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Saturday 29 August 2020

श्री एंटो अल्फोन्स : सह्रदय डीसीपी

श्री एंटो अल्फोन्स : सह्रदय डीसीपी 
संत तिरुवल्लुवर के महान ग्रंथ तिरुक्कुरल के वचन : 
Quote 2 : इंसान भीतर से जितना मजबूत होगा उतना ही उसका कद ऊंचा होगा
Quote  21 : नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के आभूषण होते हैं। शेष सब नाममात्र के भूषण हैं।
श्री एंटो अल्फोन्स जी पर ये दोनों वचन पूर्ण रूप से देखे जा सकते है। अक्सर देखा जाता है कि कुछ अधिकारी जनता के लिए  ठीक होते है और अपने विभाग के लिए उतने ठीक नही होते। हालांकि द्वारका को अभी तक अच्छे व्यवहार के ही डीसीपी मिले है। लेकिन एंटो जी जनता एवं अपने विभाग दोनों का ख्याल रखने वाले व्यक्ति है।सरल स्वभाव और हमेशा हंसता हुआ ,चेहरा उनकी सरलता को इंगित करता है। 
पिछले वर्ष मेरी इच्छा थी कि जन्माष्ठमी में भाग लेने वालों  बच्चों को उनके हाथों पुरस्कार दिलवाए जाएं , मैंने केवल एस एम एस ही किया। उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। ये उनकी सरलता और जनता के प्रति  उनका प्रेमल  स्वभाव ही है।
मैंने अभी करीब दो दिन पूर्व उनसे व्हाटसअप पर लिखा कि मैं आपके ऊपर एक छोटी सी स्टोरी लिखना चाह रहा हूँ ,एक छोटा सा प्रोफाइल भेज दीजियेगा। लेकिन उन्होंने तुरंत दो लाइन लिखकर भेजी की वो पुलिस के कल्याण और जनता की सेवा करते है। ये उनके व्यक्तित्व की सरलता ही थी। 
उनके  नेतृत्व और कार्यकाल में  पुलिस और पब्लिक  के बीच बहुत करीबी रिश्ता कायम हुआ। विभिन्न जनोपयोगी योजनाएं आरम्भ की जिससे जनता विशेषकर  बुजुर्ग स्त्री ,बच्चे लाभान्वित हुए। अपराध होने के बाद तुरंत गिरफ्तारी का सिलसिला द्वारका जिले की बड़ी उपलब्धि है,  मैं कह सकता हूँ।अभी 15 अगस्त 2020 को द्वारका जिला सामुदायिक प्रकोष्ठ में तैनात हेड कांस्टेबल श्री मनीष मधुकर को राष्ट्रपति ने कोरोना योद्धा का सम्मान दिया, ये श्री एंटो जी द्वारा अपने विभाग में ईमानदारी से काम करने वालों को प्रोत्साहन प्रदान का परिचायक ही है। उनके नेतृव में लॉक डाउन के दौरान द्वारका पुलिस का एक साथ पूरी तल्लीनता से जन सेवा एवं कानून लागू करवाने का अथक प्रयास प्रशंसनीय और द्वारका वासियों को गर्वान्वित करने का उपक्रम ही था। एक बात से उनकी सरलता एवं उनका लोगों के प्रति  प्रेम एक बात से दीख पड़ता है, श्री एंटो जी मेरे पॉकेट में मुझे कोरोना से बचने के लिए  दस्ताने देने के लिए आएं, ये उनकी सादगी और जनसरोकार की झलक ही है। किसी अधिकारी की उपलब्धियां बहुत हो सकती है, लेकिन जनता के साथ  व्यवहार एवं न्याय प्रदान करने का जाज्बा ही किसी अधिकारी को सबसे अलग कर देता है। इस रूप में श्री एंटो अल्फोन्स जी हमारी स्मृतियों में रहेंगे। उनके अच्छे और समृद्धिपूर्ण कैरियर एवं जीवन की कामना तो द्वारका के रेसिडेंट्स करेंगे ही। बेस्ट सुरक्षित सोसाइटी की स्क्रीइनिंग कमेटी के मेंबर होने के नाते उनके साथ काम करके उनके व्यक्तित्व में सरलता और समर्पण का भाव मैंने सर्वप्रथम अनुभव किया था। मेरा दावा है, श्री एंटो अल्फोन्स जी भी द्वारका वासियों को नही भूल सकेंगे । 
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष हिमाल 
सेक्टए 16 बी द्वारका
9810610400
29.8.2020

