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Friday 15 September 2017

हिंदी दिवस : आओ विचार करें


हिंदी दिवस और पखवाड़ा इस बात का परिचायक है कि अभी हिंदी राज्य भाषा नही बन सकी है। वैसे भी हिंदी के बड़े परिवार से बहुत सी भाषा अपना अलग घर बसा चुकी है और बहुत सी लाइन में खड़ी है। इस तरह हिंदी का कद छोटा होता जा रहा है। हालांकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है ,जिन्हें इंग्लिश नही आती । लेकिन इसका अर्थ ये नही है कि हिंदी का चलन बड़ा है। हिंदी का कद फ़िल्म , फिल्मी गाने और टीबी सीरियल बहुत से  बढ़ा है। लेकिन शिक्षा के प्रसार में अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ने वाली की संख्या अधिक होती जा रही है। गैरसरकारी और निजी स्कूल का चलन केवल अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई के कारण बढ़ा है।
आजकल बच्चे हिंदी में गिनती तक भूल गए और दूसरी और अंग्रेज़ी में भी बच्चे पारंगत नही है। लिखने में तो थोड़ा बहुत लिखने और रटने से काम चल जाता है। लेकिन बोलने में अभी भी पिछड़े है।  लेकिन लोग इससे भी खुश है कि उनका बच्चा अंग्रेजी में पढ़ रहा है। अभी भी समाज में अंग्रेज़ी जानने वाले का सम्मान अधिक होता है। इस  मानसिकता  ने भी हिंदी के प्रति उदासीनता पैदा की है। नौकरी तो एक कारण है ही।
लेकिन गूगल ने लोगो को हिंदी लिखना सिखा दिया। आजकल बहुत लोग जिनको हिंदी टाइप नही आती वो भी हिंदी टाइप कर लेते है। मैं स्वयं इसी तरह टाइप करता हूँ।
सरकारी विभाग में भले आप हिंदी में लिखे , लेकिन जबाव अंग्रेज़ी में ही आएगा। कम से कम केंद्र सरकार में तो हिंदी अनुभाग  केवल अनुवाद के लिए ही खुले हुए है। संसदीय प्रश्न का अनुवाद हिंदी में होना अनिवार्य है, वो भी इस कारण ।अभी स्मार्ट फोन आने से लोग हिंदी का भी इस्तेमाल भी करने लगे है।
हिंदी को राज्य भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन इसलिए भी है क्योंकि अन्य राज्यों के नागरिक इसको अपने ऊपर हिंदी तो थोपना कहते है। इसका एक कारण हो सकता है कि भारत में अन्य भाषाओं को समुचित सम्मान नही मिला। स्कूल में विदेशी भाषा का विकल्प रहता है। आजकल संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन तमिल और अन्य भाषा का भी समृद्ध इतिहास रहा है। उन भाषाओं को स्कूल में एक विकल्प के रूप में क्यों उचित सम्मान नही मिलता? ये सोचने का विषय है।  ये भी विडंबना है कि लोग विदेशी साहित्य को जानते है ,लेकिन तमिल जैसी समृद और परिष्कृत भाषा के इतिहास को नही जानते।
हालांकि जवाहर नवोदय विद्यालयों में बच्चों को किसी अन्य राज्य में जाकर रहना होता है और उसकी भाषा सीखनी होती है। लेकिन मेरा दावा है ,इस विषय में सब लोग नही जानते। इसलिए हमें भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए।
