(सतत विकास या तुरत विकास :अविलंब निर्णय करना ही होगा।)
देश में नीरव मोदी प्रकरण पर हो हल्ला मचा है। सभी और इसी की चर्चा है। ये कुछ दिन रहेगा और फिर जल्दी ही मीडिया से आउट हो जाएगा।
फिर कोई और खबर पर देश आंदोलित हो जाएगा।
लेकिन इस वर्ष जिस बात को खबर बनाना चाहिए ,उस पर बात भी नही हुई। हिमालय क्षेत्र में इस साल दिसंबर और जनवरी में बर्फ और वर्षा नही हो सकी। दिसंबर से अभी हाल के महीनों में जंगल में आग लगी थी। बर्फ और वर्षा का न होना और सर्दी के मौसम में राष्ट्रीय चेतावनी की खबर बननी थी। हिमालय में बर्फ और वर्षा कोई बड़ी खबर नही बनी। प्रधानमंत्री को कहना चाहिए था कि ये एक अलार्म है भविष्य में पर्यावरण पर घोर संकट का। लेकिन ये ब्रेकिंग न्यूज़ नही। इसका एक कारण है कि कौन कहता है ,पानी की कमी है। दो कदम उतरो और पानी खरीद लो। फ़ोन किया पानी हाज़िर । जल ,जंगल और जमीन के प्रति हमारे दिल में कोई संवेदना नही है। हादसा खबर है , अभी कोई बादल फट जाए और नुकसान हो जाये , तो खबर है। लेकिन किसी आपदा में खेत खलियान और पेड़ जैसे उत्तराखंड के चुखटिया विकास खंड के बसरखेत में 2013 में खेत, अखरोट के 150 से अधिक पेड़ों का बहना , कोई खबर नही।
बर्फ और वर्षा का का न होना कोई खबर नही। लोकल स्तर पर तो खबर होती ही है। लेकिन प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री की और से एक चेतावनी की बात तो होनी ही थी। लेकिन वो नही हुई।
हर्षद मेहता , केतन पारिख, जिग्नेश शाह, तेलगी अब नीरव मोदी आएंगे । खबर की सुर्खी बनेगी । आम आदमी इनके नाम से एक दूसरे से बिना बात उलझेंगे। फिर नई खबर होगी।
अभी न्यूज़ थी कि हिमालय क्षेत्रों विशेषकर उत्तराखंड में बड़े भूकम्भ की संभावना है। लेकिन इस पर चर्चा नही। अभी चारधाम पर पेड़ों का कत्लेआम हो रहा है। कोई खबर नही। भैरों घाटी में भी देवदार के बेशकीमती वृक्ष काटे जा रहे है। पर्यावरण पर इसका क्या प्रभाव होगा ? इस पर सरकार की और से कोई खबर नही
आदमी का पूरा जीवन तीन चीज़ो पर निभर है, जल जंगल और जमीन । स्वछ जल , स्वछ हवा पर संकट है , इस पर कोई देश में सरकार की और से चिंता नही।कितने लोग है ,जो पानी पीते है ओर उनके मन में उस पानी के स्रोत को बचाने की चिंता यकायक होती होगी।
ये सब नेचुरल साईकल है। लेकिन आदमी के विकास से इस पर क्या प्रभाव पड़ा , इस पर तो राष्ट्रीय स्तर की चिंता होनी चाहिए। पेड़ लगाना एक विकल्प है, लेकिन पेड़ो को बचाना भी उससे अधिक जरूरी है। उच्च हिमालय में मानवीय गतिविधि पर शिकंजा कसना ही होगा। बुग्याल , ग्लेशियर और बांज, देवदार जैसे बेश कीमती वनों को बचाना जरूरी है। हिमालय बचाना केवल हिमालय के लोगो की चिंता नही होनी चाहिए। ये पूरे देश को ही सोचना होगा। पर्यावरण एक चिंता का विषय होना ही चाहिए। चारधाम से यात्रा से अधिक जरूरी है ,पर्यावरण संरक्षण। जिसको लगे वो पैदल भी जा सकता है। लेकिन धार्मिक स्थल पर घूमने की इच्छा है ताकि मरने से पूर्व दर्शन हो जाये। इस अपने स्वार्थ ने ही पहाड़ तोड़ डाले। हेलीकॉटर पर बैठ दर्शन करने की लालसा नीरव, शांत और घने जंगल में रह रहे खगचर की कौन सोचे।
बिजली और पानी खूब खर्च करो ,क्या अंतर पड़ता है। हिमालय की किस को पड़ी। जरूरत हुई तो कितने ही पंचेश्वर बना सकते है। अब तो राजनीति ने लोगो को दो हिस्सों में बांट दिया। विकास के नाम पर स्वयं ही उलझे है और दूसरी और विकास मज़े से विनाश के पौधे लगा रहा है। कितनी बड़ी विडंबना है कि विकास विनाश की खेती कर रहा है और हम विकास की शराब में डूबे मदमस्त अपनी जड़ों को स्वयं ही काटते देख जिंदाबाद करने में तल्लीन है।
