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Thursday, 14 September 2017

पंचेश्वर झील : एक कविता


गांव पड़ाव बन गया
पड़ाव कस्बा
कस्बा  नगर
नगर महानगर
महानगर
महापिशाच बनते जा
रहे है
जिनकी भूख
कम होने की जगह
बढ़ती जाती है
महानगर भी
भष्मासुर की तरह
अपने रास्ते में आने
वाले सभी गांव कस्बों
को भस्म करता जा रहा है
बिजली पानी की
भूख
उसकी बढ़ती जाती है
धीरे धीरे वो सारे
पर्वतों और
सुरम्य घाटियों को
लील कर
नदी को
अपनी सुरंग नुमा
मुँह से निगलता जाएगा
अभी तो टिहरी
ही बनी है
झील
लेकिन
उसकी
भूख और प्यास
बढ़ती जाती है
पंचेश्वर को भी
झील में
बदलने
को आतुर
उसकी ओर बढ़ रहा है
समा
जाएगी
सारी
सदियों
से पनपती
घाटियां
दफ़्न हो
जाएगी
सभ्यता
लोगों की
यादें
गीत, झोड़े ,जागर, चांचरी
ढोल ,दमाऊं ,
खेत खलियान
ग्राम देव
नुक्कड़ के बड़े पेड़
किलमोड़ी, हिंसालु
चीड़, बांझ, बुरांस
सब
समा जाएंगे
लेकिन
इसके बाद और बढ़ेगी
उसकी
भूख
सारे पहाड़
को
बना देगा
झील केवल झील
पहाड़ी बन जाएंगे
महापिशाच
के पीछे
कठपुतली से
जो उसके
लोलुपता के धागे से
बंधे
भूल  जाएंगे
अपना पहाड़ी
होना भी
महापिशाच के झंडे उठाए
अपने गाड़ गधेरों का
सौदा
करने को आतुर
दूर गांव में
खेती को
जिंदा रखे
परंपरा
को जीवित रखे
किसान को उखाड़ने
को तत्पर
विकास
की आंधी
के साथ
बेपरवाह
विकास नही
विनाश
के साथ
उस कुत्ते के समान
जो हड्डी चूसते हुए
अपने
मसूड़ो
के खून को हड्डी
से निकला
खून समझ
बेतहासा
हड्डी
को चबाने लगता
है
बांध दिया है
लोगों
के विवेक और सोचने की
आदत
दूर दराज बैठा
अंतिम आदमी
भी
विकास का
स्वप्न
देखता है
लेकिन
ये कैसा विकास
जिसकी भूख बढ़ती
जाती है
सदियों से
धरती को
अपनी आगोश
में
थामे
बर्फ के हिमनदों
की
पकड़ ढीली होती जा रही
नदी के वेग के
साथ
वो
भी खिसक रहे है
प्रलय के दस्तक से
लेकिन
आदमी की
भूख और लालच
ने उसकी
आंखों पर
पट्टी
बांध दी है
संवेदनायें शून्य
सी होती आई है
स्वार्थ ने
ढांप लिया
उसके
व्यक्ति
होने को भी
अगर नही मिटी
महापिशाच
की
भूख
तो
क्या सारे पहाड़ो
को झील
बना देगा
जीवन
देने वाले
जीवन
बचा
नही सके
तो
क्या होगा
सृष्टि का
विकास
जो
एक सतत प्रक्रिया है
लेकिन
विनाश
तो अंतिम
और आखिरी चोट है
जीवन
की
क्या बचा सकेंगे
पहाड़ का पहाड़ होना
नदी का अविरल
स्वछ बहना
झरनों का निरंतर
बहना
हिरण का
कुलांचे मरना
बाघ की
दहाड़
चिड़ियों का
चहक कर
घाटी
की ओर
जाना
सदियों
से
ऋषि मुनि
के पदचाप की
साक्षी
पगडंडियों
का
साम्राज्य
जिन पर
शंकराचार्य
समेत  कितने
ही महान
पुरुष गुजरे
है
आदमी का
कौशल
सीढ़ीनुमा खेतों के
चित्र
बकरियों को
हांकता
कोई
बूढा
क्या मिल सकेगा
जंगल में पत्ते सारती कोई
महिला
गीत गुनगुना सकेगी
मस्तक उठा कर क्या
देवदार
देख सकेगा
दूर तक
कही झील तो कही
दो लेन से चार लेन
में तब्दील होती
काली टेडी मेड़ी
सड़के
जिनकी लंबाई
बढ़ती जाती है
पहाड़ो की जड़ों को
काटती हुई
फिर तांडव होगा 
अविरलता
की बात उठेगी
जो ठेकेदारों की
जेसीबी
के शोर में गुम हो
जाएगी
किसी पहाड़ी रास्ते में कोई
बूढ़ी आमा लंबी
सांस लेते
हुए कहेगी
कि
क्या सब डूब
जाएगा
मेरा
खेत भी
ग्राम देवता
भी
अब जाने का मन
नही कही
लेकिन वो
आमा
क्या
जाने
सब
डूब जाएगा
आमा के
खेत सहित
क्या बचा सकेंगे
पहाड़ होना
और
पहाड़ीपन
जिसके 
जल, जंगल, जमीन ही
ही
ईश्वर है
और है
जीने का आधार ।
...रमेश मुमुक्षु

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