Friday 21 August 2020

अजब कहानी शहरों के विकास की

अजब कहानी शहरों के विकास की
पहले पहले शहर धीमें धीमें बिना आहट बढ़ता है। खेत, खलियान, जलस्रोत, जोहड़, तालाब , झील  निगलता है, उनकी गाड़ी सरपट दौड़े कोशिश करता है। एक बार शहर सुंदर हो गया ,तो उसको पर्यावरण की याद आने लगती है । अपने आस पास सब ठीक रहे ,जगत भले विनाश की ओर जाए। वो मैप देखता है और वहीं जाता है,जहां पर सिक्स लेन और चार लेन की सड़क सरपट एसयूवी को ले जाये और किसी बड़े मोटल में रेस्ट कर के आगे सरपट हो जाये। मेरे घर के पास नही , इसको दूसरे के घर ले जाओ।मुझे नही चाहिए पुल ,कारखाना मेरे घर के बाजू में लेकिन चाहिए किसी ओर के घर के बाहर कुछ भी हो। जिसकी चलती है, वो रास्ते बदल देता है। एक फार्म हाउस के लिए सरकारी सड़क बदल जाती है। समग्रता से सोचना हम छोड़ चुके है। लेकिन हम केवल अपने लिए ही सोचते है। हज़ारों गंगोत्री के रास्ते देवदार कटे ,कोई अंतर नही, हमारी गाड़ी सरपट दौड़नी चाहिए। देवदार 100 साल में बढ़ता है। पिलखन नही है, जो दूसरे दशक में ही विशालकाय हो जाता है।  21 किलोमीटर लंबे मानेसर तक लंबाई और 6 किलोमीटर चौड़ाई वाले कंक्रीट और ऊंची मंजिलों से भरपूर द्वारका एक्सप्रेस वे उस दिन देखा तो मुझे लगा ,ये जिन के दीपक की तरह कहाँ से अवतरित हो गया। खेत खलियान और न जाने कितने जल स्रोत स्वाहा हो गए ,इस विकास की यात्रा में, ताज्जुब है, किसी की उफ तक नही आई। जिन्होंने वहां पर फ्लैट लिए वो कहते आ रहे है कि जल्दी ही कनेक्टिविटी हो जाएगी। खेती की सदियों से पुरखों द्वारा तैयार की गई ,जमीन कांक्रीट में तब्दील हो गई। 
ये सब महानगर की त्रासदी है, ये सच्चाई अथवा अनिवार्यतया ,ये कौन तय करेगा? कौन द्वारका आना चाहता था, मेट्रो बनी तो डीलर की भाषा में कनेक्टिविटी से रेट बढ़ गए। अब कहते है, द्वारका एक्सप्रेस वे की कनेक्टिविटी बनी तो फिर क्या है?  पानी का एक बहुत विशाल और न ख़त्म होने वाला स्रोत नजफगढ़ झील है और हो सकता था, लेकिन विकास और अदूरदर्शिता से वो भी संकट में है। विकास की बेतरतीव रफ्तार ने साहिबी/साबी नदी को रेवाड़ी के मसानी बैराज तक ही सीमित कर दिया। अभी नजफगढ़ झील में सारा पानी विश्वप्रसिद्ध गुरुग्राम के सीवर का पानी आकर इकट्ठा होता है। हालांकि अभी झील में रिचार्ज भी होने लगा है। लेकिन किसी को कुछ लेना देना नही। विदेशी पक्षी यहाँ पर बहुत बड़ी तादाद में आते रहे। ये प्राकृतिक अवसाद , नेचुरल डिप्रेशन है। ये खादर का इलाका है। वर्षा में जलभराव होता है और धीमे धीमे वो चेनल के द्वारा यमुना  नदी में जाता है, जिसको खोद कर गहरा और चौड़ा कर के नजफगढ़ नाला कहलाया है। जिसके अंदर वजीराबाद तक करीब 35 से ऊपर गंदे नाले गिरते है, जो यमुना नदी को दूषित करते है।  लेकिन हम सब भूल गए। हम को केवल 4 बी एच के ,पेंटहाउस, डुप्लेक्स जैसे शब्द ही याद रहे गए। पानी कहाँ से आयेगा, कोई परवाह नही। गुरुग्राम के लगभग सभी प्राकृतिक स्रोत खत्म हो चुके है। यमुना और गंगा के पानी पर निगाहें है। जबकि हिमालय के 285 ब्लॉक पानी की कमी को झेल रहे है। जब प्राकृतिक स्रोत पर संकट आता है ,तो नदी में पानी कैसे बढ सकेगा। लेकिन इतना कौन सोचे। अपना घर बचे दूसरा जाता है, तो हमें क्या लेना देना?
