भी है,जो मेरे मरने से आहत हुए है। मुझे दुबारा जमीन में लगाना चाह रहे है। मैं उनके प्रेम को प्रणाम करता हूँ। उनसे मैं यहीं कहूंगा, मेरे जैसे जितने भी पेड़ सीमेंट से ढके है, उनका तर्पण कर दो। उनको सीमेंट मुक्त कर दो। उनकी सेवा न भी करो ,लेकिन उनकी हत्या तो न करो। तुम समझते नही, ऐसे सीमेंट से ढके पेड़ धीरे धीरे मरते है, लंबे समय पोषण से वंचित रहते है।
ऐसा मत करो , पेड़ों से तुम्हारा जीवन है। हम तुम्हारे उद्भव से पूर्व ही दुनियां में अवतरित हो गए थे। मेरी मौत से तूने कितने खगचर, सूक्ष्म जीव का निवास स्थान ध्वस्त कर दिया ।कब तक तू पेड़ो को ऐसे ही इग्नोर करता रहेगा। मुझे ख़ाक की दो लाइन याद हो उठी: 
काट दिए है पेड़ सब,  कहीं नही है  छांव ।
कहते है सीना ठोक कर, बदल रहा है गांव।।
हे प्रकृति इसको सदबुद्धि प्रदान कर।  अभी मैं पेड़ की आत्मा हूँ, कैसे छोड़ जाऊं अपने शरीर को ,लेकिन जाना होगा। दशकों की याद भुलाना कितना कठिन है, ये मानव क्या जाने ?ये तो रामचरित मानस में मेरी बात को भी भूल गया , तुलसीदास लिखते है ",।।तहँ पुनि संभु समुझिपन आसन। बैठे वटतर, करि कमलासन।।
भावार्थ-अर्थात कई सगुण बसाधकों, ऋषियों, यहाँ तक कि देवताओं ने भी वट वृक्ष में भगवान विष्णु की उपस्थिति के दर्शन किए हैं।- रामचरित मानस। लेकिन अभी मनुष्य इस तरह समगरतापूर्ण चिंतन नही करता ,केवल संकीर्ण स्वार्थ के वशीभूत ये जीवन जीता है। सभी नही ,लेकिन कम नही है। मुझे जाना होगा अनंत यात्रा के पथ पर दिल में टीस लेकर कि मैं मनुष्य का क्या बिगाड़ा ?  कुछ भी नही मांगा और न ही शिकायत की ,उसके बाद भी मेरी असमय मौत हो गई । लेकिन मैं बदुआ नही दूंगा, लेकिन प्रकृति के विरुद्ध और अपने स्वार्थ के कारण ये व्यवहार मानव जाति के लिए संकट पैदा करेगा ,ये तय है।

रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल 
9810610400
29.5.2021

Friday 9 April 2021

स्मृतिशेष: प्रकृति के बीच चित्रों के संसार में


स्मृतिशेष: प्रकृति के बीच चित्रों के संसार में
1998 में घने जंगल के बीच लालटेन की रौशनी में पेंटिंग का अपना ही आनंद होता था। कभी कभार बाघ की दहाड़ सुनाई पड़ती थी। दिन में जंगल के बीच किसी घांस के मैदान में सोने का अपना आनंद रहता है। फक्कड़ है , लेकिन प्रकृति का खजाना हमेशा साथ रहा है, और रहेगा। जल , जंगल , नदी, हिमालय, घाटी, सब मेरे करीब रहे। हालाँकि ये जो कागज के नोटों के धनपति है, ये इनको लील लेना चाहते है। लेकिन फक्कड़ो की दीवार को भेदना इनके बुते की बात नहीं। हाँ , कोशिश जारी है। अरे कागज के धनवानों, कभी प्रकृति की गोद में रहो और भेड़ चराते, खेत जोतते लोगो के करीब रहो , तो तुम्हे अहसास होगा की तुम कितने निर्धन हो। पैसा कमाओ  और इन प्रकृति के उपहार को बिना छेड़े, फिर देखो धन और प्रकृति को मेल। दोनों जरुरी है। लेकिन साथ चल कर ही। 
अभी अचानक रात के सन्नाटे में एक बांज (oak) का पत्ता गिरा और सारा जंगल और उसकी निस्तब्धता क्षणिक टूट गई। फिर स्मृति कागज, रंग और ब्रश पर पहुच गई। खिड़की से बाहर बर्फ गिरने का सन्नाटा और भी गहरा गया है। ठण्ड हड्डियों को 
कपा रही है। छोटे से ट्रांज़िस्टर में मेरी पसंदीदा बीथोवन की 9th सिम्फपनी की धुन पुरे बदन में सिरहन पैदा कर हाथ को कागज पर रंगो के साथ कुछ उभार रही है। यकायक बदन टूट गया लगता है। सुबह 4 बज गए , मदहोशी में 98 छोटे चित्र   उकेरे जा चुके थे। बाहर अभी भी बर्फ का गिरना जारी है । अचानक ध्यान टुटा। 
क्या कोई लूट सकता है , ऐसा मज़ा मात्र कागज के नोटों से, नही ,हाँ , एक बार  प्रकृति के साथ घुल मिल जाओ तो खूब पैसा कमाओ और प्रकृति को अक्षुण्ण रखने का मन स्वयं ही हो जायेगा। लेकिन एक बार डूब लो दोस्तों।
रमेश मुमुक्षु
8 April 2016

Saturday 3 April 2021

काश गांधी को भुलाया नही गया होता


काश गांधी को भुलाया नही गया होता
काश गांधी को भुलाया नही गया होता
तो जल जंगल और जमीन के प्रश्न आज खड़े न होते
ग्राम स्वराज्य से पटे होते गांव
ग्रामीण उद्योग ग्रामीणों को पलायन से रोक लेते
लेकिन उनके ही अपनों ने उन्हें भुला दिया गया था
केवल नाम रह गया उनके काम कहीं काफूर हो गए
गांधी को मठों में बैठा दिया दशकों तक
ग्रामीण अंचल अपनी मिट्टी से भटक गया
गांव जहां से रोजगार पैदा होते है वो शहरों के स्लम में आने लगे
ग्रामीण कुटीर उद्योग भुला दिए गए
लेकिन गांधी को भुलाना संभव नही है
गांधी एक व्यक्ति का नाम नही अपितु एक परंपरा का वाहक है
परंपरा जो ग्रामीण मिट्टी , खेती, स्थानीय संसाधन से उपजी थी
जो गांव के खेत, खलियान, जल संसाधन के साथ चलनी थी
लेकिन धीमे धीमे भूलने लगे उस समग्रता को तेजी से आगे बढ़ने की दौड़ में चलना भी दूभर हो गया
आज पुनः गांधी याद आ ही जाते है
उनकी साउथ अफ्रीका से  चंपारण, दांडी मार्च जो उनको हमेशा कालजयी बनाये है
आज भी हम नही खोज पाए कोई  नए आयाम
क्योंकि हम भूल चुके थे गांधी के सीधे सरल मार्ग को
जो ग्राम स्वराज्य की ओर जाता है
ग्राम स्वराज्य ग्रामीण अंचल को समग्रता में देखता है
कृषि , वानिकी, बागवानी, जड़ी बूटी, साफ सफाई और मिलनसारी एक साथ समग्र यात्रा जो ग्रामीण को स्थानिक रोजगार की परंपरा से जोड़ें था
काश अगर नही भुला होता गांधी का अहसास और समग्रता जो सतत विकास की अवधारणा पर टिका था
उसमें जोश नही दिखता था क्योंकि वो सतत और टिकाऊ था
जिनको क्रांति की आदत पड़ी थी
उनके लिए गांधी ठहरा हुआ शांत और धीमी चाल सा लगता था
अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत
और उसका निडर टिकाऊपन धैर्य प्रदान करता है
जो कभी गांधी के नाम में हरकत नही पाते थे
वो उसमें ऊष्मा खोज रहे है
उन्हें याद आने लगी चंपारण, दांडी और नमक का दर्शन जो अचूक और चिरस्थाई था
लेकिन आज सतत चाल और टिकाऊपन  की न रुकने वाली यात्रा का अहसास होने लगा है
समग्रता ही सत्य और ठोस है,जो चलती है, बिना रुके
धीमे धीमे बिना रुके
सतत और लगातार अनवरत
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष हिमाल
9810610400
3.4.2021

