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Wednesday 29 July 2020

मास्क की आत्मव्यथा : कोरोना संकट में

मास्क की आत्मव्यथा : कोरोना संकट में
हे ,मूढ़मते मानव मुझे मालूम है ,तेरी फितरत । तू उपयोग करके भूल जाता है ,और फेंक देता है। तुझे केवल अपनी ही चिंता रहती है। लेकिन तू भूलता है कि तेरे पुरखे अभी भी पृथ्वी पर कहीं कहीं रह रहे है। वो हज़ारों वर्षों से एक जैसा जीवन जी रहे है। वो आज भी प्रकृति पर ही निर्भर है। लेकिन तू आगे निकल गया। तूने जल,थल,नभ एवं अंतरिक्ष से सभी का तेजी से दोहन करना आरम्भ कर दिया। 
ऐसा नही कुछ मानव ऐसे हुए जिन्होंने तुझे हज़ारों वर्ष पहले ही चेता दिया था कि प्रकृति के संग मिलकर चल ,उतना ही ले ,जितना उपयोग हो सकें। लेकिन  तेरी भूख मिटती नही। 
कोरोना ने एक बार तो तुझे घरों के भीतर ही दुबका दिया। पूरी दुनियां ऐसे दुबक गई ,जैसे छोटा सा मूषक बिल में डर के घुस जाता है।  कोरोना के डर से बड़े बड़े तीस मार ख़ाँ बिलों में दुबक गए। पूरा विश्व सकते में आ गया । मौतों का सिलसिला तेजी से शुरू हो गया। 
जो देश अपनी सामरिक शक्ति का दम्भ भरते थे,वो भी अदृश्य आपदा के आगे घुटने टेक गए। उनके घातक से घातक अचूक हथियार भी कुंद हो गए। खेर ,आदमी भी जिद्दी है,इसका भी उपाए खोज कर अपनी चाल से ही चलेगा। 
जिन्हें विश्व अवतार या भगवान का दर्जा देता है, उनकी एक छोटी सी बात भी कभी किसी नही मानी की मानव एक ही है,उसमें भेद नही है। पृथ्वी और प्रकृति सबके लिए एक समान है। इसलिए एक साथ भाई चारे के साथ रहो। लेकिन एक दूसरे को नेस्तानाबूत करने की होड़ में विश्व लगा है । जिस पेड़ पर बैठा है,उसी डाल को काटने में लगा है , इंतजार है कि ये डाल कब कट कर गिरती है। 
हथियार ऐसे की एक ही पूरी मानवता को खत्म कर सकता है। लेकिन इस मूढ़मते को कौन समझाए?
कोरोना जैसी अवस्था मानव इतिहास में पहली बार हुई है। 40 दिनों में ही सारा प्रदूषण जाता रहा और ये प्रमाणित हो गया कि प्रकृति तो शुद्ध ही है। ये मानवकृत गंदगी और प्रदूषण के कारण ही सब कुछ प्रदुषित था।
लेकिन इसको कोई अंतर नही पड़ेगा ।मेरा उपयोग कोरोना के संक्रमण से करने के लिए करता है। बहुत बार कोरोना मुझ पर बैठता है। मैं उसको मानव के भीतर जाने से रोक देता हूँ। जिसके कारण बहुत सारे लोग अपनी जान बचा सकें है। लेकिन ये मानव अभी भी बाज नही आ रहा है।मुझे कही भी फेंक देता है।जबकि कुछ समझदार लोग बोलते बोलते थक गए कि इनको यहाँ तहां न फेंक। लेकिन आदमी की पुरानी आदत कि उपयोग करो और भूल जाओ। इस बार भी उसको अक्ल नही आई। हालंकि ये इतना पक चुका है कि मानने को राजी नही। 
लगता था कि ये सबक सीखेगा , वहीं ढाक के तीन पात । कहता फिरता है कि मास्क पहनना जरूरी है। इस्तेमाल के बाद इसका निस्तारण एतिहात से करना जरूरी है। लेकिन फिर भी मुझे अपनी जान बचाने के लिए  पहनता है और फिर मेरा तिरस्कार कर फेंक देता है। जब अभी भी नही सुधरा तो आगे क्या सुधरेगा, ये सोचने का विषय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
