Search This Blog

Friday 23 February 2018

सतत विकास या तुरत विकास : अविलंब निर्णय करना ही होगा

(सतत विकास या तुरत विकास :अविलंब निर्णय करना ही होगा।)

देश में नीरव मोदी प्रकरण पर हो हल्ला मचा है। सभी और इसी की चर्चा है। ये कुछ दिन रहेगा और फिर जल्दी ही मीडिया से आउट हो जाएगा।
फिर कोई और खबर पर देश आंदोलित हो जाएगा।
लेकिन इस वर्ष जिस बात को खबर बनाना चाहिए ,उस पर बात भी नही हुई। हिमालय क्षेत्र में इस साल दिसंबर और जनवरी में बर्फ और वर्षा नही हो सकी। दिसंबर से अभी हाल के महीनों में जंगल में आग लगी थी। बर्फ और  वर्षा का न होना और सर्दी के मौसम में राष्ट्रीय चेतावनी की खबर बननी थी। हिमालय में बर्फ और वर्षा कोई बड़ी खबर नही बनी। प्रधानमंत्री को कहना चाहिए था कि ये एक अलार्म है भविष्य में पर्यावरण पर घोर संकट का। लेकिन ये ब्रेकिंग न्यूज़ नही। इसका एक कारण है कि कौन कहता है ,पानी की कमी है। दो कदम उतरो और पानी खरीद लो। फ़ोन किया पानी हाज़िर । जल ,जंगल और जमीन के प्रति हमारे दिल में कोई संवेदना नही है। हादसा खबर है , अभी कोई बादल फट जाए और नुकसान हो जाये , तो खबर है। लेकिन किसी आपदा में खेत खलियान और पेड़ जैसे उत्तराखंड के चुखटिया विकास खंड के बसरखेत में  2013 में  खेत, अखरोट के 150 से अधिक पेड़ों का बहना , कोई खबर नही।
बर्फ और वर्षा का का न होना कोई खबर नही। लोकल स्तर पर तो खबर होती ही है। लेकिन प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री की और से एक चेतावनी की बात तो होनी ही थी। लेकिन वो नही हुई।
हर्षद मेहता , केतन पारिख, जिग्नेश शाह, तेलगी अब नीरव मोदी आएंगे । खबर की सुर्खी बनेगी । आम आदमी इनके नाम से एक दूसरे से बिना बात उलझेंगे। फिर नई खबर होगी।
अभी न्यूज़ थी कि हिमालय क्षेत्रों विशेषकर उत्तराखंड में  बड़े भूकम्भ की संभावना है। लेकिन इस पर चर्चा नही। अभी चारधाम पर पेड़ों का कत्लेआम हो रहा है। कोई खबर नही। भैरों घाटी में भी देवदार के बेशकीमती वृक्ष काटे जा रहे है। पर्यावरण पर इसका क्या प्रभाव होगा ? इस पर सरकार की और से कोई खबर नही
आदमी का पूरा जीवन तीन चीज़ो पर निभर है, जल जंगल और जमीन । स्वछ जल , स्वछ हवा पर संकट है , इस पर कोई देश में सरकार की और से चिंता नही।कितने लोग है ,जो पानी पीते है ओर उनके मन में उस पानी के स्रोत को बचाने की चिंता यकायक होती होगी।
ये सब नेचुरल साईकल है। लेकिन आदमी के विकास से इस पर क्या प्रभाव पड़ा , इस पर तो राष्ट्रीय स्तर की चिंता होनी चाहिए। पेड़ लगाना एक विकल्प है, लेकिन पेड़ो को बचाना भी उससे अधिक जरूरी है। उच्च हिमालय में मानवीय गतिविधि पर शिकंजा कसना ही होगा। बुग्याल , ग्लेशियर और बांज, देवदार जैसे बेश कीमती वनों को बचाना जरूरी है। हिमालय बचाना केवल हिमालय के लोगो की चिंता नही होनी चाहिए। ये पूरे देश को ही सोचना होगा। पर्यावरण एक चिंता का विषय होना ही चाहिए। चारधाम से यात्रा से अधिक जरूरी है ,पर्यावरण संरक्षण। जिसको लगे वो पैदल भी जा सकता है। लेकिन धार्मिक स्थल पर घूमने की इच्छा है ताकि मरने से पूर्व दर्शन हो जाये। इस अपने स्वार्थ ने ही पहाड़ तोड़ डाले। हेलीकॉटर पर बैठ दर्शन करने की लालसा नीरव, शांत और घने जंगल में रह रहे खगचर की कौन सोचे।
बिजली और पानी खूब खर्च करो ,क्या अंतर पड़ता है। हिमालय की किस को पड़ी। जरूरत हुई तो कितने ही पंचेश्वर बना सकते है। अब तो राजनीति ने लोगो को दो हिस्सों में बांट दिया। विकास के नाम पर स्वयं ही उलझे है और दूसरी और विकास मज़े से विनाश के पौधे लगा रहा है। कितनी बड़ी विडंबना है कि विकास विनाश की खेती कर रहा है और हम विकास की शराब में डूबे मदमस्त अपनी जड़ों को स्वयं ही काटते देख जिंदाबाद करने में तल्लीन है।