Thursday 1 April 2021

(चलो घूम आओ घड़ी दो घडी)

(चलो घूम आओ घड़ी दो घडी)

न वाद न विवाद 
न आपस में झगड़ा
न तू तू 
न मैं मैं
न इसकी 
न उसकी 
न लेना 
न देना
क्यों आपस में 
मुँह फेर रहे है
बचपन से खेले
सभी संगी साथी
गुस्से से त्योरी 
तनी हुई क्यों है
कभी सुना 
और पढ़ा था
मतभेद बढ़ाना 
सबसे आसान है
हमको भी लगता 
था 
ये सच नहीं है
आपस में 
विरोधी तो भिड़ते रहे है
पर अपनों में दीवारें 
खड़ी हो रही हैं
ये कैसा अजब और गजब 
हो रहा है
गुस्से में राजा गुस्से में
प्रजा
लोकतंत्र कहीं 
दुबक सा गया है
बोलना बुलाना 
बहलना बहलाना 
कृष्ण के किस्से राधा 
कहा अब सुना ही सकेगी
कविता तो होगी
भाव न होगा
न होगा प्रेम 
न होगा आँखों की 
झीलों में 
जाना 
न होगा  बिहारी की 
कविता का उत्सव 
आँखों के इशारे 
सुना है
गुनहा है
चलो दिलदार चलो 
चाँद के पार चलो
पर मौत की सजा होगी
श्रृंगार रस सुना है
 गैर कानूनी और देशद्रोह 
होगा
कामदेव छुप कर
डरा सा हुआ है
न अब उड़ेगी जुल्फें
किसी की
सुना है आँखों
में चश्मे लगेंगे
बिल्डिंग बनेंगी
सड़के बनेंगी
नदियों को जोड़ो 
भले ही उनको मोड़ों
अब कोई न गा सकेगा
वो शाम कुछ अज़ीब थी
न अब साजन उस पार
होंगे
न शाम ही ढलेगी
न हवाएं चलेगी मदमस्त मदमस्त
न होगा गर
इन्तजार किस का
तो पत्थर बनेगा 
कोमल सा दिल अब
जिसमे न होगी कल की
कोई आशा 
भला ऐसे दिल को 
कर सकेगा कोई कैद
मज़ाल है किसी की
उसको झुका दे
ये उलटी धारा न 
बहने अब देना
दिलों को 
जोड़ों 
न तोड़ों 
वो धागा 
रहीम की ही सुन लो
न तोड़ो वो धागा 
फिर कभी ये जुड़ ही न
सकेगा
टुटा हुआ दिल
एटम पे भारा
भय से परे क्या मरना 
क्या जीना
सबको मिलकर 
बनेगा  बगीचा
नवरस बिना 
क्या जीवन का मतलब
बच्चे भी होंगे 
जवानी भी होगी
बुढ़ापा भी होगा
भाषा भी होगी
मज़हब भी होंगे
साधु भी होंगे 
सन्यासी भी होंगे
होंगे ये सब 
जब सारे 
ही होंगे 
सारे न होंगे तो 
अकेला कहाँ होगा
वैविध्य है जीवन और
कुदरत है सब कुछ 
सब कुछ है कुदरत
फिर क्या है मसला 
फिर क्या बहस है
चलो घूम आये 
चलो टहल आये 
मसले तो आते जाते 
रहेंगे 
हम फिर न होंगे
न होगा ये मंज़र
चलो लुफ्त ले लो 
घडी दो घडी 
चलो घूम आएं 
घडी दो घडी....
रमेश मुमुक्षु
(29.3.2017 ट्रैन में लिखी)

