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Thursday 25 October 2018

पटाखे और वायु प्रदुषण

पटाखे और वायु प्रदूषण
दीवाली में पटाखे का इंतजार हर बच्चें को होता है। बड़े भी इंतजार में रहते है कि कब दीवाली आये और पटाखे फोड़े। आज से नही हमेशा ही रहा है। कम से कम शहरों में बहुत अधिक रहा है। अभी भी ग्रामीण अंचलों में लगभग नही है। उसका एक बड़ा कारण आर्थिक समृद्धि महानगरों जैसी नही रही।
70 के उत्तरार्ध में जब हम बच्चे होते थे ,स्कूल में जाते थे। उस वक्त पटाखों के प्रति हमारा अनुराग देखते ही बनता था। दोस्त लोग सब मिलकर सदर बाजार सस्ते पटाखे लेने जाते थे। वो ऐसा होता था ,मिशन इम्पॉसिबल के लिए रणबांकुरे जा रहे हो। उस वक्त सबसे बड़ा बम होता था, जिसको चलती बोली में गोला बम बोलते थे। अगर वो हरी सुतली वाला हुआ था, ऐसा लगता था कि हम ही हम है। उस वक्त बच्चो के पास थोड़े बहुत पटाखे होते थे।
अलग अलग लोकल नाम होते थे, गोला बम, टाइम बम, हवाई, सुर्री, चकरी, लड़ी, हथगोला और छोटे बच्चों के लिए फुलझड़ी, फिरकी, हेंटर और सबका चहिता अनार। ये उसवक्त के पटाखे होते थे।
बच्चे भी खूब आंतकवादी होते थे, किसी के लेटर बॉक्स, बड़े पाइप और गोले बम की बत्ती छील कर टाइम बम बना लिया करते थे। लगे रहते थे ,रात तक। अगर किसी के पास मुर्गा ब्रांड होता था तो समझों वो बादशाह ही है। ये सब लंबे समय से लोग मज़े लिया करते थे। रामलीला के समय से ही प्लानिंग बन जाती थी। पिता सबके हिटलर की तरह होते थे। मां को मखन्न लगाना बहुत पहले से शुरू हो जाता था। एक कमाने वाला कैसे पटाखों के लालायित बच्चो की मांग पूरी करते। बच्चों को अगर पूरा शिवकासी भी दे दो ,उनका मन नही भरता। एक ओर एक ओर करते करते रात हो ही जाती है।
उस समय अगले दिन बचे कुचे पटाखे ढूंढने के मिशन। फुस्स हुए पटाखे मिल जाते थे, तो उनका मसाला निकाल कर जलाने का आनंद कुछ और ही होता था। अचरज मत कीजियेगा उनमें से बहुत से उच्च पदों पर है और रिटायर्ड हो गए होंगे। हम जैसे कलम घिस्सु अभी पेपर काले करते , अब स्मार्ट फ़ोन पर लिखने लगे है।
इतना आनंद और चहल पहल हमारे भीतर बहुत भीतर बैठा हुआ है, एक दम कैसे जाए? न्यायधीश महोदय के पोती पोते ने भी मांग कर दी तो लाना ही होगा। बच्चे जानते है कि ये पर्यावरण के लिए घातक है, लेकिन बालमन प्रलोभन को कैसे तज दें। मां बाप की ममता और तर्क एक ही दिन तो हुआ। क्या फर्क पड़ता है? ये ब्रह्म वाक्य आदमी से क्या कुछ नही करवा लेता।
ऐसा नही कि पहले पर्यावरण दूषित नही होता था। मुझे इसका बहुत गहरा अनुभव है क्योंकि मुझे 1979 से ही दमा, आस्था है। मैं तो वायु प्रदुषण मापक कुदरती ही हूँ  । कितनी बार मुझे दमे का अटैक भी हुआ। नेबुलाइजर तैयार रखना होता है। लेकिन ये प्रदूषण  70 के दशक में भी होता था। दीवाली के दिन जलने वाले और सांस रोग से पीड़ित कितने ही बीमार होते है। लेकिन मन है कि मानता नही, बम देख कर फिसल जाता है। पहले भी प्रदूषण के कारक थे। सभी लोग कोयले, लकड़ी और गोबर के कंडे जला कर खाना खाते थे। लेकिन डिवाइस कम थे। अभी इतने डिवाइस और उपभोक्ता आइटम बढ़ जाने से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से प्रदुषण बढ़ गया है। हमारी जीवन शैली पर्यावरण के किये घातक साबित होती जा रही है। इस पर विचार करना ही होगा।