पर्यावरण संरक्षण से बड़ा की मुद्दा नही हो सकता। जल जंगल और जमीन है तो धार्मिक स्थल, ईमानदारी , बेईमानी , नेतागिरी, घोड़ा गाड़ी ,  सब चलेगा । लेकिन अगर जल जंगल और जमीन पर संकट हुआ तो क्या उपरोक्त तमाशा रहेगा ? ये गंभीर सोच का विषय है। विकास की शराब नही विकास का जल ग्रहण करो जो हमारे भीतर उतर शीतलता प्रदान करे न की नशा और उन्माद से कुत्ते की तरह जो हड्डी चबाता है और उसके स्वयं के मसूड़ों से खून को चाट कर उल्लास करता है।
हिमालय और समस्त भारत के प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण ही एक मात्र मिशन होना चाहिए। एक बात कभी नही भूलनी चाहिए। ये है तो दकियानूसी लेकिन इसमें सार तो है ही। अगर जल  और स्वच्छ हवा मिले एक शर्त पर की विकास को तिरोहित करना होगा । क्या ये स्वीकार है? अधिकांश इसको बेवकूफी ही समझेंगे। इसको ऐसे समझो कि जब आदमी के पास धन अधिक हो जाता है तो वो क्या करता है। सबकी इच्छा होती है कहीं दूर एक घर या फार्म हो ताकि शुद्ध हवा और पानी का आनंद आ सके। छोटा सा खेत हो और जैविक कृषि हो।
मुझे लगता है , मेरी दकियानूसी  बात के ये एक सटीक उत्तर  है।
सब कुछ रहे लेकिन सतत विकास के साथ जो स्थाई और टिकाऊ है। सतत विकास शराब नही पानी पीता है। ये विकास धरती की छाती को फोड़ कर तबाही नही करता। ये सोच समझ कर आगे बढ़ता है। ये उच्च हिमालय को बिल्कुल छेड़ना भी नही चाहता। लेकिन मदिरा से मस्त विकास हिमालय को भी नेस्तनाबूद करने में हिचकी भी नही लगा।
अब निर्णय करना है कि सतत विकास की तुरत विकास। सतत विकास जल जंगल जमीन के बगल से धीमे धीमे आगे बढ़ेगा ताकि हैमिंग बर्ड भी विचलित न हो। तुरत विकास हाथी को भी एक और धकेल आगे बढेगा , ताबड़तोड़ बिना कुछ सोचे। सतत विकास आंखों को पूरी तरह खोले चारों और देख आगे बढेगा। लेकिन तुरत विकास आंखों में पट्टी बंधे बिना देखे तेजी से आगे बढ़ेगा। सतत विकास चिरस्थाई और टिकाऊ है। जबकि तुरत विकास क्षणभंगुर और अस्थाई है। सतत विकास में लय है , तुरत विकास में केवल शोर है बिना किसी लय के। सतत विकास  सबके साथ हाथ मिलाकर और छू कर हंसता खेलता चलता है। तुरत विकास इसको पटक उसको हटा सबको दबाते और दबाता हुआ दिशाहीन दौड़ता है ।
कभी हिमालय सहित सभी खेतों को ध्यान से अवलोकन करो एक लय दिख पड़ेगी। रहट से पानी संगीत सा लगता था। बेलों के गले में घुंगरू आनंद देते थे।इन्ही से प्रेरित होकर विकास को चलाना था। इनको खत्म करके नही ,इनके साथ ही चलना था। इनको हटाना और खदेड़ना नही था ,बल्कि इनके स्थान को ग्रहण करना था। सतत विकास धीमे धीमे सबके  साथ चलता है। तुरत विकास अकेला घमंड से सीना फुला कर धीमे नही तेजी से चलता है और भागता है। सतत विकास रात में विश्राम करता है, जबकि तुरत विकास रात दिन शोर और तोड़ फोड़ करता है । सतत विकास का लंबा इतिहास है। इसका उद्विकास दीर्घकालीन प्रक्रिया से हुआ है। तुरत विकास का इतिहास 150 वर्ष मान लो। इतने और इससे कम अरसे में ही सदियों से चली आरही प्रकृति की लय को  बिगाड़ दिया।
अब निर्णय आसान होगा सतत विकास और तुरत विकास में। एक पल रुक कर सोचा ही जा सकता है क्योंकि सतत विकास की यात्रा अनन्त है , जबकि तुरत विकास की यात्रा का अंत उंसके साथ ही चलता है। सतत विकास का भी अंत होगा लेकिन एक नवसृजन  के साथ । लेकिन तुरत विकास नवसृजन की संभावना को भी कुचल देगा।
अब निर्णय की  घड़ी आ गई । अब तो चेतना ही होगा तुरत तुरत की जगह सतत को अंगीकार करने का। बिना अतिरिक्त विलंब क्योंकि अभी भविष्य में नवसृजन की संभावना सतत विकास की आशा में चिंतित है।
अब चेतना ही होगा , ये तय है।
रमेश मुमुक्षु
9810610409

Sunday 18 February 2018

पकोड़े का सच

पकोड़े का सच