 कब आएगी ये आवाज की हमें नही चाहिए हिमालय में कोई और बड़ा बांध, नही चाहिए कोई बड़ी माइंस, नही चाहिए बड़े कारखाने और एयरपोर्ट ,नही फोड़ना है, पर्वत के सीने को, नही घेरना है, सागर तट, नही चाहिए मुझे , उच्च हिमालय पर पर्यटन और नही चाहिए मुझे सारे संसाधन मेरे घर पर। विकास हो प्राकृतिक संवर्धन के साथ और सतत विकास ही एक मात्र उद्देश्य हो।मेरा घर , मोहल्ला, शहर भी बचे और दूसरे की भी हम सोचे ,ये माइंड सेट होना है। समग्रता से चिंतन करना है।द्वारका के विकास का असर कहाँ पर होगा। हम पानी किस नदी से लेंगे, उस नदी के उदगम से सागर तक जाने के क्या हाल है? नदी के किनारों पर कब्जे तो नही, सागर के किनारों को हम घेर तो नही रहे।उच्च हिमालय को हम छेड़ तो नही रहे,जहां पर सिटी मारने से ही पत्थर भरभरा के गिरने लगते है। 
कही और विकास को  देख हम खुश होते है, लेकिन मेरे घर के पास कुछ हुआ तो मैं दुःखी हो उठता हूँ। ये होलिस्टिक सोच नही है। हम तो जड़ चेतन,सूक्ष्म अति सूक्ष्म की भी कामना करते है। समस्त पृथ्वी एवं ब्रह्मांड की चिंता और स्तुति करते है ,तो हम संकुचित क्यों सोचे? नागरिक और सरकार को इस संकुचित सोच से  उभरना है। किसी भी विकास परियोजना को जनता के सामने रखे और खुलके चर्चा हो ,तो प्रोटेस्ट की जरूरत ही न हो।  विकास के साथ प्राकृतिक स्रोत का संरक्षण ,संवर्धन पहली शर्त होनी चाहिए। कूड़े का निस्तारण कैसे होगा। दूषित जल का प्रबंध कैसे होगा। जल का अनुकूलतम एवं अधिकतम उपयोग कैसे होगा। ऐसी सोच के बिना समग्र एवं सतत ,सस्टेनेबल ,टिकाऊ विकास संभव ही नही है। अभी ई आई ए EIA 2020 ,  Environment Impact Assessment Rule 2020  ,जैसे का तैसा लागू हुआ तो शिकायत भी नही हो सकेगी, ये भी हम सब को सोचना ही होगा । एक बात याद रखें कि कोई भी परियोजना पुब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर बनती है। जबकि पब्लिक ने तो नही बोला और न ही पब्लिक से पूछा। इसपर हम सब को आगे मिलकर काम करना है। मुझे पुल नही चाहिए, सड़क नही चाहिये , दूसरी ओर ले जाओ, मुझे बख्सों ,ये सोच अधूरी है। जहां ले जाओ, उसके बारें में भी सोचों की वहां पर क्या होगा? लेकिन मेरी बला से कहीं भी जाए। 
कोई  ही प्रोटेस्ट हो ,जो पर्यावरण के संरक्षण के लिए हो उसका स्वागत तो होना ही चाहिए ,लेकिन हमारा  दृष्टिकोण समग्र और सतत विकास की अवधारणा पर टिका हुआ हो। 
 सरकार ,ठेकेदार और विकास के पुरोधा इसी हमारी संकुचित सोच का लाभ उठाते है। हमें विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दे दें है। जब तक हम छोटा सोचेंगे ,उतना ही हम को इग्नोर किया जाएगा। मेरे घर के पास नही, मेरे घर से दूर ले जाओ क्योंकि आखिर ये मेरा ही है, लेकिन मुझे शांति चाहिए, सफाई चाहिए और चाहिए कि ये सब विकास कहीं और करों ,मेरे घर पर नही, भले वहां के लोगों के साथ कुछ भी करों।
चले जाओ ,मुझे अपना पेड़  बचाना है,भले दूसरों के जंगल साफ हो जाए। बस मैं बचूं और मुझे सभी ओर सरपट दौड़ने वाली  सड़क चाहिए, पुल चाहिए और चाहिए  ऊंचे पर्वतों पर रहने के लिए आराम गाह । सरकार पहले सपना दिखाती है, सब सपने में मग्न हो जाते है।।जब तक सपना किसी और के विनाश का होता है, तो कोई एतराज नही लेकिन जब गाज अपने सिर पर गिरने लगती है तो बरबस सब कुछ याद आने लगता है । बस मैं ही बचूं, मेरा पेड़, मेरा गांव, मेरा शहर, मेरी शांति , ये सब चलता है। बस मैं ही बचूं।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष, हिमाल 
20.8.2020