एक बात तो हम सब स्वीकर कर ही लेंगे की हिंदी में पूरे देश की संपर्क भाषा होने का सामर्थ्य कहूँ या  संभावना, इस बात से इनकार नही किया जा सकता। हिंदी भाषा को आप किसी भाषा या बोली की तरह बोल सकते है , हिंदी भाषा का हिंदीपन खत्म नही होता। तमिल हिंदी , गुजराती हिंदी आदि बन कर भी हिंदी ही रहेगी । लेकिन किसी अन्य भाषा को हिंदी की तरह नही बोला जा सकता क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वो हिंदी ही हो जाएगी। इसलिए इस भाषा में संपर्क भाषा होने का गुण तो है। हिंदी परिवार से निकली राजस्थानी, मैथिली, बृज और अन्य भाषा भले वो अपनी अलग पहचान बना ले , लेकिन हिंदी की तरह संपर्क भाषा का स्थान नही ले सकती। भारत में किसी भी राज्य में आज भी हिंदी भाषा के करण संपर्क हो सकता है। हालांकि अभी अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित किया जा रहा है। 90 के दशक में सरस्वती शिशु मंदिर का प्रचार इसलिए अधिक हुआ क्योंकि उसमें अंग्रेज़ी भाषा प्रथम कक्षा से पढ़ाई जाने लगी थी। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों ने हिंदी धर्म और संस्कृति का कितना प्रचार और प्रसार किया ,ये कहा नही जा सकता। लेकिन अंग्रेज़ी के प्रति दूर दराज में रहने वालों का भी आकर्षण बड़ा ही है।
डंडे के बल पर इसको लागू नही किया जा सकता है। जिनको हिंदी आती है , उनको तो इसका उपयोग करना ही चाहिए। सामाजिक , धार्मिक और अन्य क्षेत्रों में अंग्रेज़ी और हिंदी वालों का अंतर दीख पड़ता है। कोर्ट कचेरी में अधिकांश काम अंग्रेज़ी में होता है। निचली अदालत में ज़िरह जरूर हिंदी या लोकल बोली में होती है, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो अखबार की खबर का भी अनुवाद करना होता है। जज केवल अंग्रेज़ी में ही ज़िरह करते है। क्लाइंट जिसके केस पर ज़िरह होती है। वो समझ ही नही पाता कि क्या हो रहा है। ये सब चीज़े लचीली होनी चाहिए। किसी भी भाषा को संपर्क भाषा तो होना ही है। अभी लोग दक्षिण में पढ़ रहे है। इस तरह उनको उसी राज्य की भाषा को जानना चाहिए । लेकिन वहां भी लोग हिंदी , जो अपने तरह से बोली जाती है , का इस्तेमाल करने लगे है। किसी ने कहा नही की हिंदी का इस्तेमाल करो। लेकिन वो एक संपर्क भाषा के रूप में स्वतः ही पहुँच गई। ये हिंदी को लाभ है। जैसे अंग्रेज़ी अलग देशों में उसी तरह बोली जाती है। लेकिन वो होती अंग्रेज़ी ही है। बहुत से लोग संस्कृत को संपर्क भाषा के रूप में प्रचारित करते है। संस्कृत पढ़ाई जाए । लेकिन वो हिंदी की जगहे लेगी ऐसा सोचना उचित नही। अभी जो लोग संस्कृत के ज्ञानी आपस में संस्कृत नही बोलते है। इसलिए सभी भाषा का सम्मान और उनके इतिहास की जानकारी से सारी भाषा नजदीक आएगी। इस संदर्भ में जवाहर नवोदय विद्यालय ने जो पहल की है। इसके लिए राजीव गांधी के विज़न जिसमे दूरभाष और कंप्यूटर के साथ स्कूल में ही बच्चे एक अन्य भाषा भी सीख लेते है, बड़ा कदम था। इस तरह के ताने बाने से ही हिंदी के प्रति लोगो को गुस्सा नही है। बल्कि उनकी भाषा और बोली को यथोचित सम्मान न मिलने से वो हिंदी के विरुद्ध बोलते है।
इसलिए उस दिन का इंतजार तो रहेगा जब हिंदी सप्ताह मनाना बन्द होगा और लोग अंग्रेज़ी को याद करेंगे। क्या आएगा ऐसा दिन ? ये सोचने का विषय है।
रमेश मुमुक्षु
9810610400
ramumukshu@gmail. com