कभी मित्रों सरोजिनी नगर मार्किट , द्वारका सेक्टर 6,10 और 4 और 5 की मार्किट और सभी रोड साइड समोसे, ब्रेड पकोड़े, अंडे, कुल्चे बेचते हुए रेहड़ी के पास किसी नुक्कड़ की दुकान पर चाय पीने बैठ जाओ। कितनी ही बार अचानक हड़कंप मच जाता है ,इनके भीतर। सभी अपने सिलिंडर ,समान ,गैस का चूल्हा उठा कर कही छिपाने लगते है। चाय पीने वाला एक पल घबरा भी जाये कि कोई डॉन या उघाई करने वाला आ गया। इधर उधर निगाह घुमाने पर सच समझ आता है। एक NDMC या MCD का ट्रक आता है, उनमे कर्मचारी ऐसे आते है ,जैसे इराक में अमरीकी सैनिक  आ गये हो  और जान बचाओ हो गई। हम बचपन से सुनते आए है ,कमेटी वाले आ गये। हमें 10 साल की उम्र से ज्ञान है कि ये कमेटी आएगी और इनका सामान ले जाएगी ,ये उनके पास जाएगा , कुछ लेन देन करेगा , फिर दुकान चालू। सरोजिनी नगर जहां पर ब्लास्ट हुआ , वहां पर पूरी मार्किट ही गैरकानूनी तरीके से दशकों से चल रही है। वहां पर भी ये ही तमाशा आये दिन चलता है। ऐसा ही नेहरू प्लेस में भी देखने को मिलता है।
ये चूहे बिल्ली का खेल लगातार चलता है। और तो और नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक के पीछे भी चलता है  जहां पर मोदी, राजनाथ और जेटली बैठते है। 26 जनवरी, 15 अगस्त के दिन अथवा रुट लगा हो तो इनकी दुकान अलग लगती है। ये रेहड़ी और झाबड़ी वाले बहुत बड़ी तादाद में दिल्ली के फुटपात, सर्विस लेन, सड़क की किनारे अपना धंधा करते है। लोग भी इनसे खाना पसंद करते है। अगर आपको सफाई, छोटी जगह हम नही खाते, ये सेहत के लिए ठीक नही, गंदा रहते है, जैसे सिंड्रोम नही है तो आप नुक्कड़ की चीज़ों का आनंद ले ही लेते हो। गोलगप्पे वाला ऐसे उचक और झुक कर जो गोलगप्पे निकलता है। सच मुँह में पानी आ ही जाता है। बचपन में इमली, लाल इमली, टाटरी, आम पापड़, कच्ची इमली , बर्फ का गोला, बेर , अमरक, संतरे और सफेद दूध की गोली हम सब ने खाई है , उन्होंने भी जिनको उपलिखित सिंड्रोम आज है। बचपन में चुलबुली और बद्री का खोमचा अभी भी स्कूल के बाहर लगता था। मुच्छल के गोलगप्पे और जमुना काले काले रा की आवाज अभी भी बचपन में ले जाती है। खेर, हो सकता है , ये गंदे, सस्ता माल , गंदी क्वालिटी के बनाते होंगे। लेकिन नुक्कड़ की दुकान पर चाय और मट्ठी खाने का आनंद कुछ और ही है। कुछ आइटम केवल नुक्कड़ पर मिलते है जैसे लड्डू गरमे, मोठ कचोरी, उबले अंडे आदि। लेकिन एक बात तो थी ,ये सब खाने की चीज़े पेड़ों के पत्ते से बने दोनों और पत्तल पर ही  दिया करते थे। राजेश खन्ना की फ़िल्म अमर प्रेम समोसे पत्तो में लिपटे होते थे।ये सब 40 वर्ष से अधिक उम्र वाले याद कर सकते है। अब तो विकास की उड़ान के संग समझदारी और शिक्षा के बढ़ने के के कारण,  ये सब प्लास्टिक और थेर्मोकोल में परिवर्तित हो  गया जो पर्यावरण के लिए कितना घातक  है।  एक बात दीगर थी और है कि नुक्कड़ बहस के अड्डे भी होते है।
पकोड़ा भी इनका ही हिस्सा है। एक और सभी छोटे दुकान और रेहड़ी लगाने वालों पर संकट है क्योंकि बड़े ब्रांड लाइन में लगे है।  अब प्रधान मंत्री और अमित शाह ने क्या और क्यों बोला ये तो वो ही जाने क्योंकि उन्होंने साफ कर ही दिया था कि ये चुनाव के झुमले ही होते है 15 लाख आएंगे वाले बयान पर। ये जुमले बचपन से सुनते आए है। नेता भी  बचपन में तो ये सब खाते ही होंगे । लेकिन अभी उम्र बढ़ गई, गैस, अफारा, शुगर, मोटापा , हाई ब्लड प्रेसर ने जीभ के स्वाद पर विभिन्न दवाईयों का नाका लगा दिया तो क्या कहे। कही किसी रेहड़ी में गरम जलेबी और पकोड़ा उतरता हुआ देखने पर निगाह चली जाती तो है ही , लेकिन मन और जीभ तो लपलपाती है, पर ऊपर लिखे डर हसरतों के उठने से पहले ही गाला घोंट देते है।