Thursday 20 August 2020

वर्षा के आने पर कभी खुश होते थे ,अब होते दुःखी: विकास की यात्रा की एक बानगी देखें

वर्षा के आने पर कभी खुश होते थे ,अब होते दुःखी: विकास की यात्रा की एक बानगी देखें
करीब 70 के दशक में वर्षा आते है ,निकल पड़ते थे ,हम जैसे सभी बच्चे, न पैरों में चप्पल न जूते , जिसको आज पानी का भरना कहते है, उस जल भराव में बच्चे छपाक से कूद फांद करते थे, खुली बरसाती नालियां होती थी। हां,  एक बात है, उन नालियों में बह जाने का भय जरूर था।।कभी कभी उन तेज बहती बरसाती नालियों में चप्पल फेंक कर उसको दूसरी जगह पकड़ने का एक खेल बच्चों में प्रचलित था।। कागज की नौकाओं के बच्चे कारीगर ही होते थे। नाव बनाकर पानी में डाल कर जब वो हिचकोले खाती चलती थी,उसका अलग आनंद होता था।। घटों हम बच्चों का वाटर स्पोर्ट चलता था। मोती बाग ,नई दिल्ली 21  एन डी एम सी प्राइमरी स्कूल के सामने एक छोटा सा गोल चक्कर ,जिसे आज राउंड अबाउट कहते है, उसके ठीक सामने पानी इकठ्ठा हो कर बहता था।वर्षा हुई और सभी बच्चे ,निकल गए ,फटी पुरानी  निक्कर पहन , हाफ पैर और शार्ट का पुराना नाम, बस फिर क्या था ,कूद फांद, छपाक और चिल्लम चिल्ली , उठा पटक , हाथों से छपाक छपाक का आनंद कुछ और ही था। ये रोड पर ही होता था। बच्चों को मालूम था कि घर जा कर मां ने पिटाई करनी है। उस वक्त थप्पड़, चिकोटी, डंडे से पिटाई आम बात थी। घर वाले स्कूल के मास्टर को बोलते थे ,मास्टर जी अगर ये न  पढ़े तो  थींस देना , सूत देना , रुई की धुनाई जैसे बच्चे ठुकते थे, लेकिन किसे इसकी परवाह होती थी। 
मज़े की बात अब बचपन की याद आती है, वो सारे खुले नालों में केवल बरसात का पानी बहता था। उस समय पॉलिथीन भी नही था, उसको लोकल भाषा में मोमजामा कहते थे। वो मोड़ा बनाने में काम आता था, मोड़ा जो एक तरह का रेन कोट । अगर खुदा न खस्ता पिताजी का बेंत की डंडी वाला बड़ा छाता हाथ लग गया ,तो कितने ही छोटे मोटे हम एक साथ कंधें पर हाथ टिका कर  घूमते थे, उसका भी आनंद अलग था। हवा में वो छाते खुलकर उल्टे हो जाते थे, उस वक्त सांस अटक जाती थी। बाप की ठुकाई जो खानी पड़ती थी। बच्चों का एक और शौक था, नालियों के अगल बगल आम के पौधें उखाड़ कर उसकी उसकी घुठली निकाल कर ,थोडा घिसकर पी पी करते डोलते रहो। उसको  पप्पियाँ कहते थे। ये कुछ शब्द केवल चलन में होते थे। 
पानी में तेरते केंचुए पकड़ना भी एक खेल ही था।आज वर्मी कंपोस्ट की चर्चा करते है। इसके इलावा एक रेंगने वाला भूरा और सफेद धारी वाला जीव भी हमारे खेल का हिस्सा होता था। बरसात के बाद मिट्टी की ऊपर की चिकनी परत को हम बच्चे मलाई कहते थे। 
पैसा जेब में होता नही था। बरसात के मौसम में जामुन खाने के लिए कुछ पेड़ थे, मजाल है, नीचे कोई जामुन गिरे और वो बच्चों के हाथ से बच जाए, आजकल जामुन के पेड़ को इसलिए नही उगाते क्योंकि वो गंदगी करता है। फल के गिरने को गंदगी तक हमारा विकास आ गया है। पहले बच्चे पत्थर से जामुन गिराकर खाते थे। उस वक्त कार तो दूर ,स्कूटर भी एक आध के पास ही होता था। केवल सरकारी मकान के शीशे टूट जाते थे, जो लग जाते थे। आम का चूसना उस वक्त के हम बच्चें ही जानते थे, जब तक आम का आखिरी रेसा रहता था, चूसते रहते थे। हम  बच्चे कड़की के बादशाह होते थे। कितने ही पत्ते और उनकी कोंपले खाते थे। आम, जामुन, नीम, घास भी, एक खरपतवार होती थी, उसके हरे काले फल होते थे,वो बहुत प्रिय थे। इमली के पत्ते, एक घास में उगता था, वो भी खट्टा होता था, लपेट लेते थे। नीम की निबोलियाँ तो बहुत प्रिय थी। उसी दौरान चाणक्य सिनेमा घर के पास एक अंडर पास बना था,वो बरसात में  भर गया, एक डी टी सी की बस फंस गई,ये अजूबा था ,उस समय का। यमुना में बाढ़ खतरे के निशान से ऊपर बह रही है,ये आम खबर होती थी। 