Wednesday 31 March 2021

चलते चलते बिना रुके

चलते चलते बिना रुके
जब कोई अपने 
पैर जमाने लगता है , 
तो सभी को
 शुक्रिया कहता नही 
थकता
वो कमीज के टूटू बटन 
की भी 
तारीफ करेगा
उलझे उलझे बाल और
 अस्त व्यस्त हालात को 
दर्शन बोल देगा
हर बात को ध्यान से सुनेगा 
उसकी गंभीरता
 देखते बनती है
याद रहे पैर जमाने के
 दौर में
लेकिन पैर जमते ही 
वो सब कैसे 
काफूर हो जाता है
दर्शन कहीं पीछे
 छूट जाता है
टूटू बटन पर
  निगाह 
टिक जाती है 
ध्यान से सुनना
 किसी जिन के
 चिराग में चला गया  
सा लगता है
लेकिन मतवाले और 
जीवन को गहराई से 
समझने वाले 
इसका भी 
लेते है आनंद 
उन्हें मालूम है 
ये जो कभी कभी 
तारीफ के 
पुल बांध देते है
ये आदतन ऐसा 
करते है
उन्हें मालूम है कि 
तारीफ का 
कितना सिलसिला रहेगा
ये बिचारे ही होते है
चेहरे पर मुस्कुराहट 
को दिखाने का 
मुखोटा 
इन्हें बहुत भाता है
संबंधों की प्रगाढ़ता 
ऐसी जैसे सागर की
 गहराई 
पहाड़ों की 
ऊंचाई की तरह
आकाश की उड़ान 
जैसे इनका 
छदम रूप देखते ही 
बनता है
पड़ाव दर पड़ाव यात्रा 
पथ में आते रहते है
जाते रहते 
और जिनको 
 एकला चलना है 
वो दूर निकल जाते है 
चल अकेला 
चल अकेला
 गुन गुनाते हुए 
यात्रा पथ पर 
दूर ओझल होने तक
 मंजिल की ओर 
अनंत पगडंडियों 
पर 
चलते चलते बिना रुके अनवरत.....
रमेश मुमुक्षु 
30.3.2021

Tuesday 30 March 2021

कुछ पगडंडियाँ बची है पहाड़ की चोटी कीओर

  कुछ पगडंडियाँ बची है पहाड़ की चोटी कीओर
अभी भी कुछ 
पगडंडियाँ 
बची है पहाड़ की चोटी की
ओर 
जाने के लिए
वर्ना लील गई
 काली सड़क की
 बेतहासा रफ़्तार
विकास का झंडा थामे
देती तो है सुख 
पर ले लेती है 
उन वनों में रहे 
मूक जीव का सब कुछ
घबरा कर दूर चले जाते 
है लुप्त होने से 
पहले
लाखों साल मानव के 
दो पैर नाप गए 
पूरी धरती
आने वाली नस्ल ये
सुन मजाक उड़ाएगी 
कि पैर चलने के लिए होते है
न जाने कितने लोग इस 
धरती को नाप चुके है
लेकिन आज भी 
पगडण्डी जंगलों के बीच
से होती हुई 
अपनी और खींच ही 
लेती है
सड़क सुख है 
सुविधा है 
लेकिन 
पगडण्डी सा खिचाव 
नहीं
पगडण्डी और पैर 
एक ही है
आदिमानव के पदचाप 
पगडण्डी में ही 
मिल सकेंगे
क्या खोज सकेंगे
बुद्ध, महावीर , शंकराचार्य और विवेकानंद समेत असंख्य 
खोजी 
जो दब जायेंगे सड़क के
नीचे 
खो जायेंगे वो सब 
पैरों के निशान 
जिन पे चल कर 
सभ्यता आती और 
जाती गई
निरंतर 
पगडण्डी से ही 
वनवास हो सकता 
है
सड़क  पर केवल
 भागा जा  सकता
जीतने के लिए
एक बात तय है
पगडण्डी 
केवल जंगल , पहाड़, 
गाँव नदी किनारें ही
रह सकती है 
दूर आँखों से ओझल होने 
 तक
अपनी ओर आमंत्रण देती 
टेडी मेडी पगडण्डी 
धरती की भाग्य रेखा 
सी उबड़ खाबड़ 
ऊँची निची
शांत एकाकी 
किसी साधक की 
साधना सी
 और 
कलाकार की
लकीरें सी
मानव के इतिहास की गवाह 
दोस्त और उसके अस्तित्व 
का दस्तावेज सी 
आज भी बुलाती दिखती है अपनों जैसी 
सच अपनों जैसी ही
 रमेश मुमुक्षु
अप्रैल 2018