लेकिन अभी प्रदूषण की स्थित कही अधिक बुरी हो चुकी है। अभी प्रदूषण के कारक बहुत अधिक बढ़ चुके है। पटाखे इतने घातक है कि उनका प्रभाव पर्यावरण पर पहले की अपेक्षा हज़ारों गुना बढ़ गया है। बिना पटाखे के ही सांस लेना कठिन होता है ।
हमने कभी पक्षियों और अन्य प्राणियों के बारें में नही सोचा। कितने मर जाते होंगे। जो रात्रि विश्राम करने वाले प्राणी होते होंगे ,उनके साथ क्या बीतती होगी ?इसका हमने कभी आंकलन नही किया। हम चींटियों और कबूतरों को दाना देकर समझते है कि हम पुण्य कमा रहे है।  अब हमें सोचना ही होगा। किसी बीमार के लिए, बच्चों की सेहत के लिए, जलने की दुर्घटना के लिए, कीट पतंग और सभी खगचर के लिए। दीवाली के दिन हम हमेशा खुश होते थे कि मच्छर मर गए। ये भी अजीब सा अहसास हुआ। बहुत कुछ और भी नुकसान होता होगा।
अब हम लोग जान गए है कि वायु प्रदूषण का स्तर ख़तरे के निशान से ऊपर चला गया है। ये न हो की हमे गाड़ी समेत सभी डिवाइस ही जीवन और सांस लेने के लिए मजबूरी में बंद करने पड़े।
अब ये हम पर है, हमने मिठाई में जहर मिलना शुरू किया तो बर्फी खाना ही बंद हो गया। अब बम ऐसे बने है जैसे 10000 बमों की लड़ी  , एक और ध्वनि प्रदुषण और दूसरी और वायु प्रदुषण।
जब मैं कभी पहाड़ो में चला जाता हूँ ,तो सांस आने लगती है। दिल्ली में कितनी बार खांसी ठीक नही होती, वो ठीक हो जाती है।
ये अब गंभीर समस्या के रूप में उभर गया है।
अब तो अगर पटाखे न ही उपयोग हो , तो सबसे अच्छा हो और अपने पर्यावरण को बचा सकें। सांस से पीड़ित लोगों के लिए , पेड़ों में रह रहे खगचर के लिए हमे इस आनंद से ओत प्रोत आदत को जीवन के लिए छोड़ना ही होगा। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नही दिखता। इस समय भी सांस लेना सहज नही होता। क्या जीवन से बढ़ कर कोई आनंद है? क्या हमें अपने हाथों से ही अपने वातावरण को दूषित करना चाहिए? ये अभी सोचना नही, निर्णय लेने की घड़ी है। मुझे तो ऐसा ही लगता है। ये लिखते लिखते मेरी निगह खिड़की के बाहर गई, वहाँ पर शहतूत का वृक्ष है, उसके पत्ते धूल से पटे हुए है। इनको भी बचाना है, अपने जीवन के लिए। पर्यावरण संरक्षण करना है , अपने जीवन के लिए और मानव जीवन तभी रहेगा ,जब सम्पूर्ण पर्यावरण संरक्षित रहेगा, ये तय है। इन सब मानव के खटराग का असर अंटार्टिका पर दीख पड़ रहा है। इसलिए हमें 'पर्यावरण संरक्षण मानव विकास के लिए और मानव विकास के लिए पर्यावरण संरक्षण' को सदैव याद रखना ही होगा , अगर जिंदा रहना है ,तो ।
रमेश मुमुक्षु