1978 में ढांसा बांध टूटने से सब और पानी भर गया ,सब कुछ डूब गया था। उस समय स्कूलों में शरणार्थी आये हुए थे। हमारे लिए वो दिन आनंद के दिन थे, क्योंकि छुट्टी होती थी। लेकिन अब पता चला कि वो साहिबी नदी का पानी था, जो नजफगढ़ झील बनाता था ,अब केवल सीवर का पानी ही रह गया। 
घरों में पकोड़े, फुलवड़ियाँ, पापड़ जैसी खाने की चीज़ें बनती थी। आलू के चिप्स उनपर लाल मिर्च की खुशबू और स्वाद से लिखते लिखते मुहँ में पानी आ गया। जुखाम हो जाये तो चांटा रसीद और तुलसी के पत्तों की चाय या काढ़ा मिलता था।ये समय आम के अचार का भी होता था, बच्चे अचार खाने के जुगाड़ खोजते रहते थे। उस  वक्त चीनी मिट्टी के बर्तन जिसको ,मर्तबान कहते थे, अचार डाला जाता था। घर पर ही बड़े बड़े मर्तबान में आचार डालता था। उस अचार की खुश्बू आज भी स्मृति में जीवित है।  बरसात में बच्चों के फोड़े और फुंसी आम बात थी। उनपर लाल और नीली दवा अक्सर बच्चों के लगी रहती थी। चौलाई, गोकुरु का साग बच्चे तोड़ते थे। 
बरसात में स्कूल की छुट्टी भी हो जाती थी। हमें याद है,पांचवी से छटी में गए तो ,उस वक्त स्कूल की नई बिल्डिंग का काम हो रहा था।  हम बच्चे पैरों में कीचड़ ला कर जूतों से फर्स पर लगा देते थे तो कितनी बार छुट्टी हो जाती थी। छोटे बच्चे कितने उस्ताद होते है, या अब सोच कर महसूस होता है।जिन दिनों बारिस की झड़ लगती थी, रात दिन हल्की ,तेज बारिश होती रहती थी। कई बार सात दिन तक झड़ लगती थी। उस समय का आनंद क्या होता था। हर घर में तोरी की बेल होती थी। उसके पीले फूल और उनपर मंडराते भवरें और एक लाल और काली धारी वाला कीट बच्चों का प्रिय होता था। उससे भी खेलते थे। 
रात को मेडक की टर्र टर्र आज भी याद है। उसको हम डडू बोलते थे, शायद पंजाबी शब्द होगा। बरसात का आना एक आनंद देता था। पानी का नालियों में बहना बच्चों के रोमांचकारी खेल होते थे। ये सब खेल प्राइमरी स्कूल तक के लिख रहा हूँ।कितने छोटे छोटे बच्चे घंटों पानी में खेलते थे।हमारा  वो ही वाटर स्पोर्ट ही होता था। किस्ती बनाना और चलाना हमारी नन्ही दुनियाँ के खेल थे। इंद्रधनुष का भी इंतजार होता था। टटीरिहि की टी टी टी टियूँ  सुनने का  इंतजार रहता था। मेडक की टर्र टर्र , मोर की आवाज, केंचुए का पानी में बहना, पानी का बहना ,उसकी किस्ती की रेस अब न जाने कितनी आगे निकल गई। बड़े शहर और महानगर गंदगी के साम्राज्य बन चले है। आज पानी का भराव डराता है, पानी में पैर टच न हो जाये। बरसात में नहाने तो कहीं दूर निकल गया। किस्ती  मोबाइल के खेल में तब्दील हो गई।लेकिन बच्चों में आज भी बरसात को देख उमंग होती है। नैसर्गिक उमंग , आज भी  उनका भी मन होता है। लेकिन बीमारी और गंदगी के कारण खेल नही पाते । पढ़ाई का बोझ भी कारण ही है। लेकिन बच्चों को बरसात में भीगना जरूरी है। छोड़ दो कुछ समय के लिए , उसके आनंद को मत रोको। अपनी नज़र के सामने ही रखो भले। खुद भी भीग लो और प्रकृति का आनंद खुद भी लो   और बच्चों को भी लेने दो। ये ही जीवन के मूल आनंद है। इनको जीवन से दूर मत करो , इनको अपने आगोस में समेट लो और डूब जाओ कुछ पलों के लिए ,ये आनंद से भर देगा , कुछ लम्हों को,  ये तय है।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष ,हिमाल
9810610400
20.8.2020

