Search This Blog

Wednesday 13 December 2017

जीवन सुख और दुःख: एक विचार

(जीवन सुख और दुःख : एक विचार)
अगर दिन महीने साल न हो तो उम्र का हिसाब मुमकिन ही न हो। शुक्र है, दिन रात होने से कुछ घटित हो गया लगता है। जीवन बिना रुके चलता है, सतत लगातार। उम्र के पड़ाव दर पड़ाव चलती चली जाती है। सुख दुःख उंसके सबसे गहरे दोस्त है। कभी दोनों साथ चलते है। कभी एक पीछे चलता है, कभी एक आगे। सुख अधिकांश आगे रहता है। आदमी उंसके साथ चलने का प्रयास हमेशा करता रहता और उसका प्रयास दुःख को नजदीक ले जाता है। ऐसा कभी नही होता कि कोई एक कभी नज़दीक ही न रहे। किसी एक को हमेशा के लिए दूर  भी नही किया जा सकता है। आदमी का पूरा जीवन सुख को साथ बुलाने और दुःख को दूर भगाने में ही निकल जाता है। जब जब सुख साथ होता है,  तो वो ऐसे कर्म करेगा कि दुःख स्वतः ही साथ हो लेता है। लेकिन दुःख को दूर करना सबसे कठिन है। सुख से गहरी दोस्ती दुःख को निमंत्रण ही होता है। सुख कभी कभी साथ रहता है। कितनी बार तो दुःख के साथ भी वो नज़दीक आजाता है।।क्या दुःख कभी दूर होता है। शायद नही। अब समझ आया महात्मा बुद्ध की बात की दुःख तो सत्य हींहै। वो तो हमेशा साथ ही रहेगा। अब जब उसको साथ ही रहना है ,तो उससे दोस्ती करें कि उसको महत्व ही देना बंद कर दें। उसका निवारण नही किया तो भी वो ओर बढ़ सकता है। उसको  स्वीकारना ही एक मात्र उपाय है। उंसके साथ रहते हुए भी जीवन को जीना एक मात्र उपाय है।
लेकिन दुःख और सुख किसको कहें ,इसको भी तय करना आसान नही होता। सुख का अतिरेक दुःख ही होता है। सुख पर नियंत्रण उसको लम्बे समय दोस्त बनाये रहता है। इस दोनों दोस्तों को समझना और दोनों के होने से जीवन प्रभावित कम रहे , ऐसी युक्ति ही जीवन को इनके मोह और पीड़ा से दूर रख सकती है। इसके लिए कुछ ऐसा सतत करें ताकि करने से अच्छा लगे। अच्छा ऐसा हो ताकि किसी को कम से कम दुःख और परेशानी रहे। ये इतना आसान नही। सुख अपने साथ मोह और घमंड साथ रखता है। मोह और घमंड आदमी को छदम सुख प्रदान करते  अनुभव होते है। ये ही सबसे अधिक दुःख को निमंत्रण होता है। दुःख तो हर क्षण साथ है।।अगर इन दोनों के होते आदमी अपने काम और लक्ष्य की और बढ़ता रहे , तो इनका होना उसको प्रभावित नही करेगा। बीमार व्यक्ति अगर कभी ठीक नही होगा, जीवन  तो जीना ही है। जीवन जीना है  , ये ही सत्य है। दुःख को अधिक करीब रख कर एक और सुख से वंचित होना है और दूसरी और फिर दुःख के संताप को झेलना होगा। ऐसे में जीवन जीना कठिन ही होगा। एक छोटा सा उदाहरण लेते है। किसी भी तरह की सफलता मिल गई । उससे खुशी होगी और खुशी सुख को निमंत्रण है। लेकिन केवल सुख में डूबने और अधिक खुशी दुःख की आगोश में ले जाता है। जब इसको ही समझ लेना है। इन दोनों को जीने की कला सभी तरह के ज्ञान के उद्विकास का कारण है। एक व्यक्ति बीमार और परेशानियों में भी खुश रह कर जीवन जीता है। लेकिन दूसरी ओर एक व्यक्ति सब कुछ होने के बावजूद भी दुःख के संताप से पीड़ित रहता है। बस ये ही सत्य है।
केवल जीवन जीने की कला जो अपने लक्ष्य की ओर ले जाये , इसकी बहुत अधिक परवाह करें कि दुःख होगा कि सुख । आदमी को लक्ष्य और काम में व्यस्त रखता है। दोनों को स्वीकार करते हुए। जो शायद सबसे अधिक कठिन होगा। लेकिन करना अनिवार्य ही है।करना होगा ही। इनसे ऊपर आनंद, परमानंद, चिदानंद और सदानंद की व्याख्या नाना प्रकार से हुई है।
सौ बातों की एक बात जीवन है तो जीना ही होगा ,अब रो के या खुश हो कर। दुःख बांटने और किसी के दुःख में शरीक होने से वो अपना सा लगता है। संतोष के मर्म को समझ लिया तो ,ये सब साथ भी हो तो जीवन अपनी सहज चाल में चलता जाता है। संतोष का अतिरेक फिर दुःख का कारण है। इसलिए ये सब साथ ही रहेंगे और इनको समझना और जीवन जीना ही एक मात्र सत्य है।
बाकी फिर कभी झोंका आया तो मीमाँसा करेंगे। चारों और ज्ञान का भंडार लुटाया जा रहा है। संत महात्मा और एक से ज्ञानी मौजूद है। लेकिन इन सबके बावजूद भी क्या.............। चर्चा हो ही सकती है।
रमेश मुमुक्षु