29.7.2020

Wednesday 15 July 2020

शहरी विकास: जिसकी लाठी उसकी भैंस। द्वारका उपनगर के संदर्भ में

शहरी विकास: जिसकी लाठी उसकी भैंस
द्वारका उपनगर के संदर्भ में
हम सबको याद ही होगा , जब द्वारका उप नगर ,जिसको पपन कलां प्रोजेक्ट कहा जाता था, आरम्भ हुआ ,उस वक्त एक भी पेड़ द्वारका उप नगर में नही था। अधिगृहित होने से पूर्व ये सब कृषि भूमि थी,कितने ही गांवों की। शहर और महानगर बनते है ,कृषि भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जाता है।  मधु विहार के पास एक पीपल का बड़ा पेड़ था, उसके नीचे ही बस स्टॉप हुआ करता था। नाले के ऊपर सिंगल रोड़ हुआ करती थी। जो लोग अपनी घोड़ा गाड़ी में चलते है, वो शायद न भी जानते हो। 
मेरे कितने पहचान वालों के फ्लैट द्वारका में  निकले ,लेकिन जंगल में कौन जाए , या तो बेच दिया ,या कहीं और मिले कोशिश में लग गए। यहां के डीलर और बिल्डर बोला करते थे कि अभी मेट्रों आने को है, कुछ बहुत पुल बनेंगे। डाबड़ी, एयरपोर्ट , विकास पूरी को जोड़ा जाएगा। साध नगर होते एक सीधा रास्ता जुड़ेगा। ये एशिया का सबसे  बड़ा उप-नगर है। स्पोर्ट काम्प्लेक्स और न जाने क्या क्या होगा। पालम फाटक पर फंसें सभी द्वारका वासी दुआ करते थे कि कब पुल बनेगा और हम सब घर जा सकेंगे। मैं तो बस वाला था, अभी भी हूँ, 3 से 4 घंटे भी कई बार फंसा। साउथ कैम्पस पुस्तकालय  में दिमाग घिसने जाने में घंटों फाटक पर लटके रहो और सरकार से लेकर सबको कोसते राहों। उस वक्त ठेला और BMW एक साथ फाटक पर फंसें किस्मत को कोसते रहते थे। तभी खबर मिली की पालम पर फ्लाई ओवर ब्रिज बनेगा ,तो सभी फंसने वाले उस शुभ दिन का इंतजार करने लगे।लेकिन जिन्होंने पालम कॉलोनी आदि में कभी जमीन ली थी और जो कुछ पैसा पानी रहा था,  प्राइम लोकेशन वाला प्लाट लिया होगा ,उनके लिए ये विनाश ही लगता था। लेकिन पब्लिक इंट्रेस्ट के नाम पर सब कुछ हो सकता है, खुद को लाभ हो ठीक,  नुकसान हो तो गलत ।  खेर,  द्वारका के लोगों के लिए वरदान सिद्ध हुआ। 
 मेट्रों ने सही अर्थों में द्वारका में लोगों को आकर्षित किया था। मेट्रो के साथ ही द्वारका लाइम लाइट में आ गया। 
अभी भी द्वारका के बड़े बड़े ग्रुप ,संस्थाएं द्वारका से निकासी की कितनी ही योजनाओं के लिए डी डी ए के आला अधिकारियों से मिलते हुए, फ़ोटो शेयर करते है। 
बात पालम फ्लाई ओवर की हो रही थी। कॉलोनी के बीच से निकला और को लोग बिल्कुल सटे हुए रहते है, उनके जीवन में शोर और न रुकने वाला शोर स्थाई हो गया है ।कभी किसी छोटे से रेलवे स्टेशन की रेलवे कॉलोनी में बाहर सो कर इसका आनंद लो। ट्रैन सरपट निकल जाती है, लेकिन जो पहली बार सोते है, उन्हें लगता है कि ट्रैन ऊपर तो नही आ रही। 1995 में महारष्ट्र के किसी छोटे से स्टेशन की कॉलोनी में बाहर सो कर मैंने ये अनुभव लिया था । लेकिन जो रहते है, उनको आदत पड़ जाती है।