Sunday 16 August 2020

क्या मानव प्रकृति के सामने बौना है, क्षुद्र हैं और है , अशक्त ?

क्या मानव प्रकृति के सामने बौना है, क्षुद्र है और है , अशक्त ?
कोरोना तुम काल बनके आये 
किस मकसद से ये कौन जाने 
तितर  बितर कर दिया तूने आदमी का दम्भ और न झुकने का झूठा संसार 
भरी दुनियां में अपनों के चार कंधें भी नही मिल पा रहे है, विडंबना तो देखों सेवा से वंचित आदमी मृत्यु  शैय्या पर कितने अपनो से दूर जाता अनुभव करता होगा।  सब कुछ जो उसने अपने से बुनी दुनियां हथेली से फिसलती जा रही है। सब कुछ लॉक डाउन में तब्दील होता गया। कितना कुछ ठहर सा गया है। लेकिन आदमी के भीतर एक जिद है ,जो उसको आगे और पीछे ले जाती है। उसके बनाये सर्वनाश करने वाले सारे हथियार कितने लाचार है ,कोरोना के सामने ,जो अदृश्य सा सबको लील रहा है। एक बार पुनः प्रकृति से मानव का द्वंद आरम्भ हुआ है। एक बात तय हो गई कि मानव प्रकृति के सामने कितना बौना है, क्षुद्र और है , अशक्त । लेकिन क्या ये सच है कि केवल एक बात?
लेकिन वो इसमें भी उभर जाएगा और समझेगा की वो पुनः जीत गया। फिर उसकी यात्रा पूर्ववत आरम्भ होगी। फिर वो पर्यावरण को भूल जाएगा ,भूल जाएगा कि कोरोना के डर से वो दुबक गया था। फिर होगा ,पहले की तरह जीतने हराने का सिलसिला और भूल जाएगा ,की वो लॉक डाउन में दार्शनिक और चिंतक बन गया था।
उसने एक क्षण में नदियों, आकाश ,जल थल को स्वयं साफ होते हुए देखा और चमत्कृत हुआ था। वन्य प्राणियों को अपने प्राकृतिक  रास्तों से गुजरते हुए देखा था ,जो वो भूल चुका था। लेकिन जो दुनियां हम बुन चुके है, उसमें से कैसे निकले और जमीन के एक एक कतरे को कैसे प्रेम करें ? ये हम  भूल चुके है। जीतना ही हमें याद है। जीतने के लिए ये तय है ,किसी को हराना ही होगा। ये जीतने और हराने  के सिलसिले से ही धरती को हम भूल जाते है, कि हम उसके ऊपर निर्भर है और उस पर ही उल्टे लटके से लगते है ,अगर दूर आकाश से देखें तो। 
क्या लॉक डाउन आत्म मंथन था कि बस किसी वर्षा के दौरान  भीगने से बचने के लिए तनिक किसी पहाड़ से निकली चट्टान के नीचे खड़े हुए टाइम पास ? ये   तो सोचना ही होगा , ये तय है।
रमेश मुमुक्षु 
अध्यक्ष ,हिमाल 
9810610400
15.8.2020