Sunday 12 November 2017

जनता का पैसा सरकार संचालित करेगी कि जनता : एक विचार

जनता का पैसा सरकार संचालित करेगी कि जनता : एक विचार ।
एक बहस लगातार चल रही है कि डिजिटल व्यवस्था से सरकार के खजाने में अधिक पैसा आएगा जिससे देश में विकास कार्यों में तेजी आएगी।
ऊपर से देखने में ये बात ठोस और  सही लगती है। लेकिन एक बात को भी ध्यान में रखना होगा कि ये सब विकास के विभिन्न काम उसी सिस्टम के द्वारा ही संचालित किए जाएंगे जो लगभग पूरे देश में लचर हो चुका है। करप्शन से लिप्त सारा सिस्टम जिसके तहत छोटी छोटी योजना और परियोजना में 40 से 60 प्रतिशत कमीशन खोरी देश का कड़वा सत्य है। टेंडर की कहानी  जगजाहिर है। मेरा दावा है कि   इस लचर व्यवस्था में कोई भी अंतर दीख नही पड़ता। करप्शन के रूप बदल रहे है। पटवारी , क्लर्क, राजस्व, पुलिस, निगम समेत उच्च अधिकारी और नेता अथवा उनके गुर्गे आदि सभी की कहानी लोग स्वयं सुनाते रहते है। दुनिया में अधिकांश देश अभी भी नकद व्यवस्था के तहत संचालित होते है। जॉन रस्किन ने कहा था कि सरकार जनता के कर से मौज लेती है। पिछले लोक सभा चुनाव में बेसुमार पैसा खर्च हुआ। अभी भी इसपर कोई रोक टोक नही। सरकारी बैंकों के एन पी ए की खबरें आती ही रहती है। सरकार के करीबी देश हित में परियोजना बनाते है और मोटा पैसा कमा लेते है। छोटे छोटे प्रोजेक्ट में भी कमीशन खोरी आम बात है। अभी ध्यान से देखों तो लगभग सभी चीजों के रेट बढ़ने में ही है। दिल्ली की मेट्रो में अधिक से अधिक किराया 60 रुपये हो गया है। आने जाने के लिए 120 रुपये पहले ये किराया 60 रुपये से कम लगता था।
ऐसा कितने मदों में है। सरकार ध्यान बांटने में जी जान से जुटी है। करप्शन दो तरह का होता है , एक बेतरतीव और दूसरा पूरी तरह अनुशासित । जब सिस्टम में पकड़ कम होती है तो करप्शन भी फोकस्ड नही रहता। सरकार में कोई भी करप्शन कर लेता है। दूसरा करप्शन फोकस्ड होता है, जिसमे सरकार उसको पूरी तरह से नियंत्रित करके करती है। इसको हम ऐसे समझ सकते है। सबसे पहले फोकस्ड सरकार और व्यवस्था जनता की सोच और उसके विवेक को नियंत्रित कर लेती है। केवल एक उदहारण से समझा जा सकता है। सेना के लिए वन रैंक वन पेंशन का सरकार ने पूरा क्रेडिट ले लिया। देश सेना और सैनिक की बातों में मगन है। लेकिन जंतर मंतर में लंबे समय से इस मुद्दे पर सेना के रिटायर्ड उच्च अधिकारी और सैनिक धरने पर बैठे है। उनकी चर्चा ही नही है। एक फार्मूला चल रहा है , कुछ भी कर लो। सैनिक बॉर्डर पर खड़ा है ,कह कर किसी को चुप कर दो। ऐसा लगता है , सेना के प्रति हमारा प्रेम उमड़ गया। जबकि सच ये है कि आजकल आर्मी अधिकारियों के बच्चे तक सेना में भर्ती नही होना चाहते। ऐसा सरकारें करती आई है। सबसे पहले लोगों की सोच पर पूरा नियंत्रण करके उनको रिमोट की तरह संचालित करना।
जब ