अजब कहानी शहरों के विकास की
पहले पहले शहर धीमें धीमें बिना आहट बढ़ता है। खेत, खलियान, जलस्रोत, जोहड़, तालाब , झील निगलता है, उनकी गाड़ी सरपट दौड़े कोशिश करता है। एक बार शहर सुंदर हो गया ,तो उसको पर्यावरण की याद आने लगती है । अपने आस पास सब ठीक रहे ,जगत भले विनाश की ओर जाए। वो मैप देखता है और वहीं जाता है,जहां पर सिक्स लेन और चार लेन की सड़क सरपट एसयूवी को ले जाये और किसी बड़े मोटल में रेस्ट कर के आगे सरपट हो जाये। मेरे घर के पास नही , इसको दूसरे के घर ले जाओ।मुझे नही चाहिए पुल ,कारखाना मेरे घर के बाजू में लेकिन चाहिए किसी ओर के घर के बाहर कुछ भी हो। जिसकी चलती है, वो रास्ते बदल देता है। एक फार्म हाउस के लिए सरकारी सड़क बदल जाती है। समग्रता से सोचना हम छोड़ चुके है। लेकिन हम केवल अपने लिए ही सोचते है। हज़ारों गंगोत्री के रास्ते देवदार कटे ,कोई अंतर नही, हमारी गाड़ी सरपट दौड़नी चाहिए। देवदार 100 साल में बढ़ता है। पिलखन नही है, जो दूसरे दशक में ही विशालकाय हो जाता है। 21 किलोमीटर लंबे मानेसर तक लंबाई और 6 किलोमीटर चौड़ाई वाले कंक्रीट और ऊंची मंजिलों से भरपूर द्वारका एक्सप्रेस वे उस दिन देखा तो मुझे लगा ,ये जिन के दीपक की तरह कहाँ से अवतरित हो गया। खेत खलियान और न जाने कितने जल स्रोत स्वाहा हो गए ,इस विकास की यात्रा में, ताज्जुब है, किसी की उफ तक नही आई। जिन्होंने वहां पर फ्लैट लिए वो कहते आ रहे है कि जल्दी ही कनेक्टिविटी हो जाएगी। खेती की सदियों से पुरखों द्वारा तैयार की गई ,जमीन कांक्रीट में तब्दील हो गई।
ये सब महानगर की त्रासदी है, ये सच्चाई अथवा अनिवार्यतया ,ये कौन तय करेगा? कौन द्वारका आना चाहता था, मेट्रो बनी तो डीलर की भाषा में कनेक्टिविटी से रेट बढ़ गए। अब कहते है, द्वारका एक्सप्रेस वे की कनेक्टिविटी बनी तो फिर क्या है? पानी का एक बहुत विशाल और न ख़त्म होने वाला स्रोत नजफगढ़ झील है और हो सकता था, लेकिन विकास और अदूरदर्शिता से वो भी संकट में है। विकास की बेतरतीव रफ्तार ने साहिबी/साबी नदी को रेवाड़ी के मसानी बैराज तक ही सीमित कर दिया। अभी नजफगढ़ झील में सारा पानी विश्वप्रसिद्ध गुरुग्राम के सीवर का पानी आकर इकट्ठा होता है। हालांकि अभी झील में रिचार्ज भी होने लगा है। लेकिन किसी को कुछ लेना देना नही। विदेशी पक्षी यहाँ पर बहुत बड़ी तादाद में आते रहे। ये प्राकृतिक अवसाद , नेचुरल डिप्रेशन है। ये खादर का इलाका है। वर्षा में जलभराव होता है और धीमे धीमे वो चेनल के द्वारा यमुना नदी में जाता है, जिसको खोद कर गहरा और चौड़ा कर के नजफगढ़ नाला कहलाया है। जिसके अंदर वजीराबाद तक करीब 35 से ऊपर गंदे नाले गिरते है, जो यमुना नदी को दूषित करते है। लेकिन हम सब भूल गए। हम को केवल 4 बी एच के ,पेंटहाउस, डुप्लेक्स जैसे शब्द ही याद रहे गए। पानी कहाँ से आयेगा, कोई परवाह नही। गुरुग्राम के लगभग सभी प्राकृतिक स्रोत खत्म हो चुके है। यमुना और गंगा के पानी पर निगाहें है। जबकि हिमालय के 285 ब्लॉक पानी की कमी को झेल रहे है। जब प्राकृतिक स्रोत पर संकट आता है ,तो नदी में पानी कैसे बढ सकेगा। लेकिन इतना कौन सोचे। अपना घर बचे दूसरा जाता है, तो हमें क्या लेना देना?
कब आएगी ये आवाज की हमें नही चाहिए हिमालय में कोई और बड़ा बांध, नही चाहिए कोई बड़ी माइंस, नही चाहिए बड़े कारखाने और एयरपोर्ट ,नही फोड़ना है, पर्वत के सीने को, नही घेरना है, सागर तट, नही चाहिए मुझे , उच्च हिमालय पर पर्यटन और नही चाहिए मुझे सारे संसाधन मेरे घर पर। विकास हो प्राकृतिक संवर्धन के साथ और सतत विकास ही एक मात्र उद्देश्य हो।मेरा घर , मोहल्ला, शहर भी बचे और दूसरे की भी हम सोचे ,ये माइंड सेट होना है। समग्रता से चिंतन करना है।द्वारका के विकास का असर कहाँ पर होगा। हम पानी किस नदी से लेंगे, उस नदी के उदगम से सागर तक जाने के क्या हाल है? नदी के किनारों पर कब्जे तो नही, सागर के किनारों को हम घेर तो नही रहे।उच्च हिमालय को हम छेड़ तो नही रहे,जहां पर सिटी मारने से ही पत्थर भरभरा के गिरने लगते है।
कही और विकास को देख हम खुश होते है, लेकिन मेरे घर के पास कुछ हुआ तो मैं दुःखी हो उठता हूँ। ये होलिस्टिक सोच नही है। हम तो जड़ चेतन,सूक्ष्म अति सूक्ष्म की भी कामना करते है। समस्त पृथ्वी एवं ब्रह्मांड की चिंता और स्तुति करते है ,तो हम संकुचित क्यों सोचे? नागरिक और सरकार को इस संकुचित सोच से उभरना है। किसी भी विकास परियोजना को जनता के सामने रखे और खुलके चर्चा हो ,तो प्रोटेस्ट की जरूरत ही न हो। विकास के साथ प्राकृतिक स्रोत का संरक्षण ,संवर्धन पहली शर्त होनी चाहिए। कूड़े का निस्तारण कैसे होगा। दूषित जल का प्रबंध कैसे होगा। जल का अनुकूलतम एवं अधिकतम उपयोग कैसे होगा। ऐसी सोच के बिना समग्र एवं सतत ,सस्टेनेबल ,टिकाऊ विकास संभव ही नही है। अभी ई आई ए EIA 2020 , Environment Impact Assessment Rule 2020 ,जैसे का तैसा लागू हुआ तो शिकायत भी नही हो सकेगी, ये भी हम सब को सोचना ही होगा । एक बात याद रखें कि कोई भी परियोजना पुब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर बनती है। जबकि पब्लिक ने तो नही बोला और न ही पब्लिक से पूछा। इसपर हम सब को आगे मिलकर काम करना है। मुझे पुल नही चाहिए, सड़क नही चाहिये , दूसरी ओर ले जाओ, मुझे बख्सों ,ये सोच अधूरी है। जहां ले जाओ, उसके बारें में भी सोचों की वहां पर क्या होगा? लेकिन मेरी बला से कहीं भी जाए।
कोई ही प्रोटेस्ट हो ,जो पर्यावरण के संरक्षण के लिए हो उसका स्वागत तो होना ही चाहिए ,लेकिन हमारा दृष्टिकोण समग्र और सतत विकास की अवधारणा पर टिका हुआ हो।
सरकार ,ठेकेदार और विकास के पुरोधा इसी हमारी संकुचित सोच का लाभ उठाते है। हमें विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दे दें है। जब तक हम छोटा सोचेंगे ,उतना ही हम को इग्नोर किया जाएगा। मेरे घर के पास नही, मेरे घर से दूर ले जाओ क्योंकि आखिर ये मेरा ही है, लेकिन मुझे शांति चाहिए, सफाई चाहिए और चाहिए कि ये सब विकास कहीं और करों ,मेरे घर पर नही, भले वहां के लोगों के साथ कुछ भी करों।
चले जाओ ,मुझे अपना पेड़ बचाना है,भले दूसरों के जंगल साफ हो जाए। बस मैं बचूं और मुझे सभी ओर सरपट दौड़ने वाली सड़क चाहिए, पुल चाहिए और चाहिए ऊंचे पर्वतों पर रहने के लिए आराम गाह । सरकार पहले सपना दिखाती है, सब सपने में मग्न हो जाते है।।जब तक सपना किसी और के विनाश का होता है, तो कोई एतराज नही लेकिन जब गाज अपने सिर पर गिरने लगती है तो बरबस सब कुछ याद आने लगता है । बस मैं ही बचूं, मेरा पेड़, मेरा गांव, मेरा शहर, मेरी शांति , ये सब चलता है। बस मैं ही बचूं।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
20.8.2020