Tuesday 11 August 2020

कृष्णजन्मष्टमी 2020 ऐसे भी मनाई जा सकती है।

कृष्णजन्मष्टमी 2020 ऐसे भी मनाई जा सकती है।
"सेस महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहिं निरन्तर गावैं
जाहि अनादि, अनन्त अखंड, अछेद, अभेद सुवेद बतावैं
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावैं " :रसखान द्वारा रचित काव्यपंक्ति श्री कृष्ण के होने का पूरा विवरण प्रस्तुत करती है। लेकिन इस बार कोरोना के कारण ,रास लीला, झूला, डीजे, टेंट, बच्चों के नृत्य और मंदिर में भीड़ न हो ऐसा ही हम सबको करना है। लेकिन कुछ अतिउत्साही होते है, जिन्हें केवल हांडी फोड़ जैसे कार्यक्रम करने ही है। उनसे भी आग्रह है कि कृष्ण लीला को घर बैठकर भी किया जा सकता है। सूरदास की काव्यपंक्तियों का आनंद ले:
मैया! मैं नहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सूरदास के पदों का आनंद ले ,उनके बारें में कहां जाता है कि वो सबसे महान कवि थे ।
"सूर सुर तुलसी शशि ।,उडगन केशव दास।
अबके कवि खद्योत सम ,जहँ तहँ करहिं प्रकाश ।।"
इस बार सोशल डिस्टेंस, मंदिर में भीड़ न हो, सुरिक्षत रहे और औरों को भी होने दें। हमें नही भूलना है कि कल 60000 कोरोना के केस आएं है। भले लोगों की मरने की संख्या कम है, लेकिन मर ही रहे है। ऐसे में बहुत हर्षोउल्लास न करके उन सभी जो कोरोना के कारण हम सब से दूर हो गए। उस सभी जो कोरोना की जंग में हम मृत्यु को प्राप्त हुए। इस पावन दिवस हम उन सब को भी याद करें। कान्हा को घर बैठकर कर भी याद किया जा सकता है। कभी किसी ने सपने में भी नही सोचा था कि स्कूल बंद होंगे, मेट्रो बंद हो सकती है, कोर्ट, रेल ,हवाई जहाज, सिनेमा हॉल और सभी मनोरंजन बन्द है। इसलिए गृह मंत्रालय के निर्देश का पालन करें।
इस बार मथुरा ,वृंदावन भी शांत है, जैसा माहौल हो ,उसके अनुसार ही व्यवहार करना , उचित होता है।
आओ सभी मिलकर कोरोना के विरुद्ध खड़े हो और शीघ्र ही सब सामान्य हो इसके लिए आगे बड़े।
गोपियों की तरह कान्हा को दूर से स्मरण  करें और पढ़े ऊधव गोपियाँ संवाद : 
"ऊधौ मन ना भये दस-बीस
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस ।"
राधे कॄष्ण राधे कृष्ण
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष हिमाल
9810610400
11.8.2020