विकास की आधुनिक अवधारणा एक का विकास और दूसरे के विनाश से ही सम्भव है।नांगल के पुल से नांगल की सारी कॉलोनी दिन रात के शोर में रम गए होंगे ,शायद। अब दूसरा उपाए भी क्या होगा? आजकल को लोग द्वारका एक्सप्रेसवे में रहते है, उनको भी सरकार और डीलर कहते रहते है कि बस थोड़ा सा रह गया ,फिर द्वारका से जुड़ जाएगा। 10 मिनट लगेंगे। ये हर प्रोजेक्ट की कहानी है। अब ये बात केवल चंडू खाने की ख़बर है कि सच, डाबड़ी नाले को कवर करने में जानबूझ कर देरी की गई, ताकि गुरुग्राम का तेजी से विकास हो। ऐसा बहुत बार होता है। एक समय था कि दिल्ली के गांव वाले डरते थे कि उनकी जमीन पर जे जे कॉलोनी न आ जाये। अभी पशुओं के शमशान घाट की चर्चा हो रही थी। द्वारका में आवाज उठी कि द्वारका में नही कहीं और ले जाओ। बामडोली गांव के पास की बात हुई ,तो वहां पर भी विरोध होना ही था। ये इसलिए होता है ,क्योंकि जनता से सरकार संवाद नही करती। सब गोल दूसरे के पाले में सरका दो, हम बच जाए। ये लालच और दूसरे की परवाह न करना , विकास की आधुनिक सोच का अभिन्न अंग है।
लेकिन जिन कॉलोनी में रसूखदार  लोग रहते है, वो अपने हिसाब से प्रोजेक्ट तैयार करवा लेते है। आप सभी बसंत गांव के आधे अधूरे पुल को झेल ही चुके होंगे। असल में वेस्ट एंड के रसूखदार  लोगों,  ने अपनी ओर पुल बनने ही नही दिया, जिससे एक मूर्खतापूर्ण प्रोजेक्ट बना और वर्षों सभी ने झेला। आई आई टी दिल्ली ने भी कई उपाए बताए ,लेकिन सब जनता के पैसों की बर्बादी ही थी। आई आई टी जैसे संस्थान बहुत बार जैसा सरकार चाहे अध्ययन कर लेते है। अभी फिर उस पुल को बनाना ही  पड़ा। जहाँ पर प्रभावित करनें वाले लोग रहते है, वहां पर मेट्रों जमीन के भीतर से गई। कभी कभी एक व्यक्ति ही पूरे प्रोजेक्ट को प्रभावित कर देता है।
अक्सर मैंने देखा कि प्रोटेस्ट करने में ये ख्याल रखा जाता है कि माइक किसके हाथ में रहेगा। सीधी बात है कि कौन उस दिन का नेता  होगा। मुझे याद है, एक वर्षपूर्व   गुरुग्राम में अंडरपास को लेकर प्रोटेस्ट था। मुझे भी कुछ मित्र  वाले ले गए। काफी लोग थे, नारे लग रहे थे। मेरे भीतर भी चिपको का नारा कुलांचे भरने लगा। सुंदरलाल बहुगुणा जी एवं चंडी प्रसाद भट्ट जी ने पेड़ बचाने के लिए इस नारे का शंखनाद पैदल चल के वर्षों तक किया ,जिसका परिणाम वन अधिनियम और न जाने कितने कानून और एक अलग से पर्यावरण विभाग और बाद में मंत्रालय की स्थापना हुई। स्वर्गीय एन डी जुयाल ,जिनकी 93 वें वर्ष 18 मार्च  को ,उनके ट्रस्ट  "द हिमालयन ट्रस्ट"  की स्थापना के दिन हुई। उन्होंने ही पर्यावरण विभाग की स्थापना की , जुयाल जी IMF ,भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन , के अध्य्क्ष और त्रिशुल   चोटी पर पहले भारतीय पर्वतारोहण दल की अगुवाई भी की। उनके भीतर चिपको और टेहरी बांध आंदोलन से हिमालय संरक्षण की बात स्थापित हो गई। इन आंदोलनों में शामिल होने वाले लोग विकास और विनाश की अवधारणा के मर्म को समझते थे। बहुत बार प्रोटेस्ट बहुत कुछ न  समझे ही होता है। बस अधिक लोग चाहिए।
इसलिए प्रोटेस्ट करने से पहले गहन अध्ययन और उसका विकल्प क्या है, ये जानना ,जरूरी और पहली शर्त है।
