अध्यापक दिवस : सर्वपल्ली राधा कृष्णन के जन्म दिन की याद में।
जीवन में चाहे कोई कितना बड़ा हो जाये और चाहे कितना आगे निकल जाए ,लेकिन कोई न कोई अध्यापक जरूर याद होता होगा, जिनसे परोक्ष या अपरोक्ष रुप कोई एक बात ने व्यक्तित्व में कुछ जोड़ा होगा। हम जैसे बच्चे जो इसलिए स्कूल जाते थे क्योंकि घर वाले रास्ता लगा देते थे। बस्ता उठाये चल दिये बिना मन स्कूल में केवल गप्प और आपस में बहस । इतना जरूर है कि टीचर अभी भी पूरी तरह आंखों के सामने रहते है। उस वक्त तो सबका नामकरण करते थे। आज कभी मिलते है तो उनको दूसरी नज़र से देखते है। प्राइमरी स्कूल के हेड मास्टर की दो बातें मुझे आज भी याद है।।उनकी शक्ल और नाम बिल्कुल भी याद नही। वो एक गाना बच्चों को सुनाते थे, जो मुझे हमेशा याद रहा। मन्ना डे का गाना" खुदगर्ज़ दुनिया में ये इंसान की पहचान है
जो पराई आग में जल जाए ,वो इंसान है"
अपने लिये जिये तो क्या जिये ,
तू जी ऐ दिल जमाने के लिए" ये गाना शायद ये पहली कक्षा में सुना था ,वो अभी भी आंखों के सामने तैरता है। जीवन उसी के रास्ते आज भी चल रहा है, दुनियां के हिसाब से बिल्कुल नाकामयाब। उसी हेड मास्टर की एक बात भी मुझे याद है। उन्होंने एक बार बाल सभा , जो सरकारी स्कूल में पढ़े होंगे, उन्हें ये अचानक याद आ जायेगा , में बच्चों को एक किस्सा बताया कि जापान के प्राइम मिनिस्टर ने हमारे प्रधामंत्री स्व. नेहरू को बताया कि आप मानव अपशिष्ठ को व्यर्थ करते है ,जबकि जापान तो बिजली और खाद भी बनाता है। आजतक हमारी वो ही स्थिति है। ये दो बातें आजतक याद है। बाकी खेलना कूदना और सरकारी एन डी एम सी का स्कूल था , तो दलिया, बिस्किट , मीठी ब्रेड का इंतजार सबसे अधिक रहता था। अभी लिखते हुए,वो स्वाद रसना ने ले लिया। नाकामयाबी का एक बड़ा फायदा रहता है क्योंकि उनको पुरानी चीज़े हमेशा याद रहती है। संभव है, नाकामयाबी का भी ये ही कारण हो। लेकिन मेरा दावा है, इसको पढ़ कर सब बचपन में स्कूल के समय पहुँच जाएंगे। हम जैसों को पढ़ाई के अतिरिक्त सब कुछ याद है। पढ़ाई इसलिए नहीं क्योंकि पढ़ता कौन चाहता था। पढ़ना उतना ही ताकि आगे खिसक जाए। लेकिन जो बच्चें प्रथम आते थे, वो हम जैसों से डरते जरूर थे। कोर्स की दुनियां से परे हम बादशाह हुआ करते थे। जिन जानकारी को बच्चों को दूर रखा जाता था ,हमें वो ही प्रिय थी। पांचवी कक्षा तक हम लोग धर्म, सच झूट और न जाने कितनी बहसों में लगे रहते थे। बहस और गप्प में हम लोगों को महारत हासिल थी। खेलना, बेर तोड़ना, अमरूद,जामुन पर हाथ साफ करना, आम पापड़, टाटरी , बर्फ का गोला, गटारे , अमर्क , बेर, पकड़म पकड़ाई, पिट्ठू, लट्टू, गुल्ली डंडा, कंचे , चोर सिपाई, दोस्तों के कंधे पर हाथ टिकाये, निक्कर को ऊपर खींचते हए , सभी अपने अपने पिताजी के आने और उनके आफिस जाने तक शरीफ और आज्ञाकारी बने रहते थे। बात बात पर चांटा रसीद हो जाता था। रात को भूत प्रेत की कहानी सुनना और डर डर के घर भागना। ये कुल जीवन चर्या थी।
मुझे खुद का तो बहुत याद नही की किसी टीचर ने जीवन बदल डाला ,लेकिन दोस्तों के जीवन में बदलाव याद है।
सीनियर सेकेंडरी स्कूल जैसे प्रिंसिपल शायद कोई दूसरा भी होगा। उनका नाम स्व. अयोध्या दास था। उनका अनुशासन डेडिकेशन और एक एक बच्चे पर नज़र रखना गज़ब का था। अभी 5 वर्ष पूर्व ही उनका देहांत हुआ। एक एक टीचर आंखों के सामने आते जा रहे है। एक एक टीचर की कुछ बातें, उनका तरीका, किसी दिन किसी बात ने जरूर कुछ हरकत की होगी। जब सब को जोड़ लगाते है तो बहुत कुछ निकल कर आता है। जो बच्चे गंभीर और पढ़ाई को ध्यान से करते है, उनको बहुत कुछ याद होगा ,शायद ,हम जैसे बच्चे जो हमेशा बिना छुट्टी स्कूल गए ,कभी फुटके भी नही ,लेकिन ताज्जुब है,कभी दिल नही लगा पढ़ाई में। लेकिन किताबों की दुनियां सर्दी की ठंड, गर्मी की लूं का लुफ्त, बरसात में नहाने का आनंद , तितली, चिड़िया पेड़ पौधे ही साथी थे। एक मित्र है ,मेरा राकेश गुप्ता वो तीन घंटे तक फ़िल्म की स्टोरी सुनाया करता था। स्टोरी में टेन टेना तक याद होता था। लेकिन ये सब खूबी बच्चो की आज तक रेखांकित नही की जातीं। हम जैसे बच्चे जो बैठेते स्कूल में थे,लेकिन उनका फ़ोकस कहीं बाहर रहता था। ऐसे बच्चों के लिए, उनकी जिज्ञासा के लिए आज भी कोई स्थान नही है। बच्चे के भीतर मौजूद वास्तविक बच्चे को निकालना ही शिक्षा और शिक्षक का सबसे बड़ा रोल होता है। शिक्षा प्रणली में इस बात को शामिल करना सबसे पहली शर्त होगी। आप में बहुत से लोगों ने तोतो चान पुस्तक जिसके लेखक तेत्सुकों कुरोयानागी पढ़ी होगी। रेल के डिब्बे में स्कूल और तोतो चान का लंबा इंटरव्यू प्रिंसिपल के साथ । इसके अतिरिक्त पहला अध्यापक , चिंगीज एत्मातोव का लघु उपन्यास के अध्यापक का जुनून और बच्चों के प्रति अध्यापक का अगाध प्रेम और जज्बे की कहानी है। स्टेपी के क़ुरकेव गांव के टीले पर दो पॉप्लर के पेड़ों का बढ़ना और स्कूल की पहली बच्ची का वैज्ञानिक बनने की कथा भूलना कठिन है। हमारे देश में तो एक लंबी परम्परा है,गुरु शिष्य परम्परा की। आचार्य चाणक्य, द्रोणाचार्य समेत लंबी लिस्ट है। लेकिन मैं आचार्य चाणक्य को सबसे आगे रखता हूँ क्योंकि उन्होंने एक साधारण बालक में भारत का सम्राट खोज लिया ही नही लिया बल्कि बना ही डाला। जबकि द्रोणाचार्य एकलव्य को शिष्य न बनाकर बड़े अवसर से चूक गए। गुरु मजबूर हो तो वो महान गुरु नही हो सकता। लेकिन अर्जुन ने उनको ऊंचा स्थान प्रदान किया। राजवंश के बच्चों को कुछ बनाना कोई बड़ी उपलब्धि नही मानी जा सकती है। फिर भी गुरु के रूप में उनका ऊंचा स्थान रहेगा ही। आधुनिक समय में परमहंस रामकृष्ण और उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद का अद्भुत योग था। बच्चे के भीतर कला, संगीत, बहस, तर्क,गणित, भाषा, उच्चारण , चिंतन, खेल प्रतिभा, दार्शनिक चेतना, समाज सेवा ,कृषि के प्रति रुचि, अन्वेषण के गुण , शारीरिक लोच और ताकत न जाने कितने गुण विद्यमान होते है। उनको ही सहज रूप से पहचानना और निकाल कर परिष्कृत करना ही गुरु और अध्यापक का भी विशेष गुण होता है। अध्यापक और गुरु, वो ही श्रेष्ठ होता है, जो स्वयं का भी परिष्कार करता रहे और समयानुकूल चीज़ों को अपनाता रहे। गुरु चूंकि अंधकार से शिष्य को प्रकाश की ओर ले जाता है,इसलिए गुरु का स्वयं का प्रकाशमान होना पहली शर्त है।लेकिन बहुत से पेरेंट्स गुरु और मास्टर को ऐसा समझते है कि इसका तो काम ही है,कोई एहसान नही कर रहा। ये सोच बच्चे में कृतज्ञता की जगह कृतध्नता का भाव उपन्न करता है। जो सामाजिक ताने बाने और स्वयं के जीवन के लिए ठीक नही होता।
अंत में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक दार्शनिक राष्ट्रपति थे। ये हम सब के लिए गौरव की बात है। उनके जन्मदिन को अध्यापक दिवस के रुप में मनाना ,अध्यापक के प्रति अगाध प्रेम और सम्मान का परिचयक ही है। उनकी कुछ पुस्तक आज भी प्रचलित है ,जिनमे The World Treasure of Modern Religion, Idealistic view of Life , The Hindu view of life, Indian Philosophy ,East and West Religion & Religion and Society समेत बहुत सी पुस्तक आज भी पढ़ी और पढ़ाई जाती है। प्लेटो ने सही कहा था कि राजा दार्शनिक होना चाहिए। उनके राष्ट्रपति बनने पर महान आधुनिक दार्शनिक ,गणितज्ञ बर्ट्रैंड रसल ने डॉ राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर दर्शन शास्त्र का सम्मान बताया था। विडंबना है कि ये सब केवल 5 सितंबर को ही रस्मअदायगी हो जाती है।। दर्शन से परे जाता समाज केवल भटक सकता है, विवेक से परे हो जाता है। जिसको आज अनुभव किया जा सकता है, इस बात से इनकार नही किया जा सकता है।
(रमेश मुमुक्षु )
अध्यक्ष, हिमाल
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5.9.2020