Wednesday 5 August 2020

इसको ही राममय होना कहते है

                 
असीम शक्ति की पराकाष्ठा लेकिन क्रोध रहित विनय भाव से परिपूर्ण आज्ञाकारी एक क्षण बिना सोचे स्वीकार करने वाला विशालतम व्यक्त्तिव शत्रु को भी गले लगाने का अदम्य साहस जो शत्रु वध कर उसका भी तर्पण कर सकने की असीम शक्ति जीवनपर्यत्न संघर्ष माता पिता भाई बंधु भार्या से दूर वनवासी बन विनयपूर्ण परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए चक्रवर्ती सम्राट को क्षण में तजकर अंगवस्त्र तक त्यागकर एक नही दो नही 14 वर्ष वनवासी बनने जैसी अग्नि परीक्षा को सहर्ष स्वीकार कर पिता के वचन को शीश चरण पर रख तजना राजा हरिश्चन्द्र का का वंशज ही कर सकता है प्रजा की सुनने वाला जिसने एक अंतिम व्यक्ति की शंका के आधार पर सीता को भी अग्नि होम में समर्पित किया जो आज तक विमर्ष  का विषय है लेकिन उसके बाद कहाँ पर आनंद और रस से परिपूर्ण जीवन रहा अपनी ही संतान के संग अश्वमेघ युद्ध लड़ा लेकिन अडिग रहा ऐसा व्यक्तित्व जिसका कौन कर सकेगा अनुकरण और अनुसरण  पूरे जीवन भर  गांडीव धारण किया लेकिन  जिसने एक बार ही क्रोध किया केवल समुद्र की हठधर्मिता को तोड़ने को अपने सबसे बड़े शत्रु का वधकर उसके चरणों की ओर खड़े होने का साहस और आसीन प्रेमभाव जो दंभरहित हो जिसके विराट रूप को देखकर शत्रु को प्रतिशोध से परिपूर्ण होना चाहिए था लेकिन भवविहल हो तर्पण के लिए शीष झुका लेता था क्योंकि ये मात्र जीत के लिए युद्ध नही था सत्य के लिए युद्ध थे सदियों से प्रतीक्षा में शापितों का तर्पण जो करना था ऐसे एक मात्र जो अवतरित होते है नाना रूप में ऐसे श्री राम का आगमन हम उनके ऋणी क्या कर सकेंगे उनका स्वागत जल जंगल जमीन वायु पाताल मानवता आपसी प्रेम त्याग बड़ों का सम्मान रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाए पर वचन न जाई को क्या हम किंचित मात्र भी अंगीकार कर सकते है आज कितनी निर्भया न्याय को  तड़प रही है कितनी निर्भया को दिन रात प्रताड़ित किया जा रहा है रावण से बड़े दुष्ट आज मानव समाज में सम्मान पाते है सत्ता के लोलुपता से परिपूर्ण चक्रवर्ती राज को एक क्षण में तजने वाले राम को हम क्या स्वागत कर सकते है शत्रु के वध के बाद भी सम्मानपूर्ण रावण से उनके ज्ञान को नमन करने वाले राम जैसा व्यक्तित्व क्या हमारे भीतर अवस्थित है विद्यमान है कदापि नही लेकिन अब राम जैसा तो संभव नही लेकिन प्रेरित हो एक कदम तो उठाने की चेष्टा की जा सकें ऐसा प्रण लिया जाए अगर प्रण पर टिके रहने का साहस है तो वरना राम को  ह्रदय से स्मरण कर व्यक्तित्व में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगे जिसके बाद जल जंगल जमीन समेत मानवता के प्रति दृष्टि बदले का भाव  ही रामभक्ति का आरम्भ होगा तभी हम राम को दिल से बुला सकते है ताकि उनको लगे कि जो रामराज्य जो  वो छोड़ गए वो अभी भी अस्त्तिव में है श्री राम कहने से क्रोध नही श्री राम का भाव प्रकट होना चाहिए जो क्रोधरहित तेजोमय और विराट हो इसलिए राम होना तो असंभव है लेकिन राम की अतिसूक्ष्म छवि और छाया को अनुभूत करना भी व्यक्ति को राममय बना सकता है केवल दो पंक्ति ही राममय कर सकती है 
*होइ है वही जो राम रचि राखा को करे तरफ बढ़ाए साखा* 
इसको स्वीकारना सरल भी है और असंभव भी है तय हमें करना है क्योंकि मानव मन को स्वयं मानव ही जान सकता है कि भीतर क्या है अगर राम की कृपा रहे और राम की कृपा स्वयं को उसमें विलीन करने की यात्रा से ही आरम्भ होती है और ये यात्रा का कोई आदि अंत नही केवल उस क्षण की प्रतीक्षा ही एक मात्र विकल्प है विडंबना है कि प्रतीक्षा भी करनी नही है निर्लिप्त भाव से परिपूर्ण हो मात्र दर्शनाभिलाषी बन कर्तव्यपूर्ण करते हुए इसको ही राममय होना कहते है ।

(रमेश मुमुक्षु)
अध्यक्ष, हिमाल 
5.8.2020