Tuesday 23 October 2018

कूड़ा जलाना पाप हैं।

(कूड़ा जलाना पाप है)
शीषर्क में लिखे नारे के साथ करीब 100 के आस पास द्वारका के रेसिडेंट्स सेक्टर 7, ब्रह्मा अपार्टमेंट के बाहर ,जिसमे करीब 15 NGOs भी शामिल थी, हाथों में प्ले कार्ड लिए नारा लगा रहे थे कि कूड़ा न जलाया जाए। कूड़ा जलाना पाप है। (क्षमा करें नाम मैं नही लिख रहा क्योंकि सबके नाम याद नही रहते। ये प्रोटेस्ट जनता का प्रोटेस्ट था । संस्था भी जनता का एक रूप है।)
अचरज का विषय है ,करीब चार वर्षों से स्वच्छ भारत की दिन रात चर्चा है। हर चीज़ में स्वछ भारत लिखा है। द्वारका समेत पूरी दिल्ली में सर्दियों में होने वाले प्रदूषण की चर्चा है। उसके बावजूद भी जलाने वाले बाज नही आ रहे। तू डाल डाल मैं पात पात । कूड़ा है कि बढ़ता जाता है। ज्यों ज्यों आदमी की आय बढ़ती है, कूड़ा भी बढ़ता जाता है।
लेकिन सारा कूड़ा घर से आता।है। घर से सोसाइटी और मोहल्ले में इकट्ठा होता है। उसके बाद किसी भी खाली प्लाट पर डाल दो। घर साफ हो गया और बाहर की चिंता किसे।
कूड़ा उठाने की जगह एक तिल्ली लगाई,  सब स्वाहा हो गया। तिल्ली लगाने वाला एक बार भी नही सोचता कि कूड़ा केवल जैविक नही है। कूड़े में प्लास्टिक उत्पाद, सेनेटरी पैड्स समेत न जाने क्या क्या होता है ?तिल्ली लगाने वाला सोचता है कि चलो काम हल्का हो गया। लेकिन उसको ये क्यों नही मालूम कि जलाकर उसने वायु प्रदुषण ही पैदा किया है। कितने लोग सांस की बीमारी से पीड़ित होते है। कितने दम भी तोड़ते होंगे।
प्रशासन कचरा निस्तारण से लेकर ये भी समझाने में पूरी तरह फेल  हो गया कि कचरे को जलाने से क्या नुकसान होते है।
कचरे का निस्तारण : घर से ही होना चाहिए। इतनी चेतना अभी नही  आई। इसके अतिरिक्त एक व्यवस्था भी पनपती है। अगर सरकारी व्यवस्था चाक चौबंद हो , व्यवस्थित हो तो ही ये सब सुधर जाता है। पूरी दिल्ली कचरे का ढेर बनती जा रही है। लेकिन मेट्रो रेल में सफाई का एक बड़ा कारण है ,पुख्ता सिस्टम। अगर SDMC घर से ही कूड़ा उठाने की व्यवस्था को सुचारू रूप से शुरू कर दे तो एक ओर sdmc की कमाई भी बढे क्योंकि जिसको हम कूड़ा बोल रहे है ,वो एक तरह से खजाना भी है। कल्पना कीजिये कि अगर दिल्ली के प्रत्येक घर से सेग्रेगेटेड होकर कूड़ा अलग अलग हो जाये तो कितनी जैविक खाद का उत्पादन हो जाये और कितना और समान अन्य कामों के लिए इस्तेमाल हो सकता है। इसमे कुछ जानकर लोग आंकड़े दे सकते है।
कचरे में बदबू : कचरा एक साथ होने से ही बदबू शुरू होती है। बदबू के साथ ही विषाणु एवं कीटाणु का विस्तार होने लगता है। ये सभी के किये घातक होता है।
SDMC : अगर sdmc इस काम को अंजाम नही देगी तो कौन देगा। स्टाफ कम है, तो उसको बढ़ाने की ओर कदम बढ़ाओ। इतने बेरोजगार है, उनको रोजगार मिलेगा। कूड़े के एक एक कतरे का सुनियोजित तरीके से उपयोग करें ताकि sdmc की कमाई में वृद्धि हो जाये।
चालान कटे: एक बार व्यवस्था सही होने पर चालान काटने की मुहिम तेज होनी चाहिए। मुझे याद आता है ,मेरे एक अजीज  दोस्त ने 90 के दशक के शुरू में चीन की राजधानी बीजिंग स्थित तियानमेन स्क्वायर में सिगरेट का बड फेंक दिया । लेकिन तुरंत पुलिस ने मित्र को पकड़ा और चालान काट दिया। अभी 2018 में ऐसा PMO के आस पास भी एक सपना ही है।
जनता: जनता घर और बाहर सभी अपनी जगह मान कर साफ रखे । ये हमारे लिए कल्पना से परे  ही है। इससे हमारा रिपोर्ट कार्ड स्वयं उजागर हो जाता है।
SDMC को भी एक मिशन बना लेना चाहिए कि कचरा जलाने पर 100% रोक लगेगी ताकि हवा का प्रदुषण कम हो सके। द्वारका सबसे अधिक चर्चित महानगर है। यहां रहना एक शान मानी जाती है। लेकिन हवा की गुणवत्ता जब आनंद विहार से नीचे हो तो गंभीर चिंतन तो करना ही हुआ। लगातार प्रोटेस्ट भी संभव नही हो सकता।
आशा है , दक्षिण दिल्ली नगर निगम इस ओर युद्ध स्तर पर पहल करें और कम से कम कूड़ा न जलने दे । इस काम के लिए  sdmc को आगे आना ही होगा। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नही।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष , हिमाल
9810610400