Saturday 20 March 2021

गौरैया की आत्म कथा

गौरैया की आत्म कथा
मैं गौरैया , स्पैरो और घरेलू चिड़िया के नाम से मानव समाज में जानी जाती हूँ। लंबा कालखंड मैंने मनुष्यों के घर में उनके साथ ही बिताया था। उनके घर भी उनके दिलों से खुले थे। घर के रोशनदान , खिड़की ,पंखें के ऊपर, घर और बाहर लगे ड्रेन पाइप , टॉयलेट के ऊपर टंकी मेरा घर होता था। उस वक्त हमारे घोंसले ये मानव हमेशा नही तोड़ता था। इनके बच्चे जो छोटे होते थे,वो हमारे अंडे कई बार छेड़ दिया करते थे। घर के आंगन में भी हमारा हो साम्राज्य होता था। पेड़ पौधे, फलों के वृक्ष, तोरी आदि की बेल सब हमारे आश्रयस्थल हुआ करते थे। लेकिन धीमे - धीमे ये आदमी तरक्की करने लगे।  इनके घर बंद होने लगे । लंबे समय तक ये मानव बाहर ही रहता था। लेकिन अब ये घर के भीतर ही बन्द होने लगा। घर की खिड़की कूलर और एयर कंडीशन से पटने लगी। दरवाजे एयर टाइट होने लगे। 
अब न जाने ये मानव जो पहले घर के बाहर भी कम निकलता है।
अब मुझे पुराने छुटे हुए बस स्टैंड पर घोंसला बनाना पड़ता है। लेकिन ये मानव हमारे आश्रयस्थल को कभी भी हटा देता है। कितने आश्रयस्थल हमारे खत्म हो चुके है। 
लेकिन कुछ प्रेमी लोग है, जो हमारे लिए आश्रयस्थल बना रहे है। आजकल हम उनमें भी अपने घोंसले बनाने लगे है। उन प्रेमी लोगों को हम हमेशा याद करते है। हम भी सुनते है कि ये आदमी विश्व स्पैरो दिवस मनाता है। लेकिन पर्यावरण को संरक्षण के लिए उसका ध्यान नही है।  जब भी उसको अपने लिए विकास की बात जरूरत होती है, वो कुछ भी उजाड़ देता है।  उसको कोई लेना देना नही कि कोई भी पक्षी, पशु और वृक्ष बचे और न बचे, उसको विकास करना है, भले किसी भी हद तक विनाश हो । 
लेकिन अब हमने जगह जगह मेट्रो समेत नए स्थान देख लिए अपने घोंसले के लिए। देखना है कि कब तक ये मनुष्य पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करता रहेगा और अपने विनाश का रास्ता छोटा करेगा। हमको बच्चे याद आते है, जो हमारे साथ खेलते रहते थे। नुकसान भी करते थे, लेकिन प्रेम के साथ रहते है। काश ये आदमी दुबारा से वो सब याद करके दुबारा से वो प्रेम भाव पैदा कर सकें। देखते है कि क्या कुछ हो सकेगा, आगे प्रकृति के साथ।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
20.3.2021