बात गुरुग्राम के प्रोटेस्ट की है।चिपको का नारा दिल से निकलता है। मीडिया की निगह तो जानी ही थी।  उन्होंने अधिक जगह दे दी तक  कुछ लोग मीडिया में कवरेज कम होने पर व्याकुल हो उठते है। शायद वो प्रोटेस्ट नारों में उलझ कर रह गया। 
जहां तक सरकारों का संबंध है, अभी भी गुप  चुप ही सब काम करती है।किसी प्रोजेक्ट की चर्चा अगर वहां पर रहने वालों से कर ली जाए और उनसे भी फीड बैक लिया जाए तो कितनी बातें साफ हो जाये ।  हालांकि कुछ लोग अपने स्वार्थ ,नाम और कितनी बार लाभ के लिए भी प्रोटेस्ट आदि का सहारा ले लेते है। इसलिए प्रोटेस्ट के लिए एक सतत सिलसिला चलना जरूरी है। 
किसी परियोजना का विरोध क्यों किया जाए ,इसका एक तुलनात्मक अध्ययन हो और संभव हो तो एक विकल्प भी दिया जाए तो बेहतर हो। सरकार को प्रोजेक्ट करना है । जो विरोध करते है, वो भी बहुत बार जिद कर देते है। दोनों का विरोध कितनी बार नाक का विषय बन जाता है। द्वारका में ही भारत वंदना पार्क को सरकार प्लाट कहती है। कुछ लोग जंगल कहते है। सरकार इसका लाभ के लिए उपयोग करना चाहती है, कुछ लोग कहते है,इसको पड़े रहने दो। दोनों किसी  भी बिंन्दू पर एक साथ नही आ सकते। 
सरकार ने DPR में लिखा है कि यहां पर सैंकड़ों गाड़ियों की पार्किंग होगी ,इसका अर्थ है कि भीड़ बढ़ेगी। इस पर चर्चा होनी चाहिए। सरकार और लोगों के बीच कोई बिंन्दू साफ नही हो पाते। फिर प्रोटेस्ट लगातार नही हो सकते। लेकिन इन पर गहन अध्ययन करके ही किसी बिंन्दू पर विस्तार से विरोध होना चाहिए। इसका पता ही नही चलता। अचानक कॉल होती है, कल सुबह किसी पॉइंट पर आना है। किसलिए , विरोध के लिए। अक्सर प्रोजेक्ट आरम्भ होने के साथ ही विरोध होने से सरकार उलझा देती है। 
दुनियां भर के लोग नजफगढ़ झील में आने वाले , विदेशी मूल के पक्षी देखने जाते है। उन सब का कहना है कि इस झील को सरकार वेटलैंड बना दें। लेकिन ताज्जुब है,उसके बगल में रह रहे गांव वाले इस झील में गुरुग्राम से निकलने वाले सीवर के पानी को करीब 20 वर्षों से झेल रहे है। पानी गांव की जमीन पर इकट्ठा रहता है। ये कभी साबी और साहिबी नदी थी। ये एक बड़ा गेप है, जिसका बिल्डर लॉबी लाभ उठा लेती है। जो प्रभावित होगा , उसको लाभ समझ आता है,  भले भविष्य के लिए विनाशकारी ही क्यों न हों। 
हम कोशिश करते है कि एक हमारे यहाँ से प्रोजेक्ट हेट और कहीं ओर ले जाया जाए। कहाँ पर ले जाया जाए ,इसका भी खाका हो तो प्रोटेस्ट में वजन रहता है।  
सरकार को हर बिंन्दू पर चर्चा के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रोजेक्ट की सभी डिटेल ऑनलाइन डाल देनी चाहिए। प्रभावित लोगों से लंबा संवाद करना चाहिए। प्रोजेक्ट में पेड़ आदि को कैसे बचाया जा सकें, इस पर लंबी चर्चा की जा सकती है। वर्षो पहले भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के अतिरिक्त भूमि अधिग्रण पर कोई नीति नही थी। उस समय कितने ही लोगों ने सरकार को सुझाव दिए। मुझे भी अवसर मिला और बहुत से सुझाव के साथ एक बिंदु था कि प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले ही कई गुणा अधिक पेड़ लगने चाहिए। पेड़ लगने के बाद ही प्रोजेक्ट शुरू हो। लेकिन आज भी एक साथ ही सब कुछ शुरू होता है। 