बात पकोड़े की हो रही थी। अब पकोड़े वाला क्या कमाता है और क्या  नही ,लेकिन उसके साथ पूरे प्रशासन की पो बारह ही रहती है। पुलिस का डंडा , mcd और ndmc का चालान ये शब्द सभी ने सुने होंगे। ये कानूनी ड्रामा दशकों से चल रहा है। इन सब के बीच  मोदी जी और अमित शाह जी पकोड़े बेचना आसान नही। इनसब के हिस्से फिक्स है। ये डिजिटल सिस्टम से भी अधिक मुस्तेद है। इन सब को जो झेल ले ,तो ही पकोड़े बेच सकता है।मोदी जी को सोचना चाहिए , अगर पढ़ा लिखा कर भी बच्चा पकोड़ा ही बेचेगा ,तो पड़ेगा क्यों ? उन्होंने सच ही कहा कि नौकरी तो है ही नही। पकोड़े बेचना सबके बूते की बात नही।स्कूल  की फीस इतनी अधिक हो गई है कि पढ़ाना कठिन हो चला है। खेती में पलायन हो रहा है। आज 15 लाख से 25 लाख तक बच्चे पर खर्च हो जाता है, जब कहीं बच्चा कुछ करने लायक बनता है। बेरोजगार तो डॉक्टर और इंजीनियर भी है, तो क्या ये सभी पकोड़े बेचेंगे ?इतना पढ़ा लिखा कर भी कोई केवल पकोड़े बेचे ,तो वो व्यवस्था में कमी है।
कोई पढ़ लिख कर फ़ूड इंडस्ट्री में जाये ,उसका लीगल आउटलेट हो ,तो सही है। बच्चों को मां पाप पैसा और अपनी नींद की परवाह किये बिना पढ़ाते है केवल इसलिए नही की वो नौकरी न मिले तो पकोड़ा ही बेचे।
ये सब दिल्ली में बाहर से आकर धंधा करने आते है। जो अधिकतर खेतीहर मजदूर होते है। एक भी मध्यवर्गीय परिवार से नही आता। ये बात नेता को सोचनी और समझनी चाहिए।
सरकार की ये जिम्मेदारी है कि पढ़े लिखे बेरोजगार को रोजगार देने की गारंटी दे। अब  मोदी जी अमित शाह को पसंद करने वाले भी  सोचे आपका बच्चा कोई उच्च शिक्षा से आया हो तो क्या आप बेरोजगारी से बेहतर पकोड़े का ठेला लगवाना पसंद करेंगे?
इसलिए कितनी बार नेता की बात गधे की लात का कोई एतबार नही ,कही भी चल जाये।
लेकिन ये बात सारी सरकारों पर ही लागू होती रही है, होती रहेगी।
इन सब को देखते हुए , मोदी जी ने अपने दिल की बात कह दी। इसका सीधा अर्थ है, जब आप नौकरी की बात करेंगे तो ऐसा ही सुनने को मिलेगा। अब निर्णय आपके ऊपर है। इनको कहना था कि स्वरोजगार बने तो उचित होता। देश में पकोड़े का धंधा और दूसरी और रामदेव जी पकोड़े और चाय पीने को वर्जित कहते है। प्राकृतिक चिकित्सा में ये सब वर्जित है। अब ये पकोड़ा बेचना भी सेहत के लिए घातक हो गया।
ये ऊपर ,कमेटी जो सामान उठाती है ये  सभी धंधों पर लागू है, इनके नाम और ओहदे बदल जाते है जैसे  इनकम टैक्स, सेल टैक्स आदि आदि। भगदड़ का तरीका और लेन देन की परंपरा अलग है। ये सब कमेटी वाले मुंशी प्रेमचंद की कहानी नामक का दरोगा के मुख्य पात्र है।  जब ये वाले लोग आते है तो ये देखने लायक होते है। इनके चेहरे पर एक खास तरह का रोब होता है। खासतौर पर कमेटी वाले , ये ऐसे लगते है जैसे रणबांकुरे युद्ध भूमि में उतार आये हो। लेकिन ये जनता है ये सब जानती है।
चाय गुडकने का टाइम हो गया , फिर लिखने की उड़क लगेगी तब तक इस पर विचार करना एक नागरिक बन कर पिछलग्गू नही।
रमेश मुमुक्षु
9810610409

Thursday 15 February 2018

रोहतांग पास यात्रा के बहाने

1991 में मेरे मित्र फोटोग्राफर कलाकार राजीव आनंद, कवि हरिप्रकाश त्रिपाठी और दार्शनिक मित्र राकेश पांडेय के साथ मनाली से  रोहतांग पास ट्रेक का प्लान बन गया। दिल्ली से लोकल स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से मनाली पहुंचे चंडीगढ़ के आगे पहाड़ों का आनंद लेते हुए । 1991 में ही सड़क पर इतनी गाड़ियों थी कि हमे लगा ,आगे यहां क्या होगा? हम लोगो ने मिट्टी का तेल लिया। अपने स्टोव को चेक कर लिया। खाने पीने की सब्जी आदि ली। हमारे रकसैक में करीब 20 से अधिक किलो समान होता था। पिण्डरी में तो 28 किलो सामान ले गए थे । मनाली से पैदल ही जाना था । भीड़ बहुत थी। उस वक्त हमने सोचा कि मनाली में तो आना बेकार हो गया । इतनी गाड़ियां सड़क पर है। उंसके बाद अभी करीब 10 साल पहले मैं 2007 में मनाली गया तो 1991 की हमारी  चिंता  की याद आगई।
