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Friday 9 April 2021

स्मृतिशेष: प्रकृति के बीच चित्रों के संसार में


स्मृतिशेष: प्रकृति के बीच चित्रों के संसार में
1998 में घने जंगल के बीच लालटेन की रौशनी में पेंटिंग का अपना ही आनंद होता था। कभी कभार बाघ की दहाड़ सुनाई पड़ती थी। दिन में जंगल के बीच किसी घांस के मैदान में सोने का अपना आनंद रहता है। फक्कड़ है , लेकिन प्रकृति का खजाना हमेशा साथ रहा है, और रहेगा। जल , जंगल , नदी, हिमालय, घाटी, सब मेरे करीब रहे। हालाँकि ये जो कागज के नोटों के धनपति है, ये इनको लील लेना चाहते है। लेकिन फक्कड़ो की दीवार को भेदना इनके बुते की बात नहीं। हाँ , कोशिश जारी है। अरे कागज के धनवानों, कभी प्रकृति की गोद में रहो और भेड़ चराते, खेत जोतते लोगो के करीब रहो , तो तुम्हे अहसास होगा की तुम कितने निर्धन हो। पैसा कमाओ  और इन प्रकृति के उपहार को बिना छेड़े, फिर देखो धन और प्रकृति को मेल। दोनों जरुरी है। लेकिन साथ चल कर ही। 
अभी अचानक रात के सन्नाटे में एक बांज (oak) का पत्ता गिरा और सारा जंगल और उसकी निस्तब्धता क्षणिक टूट गई। फिर स्मृति कागज, रंग और ब्रश पर पहुच गई। खिड़की से बाहर बर्फ गिरने का सन्नाटा और भी गहरा गया है। ठण्ड हड्डियों को 
कपा रही है। छोटे से ट्रांज़िस्टर में मेरी पसंदीदा बीथोवन की 9th सिम्फपनी की धुन पुरे बदन में सिरहन पैदा कर हाथ को कागज पर रंगो के साथ कुछ उभार रही है। यकायक बदन टूट गया लगता है। सुबह 4 बज गए , मदहोशी में 98 छोटे चित्र   उकेरे जा चुके थे। बाहर अभी भी बर्फ का गिरना जारी है । अचानक ध्यान टुटा। 
क्या कोई लूट सकता है , ऐसा मज़ा मात्र कागज के नोटों से, नही ,हाँ , एक बार  प्रकृति के साथ घुल मिल जाओ तो खूब पैसा कमाओ और प्रकृति को अक्षुण्ण रखने का मन स्वयं ही हो जायेगा। लेकिन एक बार डूब लो दोस्तों।
रमेश मुमुक्षु
8 April 2016

Saturday 3 April 2021

काश गांधी को भुलाया नही गया होता


काश गांधी को भुलाया नही गया होता
काश गांधी को भुलाया नही गया होता
तो जल जंगल और जमीन के प्रश्न आज खड़े न होते
ग्राम स्वराज्य से पटे होते गांव
ग्रामीण उद्योग ग्रामीणों को पलायन से रोक लेते
लेकिन उनके ही अपनों ने उन्हें भुला दिया गया था
केवल नाम रह गया उनके काम कहीं काफूर हो गए
गांधी को मठों में बैठा दिया दशकों तक
ग्रामीण अंचल अपनी मिट्टी से भटक गया
गांव जहां से रोजगार पैदा होते है वो शहरों के स्लम में आने लगे
ग्रामीण कुटीर उद्योग भुला दिए गए
लेकिन गांधी को भुलाना संभव नही है
गांधी एक व्यक्ति का नाम नही अपितु एक परंपरा का वाहक है
परंपरा जो ग्रामीण मिट्टी , खेती, स्थानीय संसाधन से उपजी थी
जो गांव के खेत, खलियान, जल संसाधन के साथ चलनी थी
लेकिन धीमे धीमे भूलने लगे उस समग्रता को तेजी से आगे बढ़ने की दौड़ में चलना भी दूभर हो गया
आज पुनः गांधी याद आ ही जाते है
उनकी साउथ अफ्रीका से  चंपारण, दांडी मार्च जो उनको हमेशा कालजयी बनाये है
आज भी हम नही खोज पाए कोई  नए आयाम
क्योंकि हम भूल चुके थे गांधी के सीधे सरल मार्ग को
जो ग्राम स्वराज्य की ओर जाता है
ग्राम स्वराज्य ग्रामीण अंचल को समग्रता में देखता है
कृषि , वानिकी, बागवानी, जड़ी बूटी, साफ सफाई और मिलनसारी एक साथ समग्र यात्रा जो ग्रामीण को स्थानिक रोजगार की परंपरा से जोड़ें था
काश अगर नही भुला होता गांधी का अहसास और समग्रता जो सतत विकास की अवधारणा पर टिका था
उसमें जोश नही दिखता था क्योंकि वो सतत और टिकाऊ था
जिनको क्रांति की आदत पड़ी थी
उनके लिए गांधी ठहरा हुआ शांत और धीमी चाल सा लगता था
अहिंसा और सत्याग्रह की ताकत
और उसका निडर टिकाऊपन धैर्य प्रदान करता है
जो कभी गांधी के नाम में हरकत नही पाते थे
वो उसमें ऊष्मा खोज रहे है
उन्हें याद आने लगी चंपारण, दांडी और नमक का दर्शन जो अचूक और चिरस्थाई था
लेकिन आज सतत चाल और टिकाऊपन  की न रुकने वाली यात्रा का अहसास होने लगा है
समग्रता ही सत्य और ठोस है,जो चलती है, बिना रुके
धीमे धीमे बिना रुके
सतत और लगातार अनवरत
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष हिमाल
9810610400
3.4.2021