पर्यावरण संरक्षण से बड़ा की मुद्दा नही हो सकता। जल जंगल और जमीन है तो धार्मिक स्थल, ईमानदारी , बेईमानी , नेतागिरी, घोड़ा गाड़ी , सब चलेगा । लेकिन अगर जल जंगल और जमीन पर संकट हुआ तो क्या उपरोक्त तमाशा रहेगा ? ये गंभीर सोच का विषय है। विकास की शराब नही विकास का जल ग्रहण करो जो हमारे भीतर उतर शीतलता प्रदान करे न की नशा और उन्माद से कुत्ते की तरह जो हड्डी चबाता है और उसके स्वयं के मसूड़ों से खून को चाट कर उल्लास करता है।
हिमालय और समस्त भारत के प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण ही एक मात्र मिशन होना चाहिए। एक बात कभी नही भूलनी चाहिए। ये है तो दकियानूसी लेकिन इसमें सार तो है ही। अगर जल और स्वच्छ हवा मिले एक शर्त पर की विकास को तिरोहित करना होगा । क्या ये स्वीकार है? अधिकांश इसको बेवकूफी ही समझेंगे। इसको ऐसे समझो कि जब आदमी के पास धन अधिक हो जाता है तो वो क्या करता है। सबकी इच्छा होती है कहीं दूर एक घर या फार्म हो ताकि शुद्ध हवा और पानी का आनंद आ सके। छोटा सा खेत हो और जैविक कृषि हो।
मुझे लगता है , मेरी दकियानूसी बात के ये एक सटीक उत्तर है।
सब कुछ रहे लेकिन सतत विकास के साथ जो स्थाई और टिकाऊ है। सतत विकास शराब नही पानी पीता है। ये विकास धरती की छाती को फोड़ कर तबाही नही करता। ये सोच समझ कर आगे बढ़ता है। ये उच्च हिमालय को बिल्कुल छेड़ना भी नही चाहता। लेकिन मदिरा से मस्त विकास हिमालय को भी नेस्तनाबूद करने में हिचकी भी नही लगा।
अब निर्णय करना है कि सतत विकास की तुरत विकास। सतत विकास जल जंगल जमीन के बगल से धीमे धीमे आगे बढ़ेगा ताकि हैमिंग बर्ड भी विचलित न हो। तुरत विकास हाथी को भी एक और धकेल आगे बढेगा , ताबड़तोड़ बिना कुछ सोचे। सतत विकास आंखों को पूरी तरह खोले चारों और देख आगे बढेगा। लेकिन तुरत विकास आंखों में पट्टी बंधे बिना देखे तेजी से आगे बढ़ेगा। सतत विकास चिरस्थाई और टिकाऊ है। जबकि तुरत विकास क्षणभंगुर और अस्थाई है। सतत विकास में लय है , तुरत विकास में केवल शोर है बिना किसी लय के। सतत विकास सबके साथ हाथ मिलाकर और छू कर हंसता खेलता चलता है। तुरत विकास इसको पटक उसको हटा सबको दबाते और दबाता हुआ दिशाहीन दौड़ता है ।
कभी हिमालय सहित सभी खेतों को ध्यान से अवलोकन करो एक लय दिख पड़ेगी। रहट से पानी संगीत सा लगता था। बेलों के गले में घुंगरू आनंद देते थे।इन्ही से प्रेरित होकर विकास को चलाना था। इनको खत्म करके नही ,इनके साथ ही चलना था। इनको हटाना और खदेड़ना नही था ,बल्कि इनके स्थान को ग्रहण करना था। सतत विकास धीमे धीमे सबके साथ चलता है। तुरत विकास अकेला घमंड से सीना फुला कर धीमे नही तेजी से चलता है और भागता है। सतत विकास रात में विश्राम करता है, जबकि तुरत विकास रात दिन शोर और तोड़ फोड़ करता है । सतत विकास का लंबा इतिहास है। इसका उद्विकास दीर्घकालीन प्रक्रिया से हुआ है। तुरत विकास का इतिहास 150 वर्ष मान लो। इतने और इससे कम अरसे में ही सदियों से चली आरही प्रकृति की लय को बिगाड़ दिया।
अब निर्णय आसान होगा सतत विकास और तुरत विकास में। एक पल रुक कर सोचा ही जा सकता है क्योंकि सतत विकास की यात्रा अनन्त है , जबकि तुरत विकास की यात्रा का अंत उंसके साथ ही चलता है। सतत विकास का भी अंत होगा लेकिन एक नवसृजन के साथ । लेकिन तुरत विकास नवसृजन की संभावना को भी कुचल देगा।
अब निर्णय की घड़ी आ गई । अब तो चेतना ही होगा तुरत तुरत की जगह सतत को अंगीकार करने का। बिना अतिरिक्त विलंब क्योंकि अभी भविष्य में नवसृजन की संभावना सतत विकास की आशा में चिंतित है।
अब चेतना ही होगा , ये तय है।
रमेश मुमुक्षु
9810610409