मैंने एक बगल के गांव वाले से 2007 में  पूछा तो उसने बताया कि अब बर्फ और वर्षा समय पर नही होती। भीड़ बढ़ गई है। ये किसान ने 10 साल पहले बताया था। अब क्या हाल है, ये अंदाज़ा लगाना कठिन है।
सोलंग नाला हमारा पहला पड़ाव था , कितना सुंदर और एकांत । सौंदर्य और नीरवता से ओत प्रोत। 1991 में हमने वहीं पर टेंट पिच कर दिए। लेकिन अभी उसकी नीरवता कही खो गई। हम लोग अगले दिन ढूंढी गए क्योंकि  वही से हमें रोहतांग जाना था। लेकिन रास्ता बर्फ से बंद था। 1991 में अच्छी बर्फ गिरती थी। जून के मध्य तक भी गस्ते बंद थे। ढूंढी में रात ठंडी और भालू आदि की आशंका से भरी भी। अगले दिन ब्यास कुंड जहां से ब्यास नदी की एक धारा उद्गमित होती है, ट्रेक का बना ही लिए।
सबसे पहले एक छोटा लेकिन भयानक ग्लेशियर पार करना था। रास्ता करीब एक फ़ीट का रहा होगा। नीचे ब्यास नदी का प्रचंड प्रवाह इशारा कर रहा था कि मेरे  आगोश में आये तो वैकुण्ठ भेज दूंगी।। खैर जवानी की जिद मौत को कहाँ समझती है। निकल गए उस पार। कोई आइस एक्स नही, जूते भी लोकल और रस्सी भी कोई नही। खैर,  ब्यास कुंड से पहले लंबा ग्लेशियर था और ब्यास कुंड में तो बर्फ का साम्राज्य ही था। अब 2018 में बर्फ को तरस रहे है।  लौटते हुए हरी प्रकाश और राकेश पांडेय ग्लेशियर से वापस आये और मैं नदी के ऊपर एक पेड़ का ताना जो  दोनों किनारे पर लगा रखा था , उस पर बैठकर कर पर किया। नीचे ब्यास नही का तीव्र प्रवाह जो चटटानों पर ऐसे टकरा रहा था ,मानो उनको तोड़ देना चाह रहा हो। और उस दिन शाम को रोमांच भरी यात्रा से लौट कर ढूंढी आगये और  ढूंढी से सोलंग नाला आकर रहे। उंसके बाद सोलंग नाला होते हुए कोठी पहुंचे। कोठी जहां से पीरपंजाल रेंज दिखाई पड़ती है। टेंट पिच किये स्टोव में खाना मिलकर बनाया।
चौथे दिन हम लोग कोठी से पलचान जहां पर ब्यास कुंड से ब्यास नदी की एक धारा और दूसरी रोहतांग से एक धारा का संगम है। हमे रहला होते हुए मढ़ी तक ट्रेक  करना था। सड़क गुलाबो होती हुई ,मढ़ी पहुचती है।
रहला फॉल के सामने बैठ कर हमने खाना खाया , नही भूल सकते है। उंसके बाद कठिन चढ़ाई के बाद मढ़ी पहुंचे। चारों और केवल बर्फ ही बर्फ। सड़क पर जमी बर्फ काट ली गई थी। वहां पर स्कीइंग की प्रतियोगिता चल रही थी।
अगले दिन पांचवे दिन रोहतांग जाना था। हमे बताया गया कि बिजली के खम्बों के साथ  बर्फ के  ऊपर रास्ता बना है, चलते रहो। वहां से सात किलो मीटर बर्फ पर चलना था। बीच में कभी कभी सड़क आती थी। सड़क के दोनों और करीब 18 से 20 फ़ीट तक बर्फ काटी गई थी। हम रोहतांग से पहले बर्फ ऊंचे गलियारे के बीच चल रहे थे।
गस्ते में एक बुजुर्ग मिले। प्रोफेसर थे, लेकिन वो अकेले ही ट्रेक करते थे। उनका पड़ाव रोहतांग से आगे चंद्रताल था। उन्होंने कहा कि अकेले  घूमने का अलग का आनंद होता है। उन्होंने एक बात कही, मुझे अभी तक याद है। " एक निरंजन, दो सुखी तीन में झगड़ा चार दुखी" उन्होंने अपनी यात्राओं के जीवंत किस्से बताए। उनका साथ रोहतांग तक था। उनको आगे खोखसर तक जाना था।
रोहतांग से पहले तक ही सड़क कटी थी। खैर हमने बर्फ के ग्लेशियर का रोहतांग पास पर आनंद लिए । रोहतांग के आगे बौद्ध संस्कृति है और मनाली की और हिन्दू संस्कृति। ये दर्रा दोनों को जोड़े है। उंसके बाद मढ़ी आ गये। मढ़ी से नीचे रहला होते हुए कोठी करीब 21 किलोमीटर ट्रेक किया। उस दिन याद है, दाल चावल बनाने का सोच रहे थे। लेकिन थकान बहुत थी। सबने ढूंढा लेकिन दाल नही मिली, जो दिल्ली पहुंच कर मिली तो थकान की  शिद्दत याद आ गई। खैर,  रात भर टिप टिप वर्षा होती गई। रात टेंट में गुजरी और छठवें दिन  पैदल ही कोठी के पुल से जहां बहुत गहरी घाटी है , जिसको गोर्ज कहते है , देखने का दृश्य है, हुए  टूटे फूटे मनाली पहुंचे और बस पकड़ दिल्ली की राह पकड़ी।