Friday 19 March 2021

आना दबे पांव धीमे धीमे

आना दबे पांव धीमे धीमे 
कविता ह्रदय के गहरे कुहासे में
छिपा स्पंदन है जो यकायक धीमे धीमे 
अकस्मात ही कुहासे से बाहर 
आ जाता है
उसको आने दो 
कालिदास के मेघदूत सा
जयदेव के मिलन सा
तुलसी के राम सा
सुर के कृष्ण सा
मीरा के दर्द सा
कबीर के दोहे सा
बिहारी की तड़प सा
रामधारी की ललकार सा
महादेवी के वियोग सा
पंत के प्रकृति प्रेम सा 
निराला की जूही सा
अ ज्ञे य के दर्शन सा
मुक्तिबोध के अंधकार सा
आने दो 
आना जरुरी है
भले वो बिखरा हुआ 
छितराया सा 
कुछ खोया सा ही 
क्यों ना हो
अहसास की गहराई
उसके रूप रंग 
को संवार देगी
अनुभव और संवेदना
जब पीड़ा और करुणा में सराबोर
होगा 
तो छंद ,कविता ,अकविता
 और
 नाना रूप
के साथ उभर आएगा
जो उभर आऐ
वो ही कविता है
पहरेदार को देख 
अहसास 
कही
दुबक न जाये
तनिक आहट 
उसको कुहासे में पुनः
धकेल देती है
उसका आना 
जरुरी है
आना दबे पांव 
धीमे धीमे
- रमेश मुमुक्षु
10.10.2018

Wednesday 17 March 2021

तारक हॉस्पिटल द्वारका मोड़ का मेरे गुम हुए मोबाइल को लौटाने के लिए ह्रदय से धन्यवाद।

तारक हॉस्पिटल द्वारका मोड़ का मेरे  गुम हुए मोबाइल को लौटाने के लिए ह्रदय से धन्यवाद।
आज 17.3.2021 करीब रात्रि  8.30 बजे मैं तारक हॉस्पिटल द्वारका मोड से अपनी चोटिल उँगकी का  ट्रीटमेंट करवा कर बाहर सड़क के उस पर तक पहुँच गया था । तभी अचानक आदतन मेरा हाथ मोबाइल पर गया तो मालूम पड़ा ,जेब में नही है। मुझे लगा कि शायद आपातकालीन वार्ड में छूट न गया हो। मैं तुरंत तारक हॉस्पिटल की ओर लौट गया। फोन छूटने का अर्थ मोटे तौर पर फ़ोन का जाना ही होता है। लेकिन जैसे ही मैं गेट तक पहुंचा ,तभी एक नर्स ने बोला कि  ये ही अंकल थे, शायद। मैंने बोला कि मेरा मोबाइल छूट गया है। उनके हाथ में मोबाइल था। लेकिन मैंने अपने दूसरे मोबाइल से कॉल की और कॉल लगते ही उन्होंने  मुझे मोबाइल दे दिया।कॉल मैंने इसलिए की ताकि उनको भी कन्फर्म हो जाये कि जो मोबाइल छूट गया था, वो मेरा ही था।
तारक हॉस्पिटल की नर्स और स्टाफ़ को मैं दिल से धन्यवाद और आशीर्वाद देता हूँ। उन्होंने ईमानदारी और जिम्मेदारी का परिचय देकर अस्पताल का नाम ऊंचा किया और मरीज़ों के प्रति उत्तरदायी सोच से हम सब के दिल में जगह बना दी। डॉ समीर ,जो फिजियोथेरेपी विभाग के मुख्य  डॉक्टर है। उनके माध्यम से हमने तारक हॉस्पिटल को जाना है। मैं पुनः तारक हॉस्पिटल विशेषकर श्री सोमबीर जी और उसके सहयोगी स्टाफ का आभार व्यक्त करता हूँ। इसके अतिरिक्त तारक हॉस्पिटल की  मैनेजमेंट से आग्रह है कि वो भी इन ईमानदार स्टाफ का सम्मान करें।  (नर्स और स्टाफ का नाम मुझे मालूम नही, कल कर लूंगा।)
धन्यवाद
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष ,हिमाल
रेजिडेंट द्वारका उपनगर।
9810610400