अंत में द्वारका उप नगर एक योजनाबद्ध तरीक़े से बनाया गया है। सरकार को चाहिए कि कोई भी प्रोजेक्ट जो भीड़ बढ़ाये , हवा दूषित करें, ध्वनि प्रदूषण बढ़ाये, पानी की किल्लत करें ,नही लाना चाहिए। मैँ तक कहता हूँ, दिल्ली में अभी किसी नए प्रोजेक्ट की जरूरत नही है। दिल्ली की carrying capacity (वहन क्षमता) करीब समाप्त हो चुकी है। लेकिन सेंट्रल विस्टा जैसे 20000 करोड़ के प्रोजेक्ट लगाना अभी उचित नही,लेकिन सरकार के तरकस में बहुत से तर्क वितर्क से लैस तीर होते है।जेब में नही दाने अम्मा चली भुनाने ,अब सरकार तो सरकार है। किस की सुनेगी। लेकिन ठोस आधार पर बात रखी जाए तो क़ुछ प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है। पर्यावरण संरक्षण, पेड़ बचाओ की समझ बहुत गहरी न होने पर बात को मजबूती से नही रखा जा सकता है।   लेकिन इन सब पॉइंट्स पर चर्चा हो और हो सकें तो जनता की टास्क फोर्स बने जो उपरोक्त बिंदु पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करें ताकि सरकार के सामने रखा जा सकें। लेकिन एक बात मैं जरूर कहूंगा  कि अनाधिकृत कब्जे और निर्माण रेसिडेंट्स की कमजोरी है। इसका लाभ सरकार उठा रहती है। श्री चंडी प्रसाद भट्ट जी ने द्वारका में ही कहा था कि आंदोलन अंर्तप्रेरित ,स्वस्फूर्त और शांतिपूर्ण ठोस अध्ययन के साथ ही किया जाए।द्वारका में बहुत जानकर और अनुभवी लोगों से उनके अनुभव का लाभ उठाया जाए। किसी प्रोजेक्ट का विरोध करें और कहें कि यहां पर नही ,दूसरी जगह ले जाया जाए ,ये भी बिना विकल्प और ठोस आधार के कहने से प्रोटेस्ट कमजोर पड़ता है। द्वारका के लिए एयरपोर्ट के कारण भी प्रदूषण होता है, इस पर भी हमको फ़ोकस करना ही चाहिए। मुझे याद है  कि श्री एस के मालिक और अखिलेश पांडेय ने इस बात को उठाया तो इनका ही विरोध होने लगा। लेकिन अभी इस बात को स्वीकार किया जा रहा है।  इस लिए सभी विकल्पों पर बिंदुबार चर्चा और गहन अध्ययन करना जरुरी है। जो भी ऊपर लिखा है,ये हम सभी जानते है। लेकिन फिर भी इन सब पर अगर गहन चर्चा कर ली जाए तो उचित ही हो और एक आधार द्वारकावासियों के लिए तैयार रहे, जिससे द्वारका को हमेशा ही संरक्षित किया सकें । द्वारका में भीड़, प्रदूषण बढ़ाने, जल संकट को गहराने वाले प्रोजेक्ट नही चाहिए, ये केवल कभी कभी प्रोटेस्ट करने के साथ एक वैकल्पिक दस्तावेज और प्रोजेक्ट की बारीक से बारीक जानकारी हाथ में रहे तो ही सफलता की थोड़ी उम्मीद है। इस बात से इंकार नही किया जा सकता है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,हिमाल 
9810610400
14.7.2020
ramesh_mumukshu@yahoo.com

Friday 10 July 2020

चिंतन करना होगा कि कैसे पनपते है,ये डॉन

चिंतन करना होगा कि कैसे पनपते है,ये डॉन
विकास दुबे जैसे लोग पनप कैसे जाते है?  