सच चारों और केवल बर्फ जून 1991 की बात है।
अभी पर्यावरण की हालत सब के सामने है। दिल्ली और महानगर की जिंदगी से तंग आकर पहाड़ जाओ और वहां पर भी भीड़ अधिक होना और बर्फ नदारद । अभी फरवरी 2018 के दिन बर्फ का इंतजार है। अभी हाथ ठिठुरने वाली ठंड इतिहास में कही गुम हो गई। उन दिनों  बाबा सहगल का एक रेप ठंडा ठंडा पानी लोक प्रिय हुआ था। उसको ही गाते रहे गस्ते भर। सभी मित्रों के चेहरों की खाल जल गई थी और चेहरे काले पड़ गए थे।
वो दौर था कि निकल जाते थे ,बिना किसी तेल के, केवल सरसों का तेल ही सब काम कर लेता था। चेहरे की किसको परवाह  कोई क्रीम भी होती होगी।। बस एक जिद और उत्साह रहता था कि ट्रेक करना है।  ढूंढी से ब्यास कुंड  ट्रेक में हम लोग कितने ही किलोमीटर बर्फ पर चले। कुछ भी सुविधा नही होती थी , बस चलना है , पहुंचना है।
ये सब जगह सोलंग नाला, ढूंढी, ब्यास कुंड, कोठी, रहला फॉल , मढ़ी सभी खूबसूरत और नीरवता पूर्ण स्थल थे, जिनके कारण लोग कुछ अलग अनुभव करने आते थे। लेकिन अभी ये सब भीड़ भाड़ में तब्दील हो गए है। अभी तो बुग्याल तक भी मस्ती के स्थल बनाने के ख्वाब है।
3000 मीटर के ऊपर तो किसी तरह के निर्माण और लोगों की आवाजाही काम होनी चाहिए। अधिक लोगों से सब कुछ डिस्टर्ब हो जाता है।
पैदल ट्रेक की आदत से ये कुछ बच सकता है। ट्रेक के लिये सेहत और मन मजबूत करना पड़ता है।
पहाड़ की खूबसूरती केवल इसलिए नही है कि  भोग करें। उसकी खूबसूरती पर्यावरण के घटक है। जल स्रोतों के उद्गम  स्थल । हिमनद और वनों से उद्गमित होती है, नदियां जो पृथ्वी को जल से सींचती है। बर्फ केवल मस्ती के लिए नही बल्कि जल स्रोत है।
किसी जगह को केवल घूम कर ही थोड़ा बहुत समझा जा सकता है। जब तक पैर नही टूटेंगे दमखम नही होगा , तब तक क्या आनंद आएगा। मढ़ी से सात किलो मीटर बर्फ में रोहतांग तक जाने का आनंद आज भी रोमांच और उत्साह भर देता है।
अभी 2016 में पांचवी बार रूप कुंड ट्रेक किया था। लेकिन पिछले वर्ष 2017 में जोशीमठ से ऊपर पांगरचुला ट्रेक में फ्रैक्चर हो गया। फ्रैक्चर के बाद कुल 15 किलोमीटर नीचे आने के कारण  अभी घुटने घायल है।
लेकिन उच्च हिमालय को संरक्षित करना हम सबकी जिम्मेदारी है। कम से कम उंसके संरक्षण की सोच तो रखे। विकास विकास रहे विनाश न हो। ये नई पीढ़ी को समझ लेना ही होगा। फुर्र से कही पहुंचने का प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। अम्बानी सहित दुनियां के धनकुबेर मोबाइल और कुछ भी बना सकते है।लेकिन औस की एक बूंद क्या बना पाएंगे?  औस की एक बूंद पर्यावरण के अस्तित्व की गवाह है। उसको आने दो। अगर वो कही छिप गई तो सब कुछ ताश के पत्तों सा बिखर जाएगा और इतिहास में खोजना भी कठिन होगा कि औस का न होना कितना घातक हो सकता है। भयानक है लेकिन सत्य। कैलाश को भी हम ऐश गाह बनाने को आतुर है। अपने आराध्य शिव को तबाह करके क्या मना सकेंगे शिव  रात्रि ?,ये तो सोचना ही होगा। विष तो पीना ही होगा अगर अमृत को संरक्षित करना है ,तो।
दुनियां के घुमक्कड़ों के आदर्श
राहुल संकृत्यायन ने बचपन में सुना था कि "सैर कर दुनियां की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ , गर जिंदगानी रह गई तो नौजवानीननबब फिर कहाँ"।
खैर,  धुन लग गई तो लिखने लगा  स्मार्ट फ़ोन पर चिपक गया। अब चाय की हुडक होने लगी। फिर कभी विस्तार से तो पुस्तक में ही लिखा जा सकेगा। लिखने को इतना है कि उम्र कम लगती है।
रमेश मुमुक्षु
9810610400

Friday 9 February 2018

(वालमार्ट और लोकल विक्रेता )

(वालमार्ट और लोकल विक्रेता)