Friday 22 January 2021

दीपक भारद्वाज युवा किसान: कृषि और किसान संरक्षण की ओर एक कदम

दीपक भारद्वाज युवा किसान: कृषि और किसान संरक्षण की ओर एक कदम
 दीपक भारद्वाज जो  दिल्ली के कनागनहेड़ी   गांव , दक्षिण पश्चिम जिला,  में रहने वाला युवा है। अधिकांश युवा की तरह दीपक भी कॉलेज की पढ़ाई के बाद  नौकरी करने की कोशिश करते। परंतु दीपक ने परंपरागत कृषि और पशुपालन को व्यवसाय बनाने की ठान ली।  दीपक का कहना है कि उसकी माँ का देहांत कैंसर से हुआ, ये बात उसके दिल में घर कर गई कि केमिकल रहित कृषि उत्पाद कैंसर को रोक सकने में अहम भूमिका निभा सकते है। उसने इसी दिशा में आगे बढ़ने की यात्रा आरम्भ की  और राइज फाउंडेशन ने भी उसको मार्गदर्शन और द्वारका में बाजार देने का कार्य सम्पन्न किया। जिसके कारण दीपक अपनी जैविक कृषि उत्पाद सेक्टर 7 में स्थित ब्रह्मा अपार्टमेंट में सप्ताह में दो बार सब्जी लेकर आता है। अभी आज 22 जनवरी 2021 से ही इंद्रप्रस्थ एन्क्लेव सेक्टर 17 में भी शुरू करेगा। दीपक में कुछ अपने ही तरीके से करने का जज्बा था। दीपक के पास वो प्रकृति का खजाना है,जो कभी नष्ट नही हो सकता,  वो है , खेती की जमीन । दीपक ने खेती और पशुपालन को अपना  व्यवसाय बनाने का बीड़ा उठाया। द्वारका निवासियों के लिए ये एक बहुत सुनहरा अवसर है कि उनको शतप्रतिशत जैविक सब्जी उपलब्ध हो सकेगी। 
आजकल केमिकल के इस्तेमाल से जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है ,और इसके साथ सब्जी का स्वाद और ताकत भी बनी रहती है। दीपक ने इस तरह युवा पीढ़ी को एक रास्ता भी दिखलाया दिए। युवा किसान बने और मार्किट से जुड़े ,ये ही भविष्य है। मुझे उम्मीद है, द्वारका के लोग दीपक की मेहनत का आनंद लेंगे और दीपक को देख युवा पीढ़ी प्रेणना लेंगी और कृषि से अपने जीवन को एक नया आधार ग्रामीण अंचल में  रहकर खोज सकेगी।  उनकी सफलता की।कामना करता  हूँ।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष हिमाल
9810610400 
9.1.2021
दीपक का नंबर
9650049119
bhardwaj1901@gmail.com
नोट: मैं दीपक की सब्जी का प्रचार नही कर रहा हूँ वो तो खुद ही कर लेगा।  मैं दीपक भारद्वाज के  जज़्बे को जो उसने खेती को रोजगार बनाया को सभी को शेयर कर रहा हूँ। ये ही आगे युवाओं को करना चाहिए, जो गांव में है।