कौन है ,जो इनको शरण देते है? 
कैसे ये AK 47 रखते है ? 
इसको पकड़ने पुलिस आई तो ,पुलिस वालों ने ही दुबे को सूचित किया। 
जो पुलिस वाले मारे गए ,वो उनके ही सहकर्मियों द्वारा मारे गए। पुलिस कभी एनकाउंटर करने नही जाती, वो हो जाता है। 
इसके माध्यम से हम सभी को अपने आस पास ऐसे कौन से लोग है, जो पुलिस और किसी विभाग से नही डरता। किस नेता और बाहुबली का उसको संरक्षण होता है। 
बेहतर हो कि केस बने और कोर्ट  से सजा मिले। बहुत से ऐसे लोगों को विगत में भी सजा मिली है,जो रसूख वाले लोग रहे है।
ऐसे लोगों का पनपना कानून की कमजोरी ही होती है। ताकतवर आदमी कानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश करता है।
ऐसे लोग धीरे धीरे ताकतवर बनते चले जाते है। जब व्यवस्था तय करने लगे कि कौन डॉन बनेगा और कब उसका खत्मा होगा तो समझो व्यवस्था न्याय पूर्ण काम नही कर सकेगी। ऐसे लोगों से बहुत से राज खोले जा सकते है। लेकिन ,जो लोग 8 पुलिस कर्मी को मार दें और सीना ठोक कर सामने आ जाये। उसको कोई डर नही है। सम्भव है, उसको ट्रेप में लिया हो। लेकिन ऐसा विगत में भी होता रहा है। होना नही ,चाहिए ,लेकिन ऐसा कदम उठ जाता है,या हो जाता है। 
पुलिस और व्यवस्था ,नेता आदि को ऐसे बदमाशों को पनपने ही न दिया जाए। इस पर हम सब को गहन चिंतन करना ही होगा। हमारे आंखों के सामने जो लोग गैरकानूनी काम सीना ठोक कर लेते है। ऐसे लोग ही दुबे बनने लगते है। आजकल ट्रेंड चला है कि गैरकानूनी निर्माण आदि के ठेके के पैकेज में सभी विभागों को मैनेज करना भी शामिल है। मेरे इस आशय को सभी संमझ गए होंगे। ये ही लोग विभाग और नेता द्वारा संरक्षण प्राप्त करता करता ताकतवर बन जाता है। सभी दलों और विचार धारा के अलग अलग डॉन होते है। जिसका  अवसर मिले वो रास्ता साफ करता रहता है। अगर हम अपने चारों और नज़र दौड़ाए तो बहुत कुछ सामने आता जाएगा। बहुत से लोग ऐसे होते है, जिनको लोग डॉन कहते है, लेकिन उनकी शिकायत करने की किसी की हिम्मत नही होती क्योंकि विभाग वाले उनके पास आते जाते है। इसलिए विकास दुबे जैसों को पनपने ही नही देना चाहिए।
*नोट* एक बात तय है कि बिना किसी वरदहस्त और संरक्षण के बदमाश इतना बड़ा नही बन सकता।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल 
9810610400