Thursday 14 September 2017

पंचेश्वर झील : एक कविता


गांव पड़ाव बन गया
पड़ाव कस्बा
कस्बा  नगर
नगर महानगर
महानगर
महापिशाच बनते जा
रहे है
जिनकी भूख
कम होने की जगह
बढ़ती जाती है
महानगर भी
भष्मासुर की तरह
अपने रास्ते में आने
वाले सभी गांव कस्बों
को भस्म करता जा रहा है
बिजली पानी की
भूख
उसकी बढ़ती जाती है
धीरे धीरे वो सारे
पर्वतों और
सुरम्य घाटियों को
लील कर
नदी को
अपनी सुरंग नुमा
मुँह से निगलता जाएगा
अभी तो टिहरी
ही बनी है
झील
लेकिन
उसकी
भूख और प्यास
बढ़ती जाती है
पंचेश्वर को भी
झील में
बदलने
को आतुर
उसकी ओर बढ़ रहा है
समा
जाएगी
सारी
सदियों
से पनपती
घाटियां
दफ़्न हो
जाएगी
सभ्यता
लोगों की
यादें
गीत, झोड़े ,जागर, चांचरी
ढोल ,दमाऊं ,
खेत खलियान
ग्राम देव
नुक्कड़ के बड़े पेड़
किलमोड़ी, हिंसालु
चीड़, बांझ, बुरांस
सब
समा जाएंगे
लेकिन
इसके बाद और बढ़ेगी
उसकी
भूख
सारे पहाड़
को
बना देगा
झील केवल झील
पहाड़ी बन जाएंगे
महापिशाच
के पीछे
कठपुतली से
जो उसके
लोलुपता के धागे से
बंधे
भूल  जाएंगे
अपना पहाड़ी
होना भी
महापिशाच के झंडे उठाए
अपने गाड़ गधेरों का
सौदा
करने को आतुर
दूर गांव में
खेती को
जिंदा रखे
परंपरा
को जीवित रखे
किसान को उखाड़ने
को तत्पर
विकास
की आंधी
के साथ
बेपरवाह
विकास नही
विनाश
के साथ
उस कुत्ते के समान
जो हड्डी चूसते हुए
अपने
मसूड़ो
के खून को हड्डी
से निकला
खून समझ
बेतहासा
हड्डी
को चबाने लगता
है
बांध दिया है
लोगों
के विवेक और सोचने की
आदत
दूर दराज बैठा
अंतिम आदमी
भी
विकास का
स्वप्न
देखता है
लेकिन
ये कैसा विकास
जिसकी भूख बढ़ती
जाती है
सदियों से
धरती को
अपनी आगोश
में
थामे
बर्फ के हिमनदों
की
पकड़ ढीली होती जा रही
नदी के वेग के
साथ
वो
भी खिसक रहे है
प्रलय के दस्तक से
लेकिन
आदमी की
भूख और लालच
ने उसकी
आंखों पर
पट्टी
बांध दी है
संवेदनायें शून्य
सी होती आई है
स्वार्थ ने
ढांप लिया
उसके
व्यक्ति
होने को भी
अगर नही मिटी
महापिशाच
की
भूख
तो
क्या सारे पहाड़ो
को झील
बना देगा
जीवन
देने वाले
जीवन
बचा
नही सके
तो
क्या होगा
सृष्टि का
विकास
जो
एक सतत प्रक्रिया है
लेकिन
विनाश
तो अंतिम
और आखिरी चोट है
जीवन
की
क्या बचा सकेंगे
पहाड़ का पहाड़ होना
नदी का अविरल
स्वछ बहना
झरनों का निरंतर
बहना
हिरण का
कुलांचे मरना
बाघ की
दहाड़
चिड़ियों का
चहक कर
घाटी
की ओर
जाना
सदियों
से
ऋषि मुनि
के पदचाप की
साक्षी
पगडंडियों
का
साम्राज्य
जिन पर
शंकराचार्य
समेत  कितने
ही महान
पुरुष गुजरे
है
आदमी का
कौशल
सीढ़ीनुमा खेतों के
चित्र
बकरियों को
हांकता
कोई
बूढा
क्या मिल सकेगा
जंगल में पत्ते सारती कोई
महिला
गीत गुनगुना सकेगी
मस्तक उठा कर क्या
देवदार
देख सकेगा
दूर तक
कही झील तो कही
दो लेन से चार लेन
में तब्दील होती
काली टेडी मेड़ी
सड़के
जिनकी लंबाई
बढ़ती जाती है
पहाड़ो की जड़ों को
काटती हुई
फिर तांडव होगा 
अविरलता
की बात उठेगी
जो ठेकेदारों की
जेसीबी
के शोर में गुम हो
जाएगी
किसी पहाड़ी रास्ते में कोई
बूढ़ी आमा लंबी
सांस लेते
हुए कहेगी
कि
क्या सब डूब
जाएगा
मेरा
खेत भी
ग्राम देवता
भी
अब जाने का मन
नही कही
लेकिन वो
आमा
क्या
जाने
सब
डूब जाएगा
आमा के
खेत सहित
क्या बचा सकेंगे
पहाड़ होना
और
पहाड़ीपन
जिसके 
जल, जंगल, जमीन ही
ही
ईश्वर है
और है
जीने का आधार ।
...रमेश मुमुक्षु