अभी वालमार्ट भारत में आ ही जायेगा। हम उंसके खिलाफ कहते रहेंगे , लेकिन उसको आना ही है। कैसे आना है और क्योंकर लोग उसको स्वीकार करेंगे। इसपर कुछ चर्चा करते है। अभी हाल में धारवाड़ जाते हुए , मनवाड़ स्टेशन पर 100 रुपये के अनार बिक रहे थे। संभव है फसल अधिक होगी ,इसलिए सस्ते बिक रहे होंगे। हालांकि ये भारत वर्ष में सब जानते है कि स्टेशन पर कुछ नही खरीदना ,क्योंकि वो लोग खराब माल बेचते  है। ऐसा ही अधिकांश धार्मिक स्थल पर होता है। जम्मू की वैष्णो देवी मंदिर से पहले कटरे में अखरोट दिखाते कुछ और है , देते कुछ और, ये हमेशा रहा है। अभी आज क्या है, मुझे इसकी जानकारी नही है। लेकिन अभी भी ऐसा ही होता होगा।
आदमी ये सोचता है कि चलो सस्ता मिल रहा है और स्थानीय सामान लेने की इच्छा सब की होती है। हमने भी सोचा चलो सस्ता मिल रहा है। संभव है, इसकी भी कमाई होगी और हमको भी सस्ता मिलेगा।  एक पॉलिथीन में वो बेचते है। मेरे सामने  जो ट्रैन में बैठा था उस अनार वाले को कह रहा था कि तेरा माल सही नही लग रहा। लेकिन मैंने कहा कोई नही , इसकी कमाई हो जाएगी और इतना सस्ता कहाँ मिलता है और उन्नीस बीस चलता ही है।
लेकिन जब थैला खोला तो ये सब देख बड़ा दुख हुआ। वो क्या करते है, ऊपर के अनार अच्छे रखते है और नीचे सारे अनार पेड़ पर पकने से जो फट जाते है, उनको चालाकी से रख कर बेच देते है।  फटे हुए अनार की कोई कीमत नही होती। ऐसा आपको हर जगह ही मिलता है। कोई आपको किशमिश दिखायेगा , कासरगोड स्टेशन के आस पास लेकिन वो निम्न किस्म के नही ,बल्कि खराब होते है। किसी से घी लो और शहद खरीदों उसमे सालों से मिलावट करते आते है।
ऐसा करके वो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते है।  अभी भी भारत में गांव की चीज़ें लेना लोग अच्छा समझते है। लेकिन कुछ लोग खराब और बेक़ीमत माल चालाकी से बेच देते है। ये एक ओर बेईमानी है और दूसरी ओर  और लोगों का स्थानीय उत्पाद के प्रति विश्वाश टूटना है। इसका सीधा लाभ बड़े ब्रांड उठा लेंगे।
अब वालमार्ट या अमेज़ॉन को देखों। घर बैठ आउट लेट में जाकर  आप समान मंगवा लेते है, बाजार से सस्ता और अगर पसंद न आये तो वापस।
ये अनार निम्न किस्म का देता , लेकिन खराब और कटा नही देता, जिसकी एक पैसे बाजार में कीमत नही है। 30 और 40 रुपये का बेच देता , यात्री ले लेता। वो केवल इसलिए नही लेता की केवल सस्ता है, उसको स्थानीय चीज़े अच्छी लगती है। ये सब चिन्दी चोरी और मिलावट ने मल्टीनेशनल स्टोर के रास्ते खोल दिये। पहले दाल और अनाज़ में मिलावट होती थी। ये जगजाहिर सत्य था। लेकिन डिपार्टमेंटल स्टोर जैसे सुपर बाजार आदि के बाद ये सब बदल गया। लोकल प्रोडक्ट लोग इसलिए नही लेते क्योंकि उसमें मिलावट होती है। स्टेशन की चाय में मिलावट और सभी सामान घटिया बेचकर स्थानीय विक्रेता अपनी स्वयं जड़ खोद रहा है। फिर उसको लगता है कि ये  बड़े स्टोर सब देश को लूट रहे है। खुला दूध, दही, घी कोई नही खरीदता। खोए की बर्फी मिलावट के कारण लगभग बन्द  हो गई। ऐसे कितने समान है, जो सस्ता होने के बाद भी नही खरीदते। साफ सफाई की बात तो भूल जाओ। ।ऐसा ही अन्य खाने और पीने की चीज़ों में मिलता है। ये सब लोगों में विश्वास को तोड़ देगा।  अब आजकल मॉल खुल रहे है। जब अधिक सामान लो तो सस्ता भी मिल जाता है। खराब होने पर शतप्रतिशत वापसी होती है। माफी भी मांग लेंगे। दिल्ली के पालिका बाजार, पहाड़ गंज और चांदनी चौक की खरीदारी लोग जानते ही है। ऐसा नही यहां पर कुछ ऐसे है, जो थोक का अव्वल माल बेचते है।
लेकिन जो घटिया और खराब माल बेचते है, वो अपनी जड़ ही काट रहे है। वो एक सिद्धान्त पर काम करते है कि ग्राहक को काट लो , देश बड़ा है , कौन वापस आएगा। ये सोच स्थानीय उत्पाद के बिकने और विश्वास को तोड़ने वाली है