Thursday 1 April 2021

(चलो घूम आओ घड़ी दो घडी)

(चलो घूम आओ घड़ी दो घडी)

न वाद न विवाद 
न आपस में झगड़ा
न तू तू 
न मैं मैं
न इसकी 
न उसकी 
न लेना 
न देना
क्यों आपस में 
मुँह फेर रहे है
बचपन से खेले
सभी संगी साथी
गुस्से से त्योरी 
तनी हुई क्यों है
कभी सुना 
और पढ़ा था
मतभेद बढ़ाना 
सबसे आसान है
हमको भी लगता 
था 
ये सच नहीं है
आपस में 
विरोधी तो भिड़ते रहे है
पर अपनों में दीवारें 
खड़ी हो रही हैं
ये कैसा अजब और गजब 
हो रहा है
गुस्से में राजा गुस्से में
प्रजा
लोकतंत्र कहीं 
दुबक सा गया है
बोलना बुलाना 
बहलना बहलाना 
कृष्ण के किस्से राधा 
कहा अब सुना ही सकेगी
कविता तो होगी
भाव न होगा
न होगा प्रेम 
न होगा आँखों की 
झीलों में 
जाना 
न होगा  बिहारी की 
कविता का उत्सव 
आँखों के इशारे 
सुना है
गुनहा है
चलो दिलदार चलो 
चाँद के पार चलो
पर मौत की सजा होगी
श्रृंगार रस सुना है
 गैर कानूनी और देशद्रोह 
होगा
कामदेव छुप कर
डरा सा हुआ है
न अब उड़ेगी जुल्फें
किसी की
सुना है आँखों
में चश्मे लगेंगे
बिल्डिंग बनेंगी
सड़के बनेंगी
नदियों को जोड़ो 
भले ही उनको मोड़ों
अब कोई न गा सकेगा
वो शाम कुछ अज़ीब थी
न अब साजन उस पार
होंगे
न शाम ही ढलेगी
न हवाएं चलेगी मदमस्त मदमस्त
न होगा गर
इन्तजार किस का
तो पत्थर बनेगा 
कोमल सा दिल अब
जिसमे न होगी कल की
कोई आशा 
भला ऐसे दिल को 
कर सकेगा कोई कैद
मज़ाल है किसी की
उसको झुका दे
ये उलटी धारा न 
बहने अब देना
दिलों को 
जोड़ों 
न तोड़ों 
वो धागा 
रहीम की ही सुन लो
न तोड़ो वो धागा 
फिर कभी ये जुड़ ही न
सकेगा
टुटा हुआ दिल
एटम पे भारा
भय से परे क्या मरना 
क्या जीना
सबको मिलकर 
बनेगा  बगीचा
नवरस बिना 
क्या जीवन का मतलब
बच्चे भी होंगे 
जवानी भी होगी
बुढ़ापा भी होगा
भाषा भी होगी
मज़हब भी होंगे
साधु भी होंगे 
सन्यासी भी होंगे
होंगे ये सब 
जब सारे 
ही होंगे 
सारे न होंगे तो 
अकेला कहाँ होगा
वैविध्य है जीवन और
कुदरत है सब कुछ 
सब कुछ है कुदरत
फिर क्या है मसला 
फिर क्या बहस है
चलो घूम आये 
चलो टहल आये 
मसले तो आते जाते 
रहेंगे 
हम फिर न होंगे
न होगा ये मंज़र
चलो लुफ्त ले लो 
घडी दो घडी 
चलो घूम आएं 
घडी दो घडी....
रमेश मुमुक्षु
(29.3.2017 ट्रैन में लिखी)