तनिक विचार करें : स्त्री का मंदिर प्रवेश

तनिक विचार करें : स्त्री का मंदिर प्रवेश
जब से मानव का प्रादुर्भाव पृथ्वी पर हुआ है। आम आदमी से लेकर सारे अवतार, पीर पैगम्बर सभी स्त्री की कोख से जन्मे है। भूर्ण से पूर्व इन सब की मां को मासिक धर्म की पावन प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। उसके बाद स्त्री पुरुष के समागम से बच्चे का जन्म हुआ।  उपरोक्त और सारी सृष्टि का ये ही विधान है।
# उपरोक्त सभी के देवालयों, धार्मिक स्थलों पर उनको पैदा करने वाली स्त्री को प्रवेश की अनुमति नही है। 
क्या ईश्वर ने ये आदेश दिया है? कदापि नही।
इसके पीछे एक बात रही होगी। आजकल  सेनेटरी पैड्स के कारण रक्त के रिसाव की संभावना करीब खत्म हो गई है। मालूम नही चलता कि स्त्री मासिक धर्म में है। जब ये पैड्स नही थे , तो रिसाव की संभावना 100 प्रतिशत होती होगी। उस वक्त सफाई और गंदगी के कारण ये प्रतिबंध शुरू हुआ होगा। अभी शहरीकरण से पूर्व ग्रामीण अंचलों में अभी भी स्त्री को घर में आने की मनाही है। खाना भी नही बना सकती।
# लेकिन आज गंदगी और सफाई की बात नही रही।
# क्या आप कल्पना कर सकते है कि आज कोई फरमान जारी कर दे कि मासिक धर्म होने की अवधि में स्त्री सांसद, अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक समाज से अलग, घर से भी अलग रहे।
क्या ये संभव और उचित है? कदापि नही।
# अगर पैड्स न होते  अभी भी रिसाव होता, कपड़ो आदि में दीख पड़ता , तो स्त्री को खुद ही अच्छा नही लगता।
# अभी भी जो आदिवासी नग्न रहते है, वो तो पैड्स नही लगाते। वो हम सब सभ्य समाज कहे जाने वालों के पूर्वज ही है। हम कपड़ों तक आगये ,पैड्स बना लिए। वो ठीक वैसे ही है। जब से मासिक धर्म से घृणा शुरू हुई, तभी से नियम पनप गए।
# एक समय था,  जब मानव प्रकृति में रहता था। उस समय  परिवार नही पनपे थे। उस समय मासिक धर्म में सेक्स न होने पर आदमी औरत को मारने को उतारू हो जाता था। उस समय स्त्री की शारीरिक स्थिति सामान्य नही होती।
उसके बाद स्त्री ने मासिक धर्म में छुपना शुरू किया।ये ही प्रथा के रूप में आज भी प्रचलित है।
### उपरोक्त बातों के आधार पर स्त्री को धार्मिक स्थलों में प्रवेश प्रतिबंधित होना ।क्या उचित और न्यायपूर्ण है?
इस पर अपनी प्रतिक्रिया दें और अपनी राय रखें।
प्रवेश प्रतिबंधित होना उचित है।  इस पर भी खुल कर कहे।
रमेश मुमुक्षु