लोकल विक्रेता को चाहिए वो माल सही बेचे दाम अधिक  न करें , लोग उससे माल खरीद लेते है। अभी भारत के लोगों ने ग्रामीण और स्थानीय उत्पाद के प्रति प्रेम और विश्वास है। लेकिन उपरोक्त उदाहरण और घटना विश्वास तोड़ देते है और वालमार्ट और अन्य विक्रेता तो आने ही है। आदमी साफ सुथरा और ताज़ा माल लेना चाहता है। लेकिन ये सब समय रहते संभाल जाना है, नही तो केवल कोसते ही रहेंगे और ये सब देश की लोकल मार्किट को भी अपने में मिला लेंगे। ये तय है और स्थानीय उत्पाद के प्रति अपनापन चला जायेगा, वैसा मोटे तौर पर चला ही गया।
मॉल में एक मानसिकता काम करती है। वो आपको अधिक आइटम लेने पर छूट देता है उससे ये देखा गया है ,मॉल और इस तरह के आधुनिक आउटलेट  में लोग फालतू और बिना इस्तेमाल के सामान खरीद लेते है। लेकिन एक ही छत पर माल उनको मिल जाता है।
इसलिए जो भी स्थानीय और छोटे माल गांव का शुद्ध बोलकर बेचते है , उनको चाहिए कि अच्छी किस्म , ताज़ा और शुद्ध बेचे और ग्राहकों को एक बार में न काटे बल्कि विश्वास हांसिल करें। लोग बेझिझक माल खुश होकर खरीद लेंगे। मेरा दावा है कि अगर किसान और गांव से जुड़े छोटे माल बेचने वाले उपरोक्त बातों को ध्यान में रखे तो लोग हाथोहात माल खरीद लेंगे। इस विश्वास को कभी न टूटने दे। यूरोप का किसान अपने खेत के बाजू में ही माल बेच देता है। लोग ताज़ा माल खेत से ही खरीद लेते है। ऐसा ही किसान भी कर सकते है। अभी उत्तराखंड और अन्य राज्यों में ये प्रचलन बहुत कम है, लेकिन इस बीच ये थोड़ा बड़ा है। अगर गांव के बाहर ही छोटा सा माल बेचने का ठिया बना लिया जाए तो निश्चित ही लोग माल खरीद लेंगे। अभी कितना उत्पाद फल और सब्जी बिक नही पाती। एक बार बिक्री शुरू हो जाएगी तो मन भी करेगा। दिल्ली में यमुना के पुल के ऊपर लंबे समय से सब्जी और फल बेचे जाते है। ये एक अच्छा और बिना खर्च का तरीका है। केवल एक दो डलिया लेकर बैठना है और कमाई शुरू। आज गांव के सामान को बिना केमिकल और दवाई के शुद्ध माल हो तो आज भी लोग खरीदने को तैयार है। इसका ख्याल तो रखना ही होगा। मॉल और बड़े स्टोर  रहें तो रहें । लेकिन किसान और गांव में एक रोजगार का ससक्त और सतत रास्ता है। बशर्ते की शुद्ध और साफ माल बेचे। आज भी सबसे बड़ा बाजार गांव से सीधे माल का है। अगर कोई शुद्ध शहद बेचे तो लोग महंगा लेने को राजी है। घी शुद्ध बेचे तो हाथोहात बिक जाएगा। आज भी बड़े महानगर में रहने वाले गांव के उत्पाद बड़े दिल से खरीद लेते है। किसान और गांव के लोग इस बात को समझ नही पाते। अगर कोई अपने पेड़ से अमरूद तोड़ कर सड़क पर बेच देता और भले वो अधिक सस्ता न भी बेचे ,तो मेरा दावा है ,उसका माल हाथोहात बिक जाएगा। इससे माल भी खराब नही होगा और बिक भी जाएगा। इस तरह की दुकानदारी में एक पैसा भी खर्च नही है। अभी उत्पाद अधिकांश बेकार के पकने के बाद गिर कर सड़ जाते है। आज समय आगया है, छोटी छोटी मार्किट अपने गांव और खेत के बगल लगा कर माल बेचा जा सकता है। लेकिन ये वहीं अधिक बिकेगा जहां पर चलता रोड होगा। इस और सबको सोचना है। गांव के लोग महागर में रहने वालों को माल उनसे बात कर बेच सकते है। ऐसा कुछ तरीका खोजना ही होगा।
लेकिन विश्वास और ग्राहक को एक बार में ही काट लो , जैसी आदत से बचना होगा।
मनवाड़ स्टेशन पर अनार बेचने वाला अच्छा माल भले महंगा बेचता लोग हाथोहात खरीद लेते। लेकिन  उन्हें मालूम है कि सवारी कौन सी हमेशा ही आती है। एक बार काट लो । इस सोच से उठना है। शुद्ध और बिना मिलावट का एक बड़ा बाजार है बस इस और सोचना ही होगा। वरना लोगों का विश्वास गया तो फिर लौट कर नही आएगा। उस पर विचार करना ही होगा।
(रमेश मुमुक्षु)
अध्यक्ष हिमाल
9810610400
कृपया शेयर करें और कमेंट करें।