Wednesday 6 January 2021

किसान और हम :आओ चिंतन करें।

किसान और हम :आओ चिंतन करें।
किसान को भले हम न जाने और बहुत से लोगों ने देखा भी न हो लेकिन किसान हमारे साथ हमेशा और 24 घंटे रहता है। बदन पर लिपटे कॉटन के कपड़े, चादर, रजाई, जो भी सूती है, वो सब  किसान द्वारा उत्पादित कपास से ही बनते है। हमारी चाय में चीनी, दूध ,पत्ती भी किसान द्वारा ही आती है। मैगी, पास्ता,पिज़्ज़ा, मैक्रोनी, चाऊमीन, मोमोज़, इडली डोसा अभी किसान द्वारा उत्पादित उपज से ही निर्मित होते है। पतंजलि, हल्दीराम, बिकानो, वालमार्ट , अमेज़न, बिगबास्केट , रिलायंस फ्रेश समेत सभी किसान के उपज को उत्पाद में बदल बेचते है। घी, मक्खन ,पनीर, नमकीन, शहद, चीज़ सभी किसान द्वारा ही निर्मित है। 
एक छोटी सी खोली लेकर दुकान खोल लो ,तो कुछ समय बाद आदमी घर ले लेता है। लेकिन किसान के लिए संभव नही होता। 
अगर किसान को हटा दे,तो सारा बाजार ही धराशाही हो जाए और हमारे भी जान के लाले पड़ जाए। अगर ये सारा बाजार हट जाए और केवल किसान रहे ,तो जीवन चलता रहेगा। लॉक डाउन में केवल अनाज ही था। फिर भी जीवन चलता रहा।
इसलिए किसान को बचाना हम सब का कर्तव्य है। किसान गांव छोड़ेगा तो शहर आएगा, कहीं तो उसको रहना ही होगा। किसान भी खुले वातावरण को छोड़ शहर में भीड़ में रहेगा। भीड़ बढ़ेगी, शहर का विस्तार होगा, खेती की जमीन, जंगल की जमीन ,पानी के स्रोत कमतर होते जाएंगे। कुछ लोग गांव को जाना चाहेंगे। वहां पर पहले ही हम बदहाली करते आये है। 
इन सब एक सीधा सा उपाए है,किसान और किसानी ,कृषि को संरक्षित कर लो। किसान को सम्मान और सुविधा दो। गांव गांव गोदाम, पानी की सिंचाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्राम और कृषि आधारित ग्राम उद्योग, एक एक खेत को संरक्षित करने के उपाए। लेकिन किसान वो ही होगा,जो खेती करता है। शहर में जिम करो, जैविक खाद्य खोजो ,लेकिन मिलते नही। इसलिए केवल किसान संरक्षित हो गया, कृषि बच गई,तो पूरा सिस्टम ही बच जाएगा और अच्छा वातावरण भी  संरक्षित रहेगा। आज किसान का बच्चा भी किसानी नही करना चाहता क्योंकि किसान केवल कच्चे माल का उत्पादक बन कर रहे गया। उस उत्पाद को उसको बेचना ही होगा। इसलिए इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।
मौजूद आंदोलन में एक बात तय है कि सरकार संशोधन करने को राजी है का सीधा अर्थ सरकार ने बहुत कुछ ऐसा प्रावधान डाल दिये, जिनको नही होना था। किसान सरकार की बातचीत जारी है।।लेकिन किसान के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है। बहुत आमूलचूल परिवर्तन जिससे किसान और कृषि पर बुरा असर न पड़े ,ये तो करना ही होगा। इस बारें में हम सब को सोचना ही पड़ेगा, इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नही। 
किसान को पेस्टिसाइड, सीड्स और फ़र्टिलाइज़र से भी संरक्षित करना है। 1000 ईसवी में लिखी  सुखपाल  जी द्वारा रचित वृक्ष आयुर्वेद में कुंआप जल के निर्माण और उपयोग से खाद और  कीट से आई बीमारियों से निजात मिल सकती है। जड़ी बूटी, फल, फूल, पशुधन केवल ग्रामीण अंचल में ही सम्भव है। अतः जैसे प्रोजेक्ट टाइगर से टाइगर संरक्षित होगा तो सारी फ़ूड चेन संरक्षित होगी, उसी तरह किसान संरक्षित रहे तो सारा मानव समाज और पर्यावरण संरक्षित रहेगा।  ये बात शत प्रतिशत सत्य है। 
इसलिए किसान और कृषि पर चिंतन करें और इनको उसी माहौल में संरक्षित करने के टिकाऊ और प्राकृतिक साधन और स्रोत का उपयोग ही एकमात्र  उपाए है, इस बात से इनकार नही किया जा सकता है, के तय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
6.1.2021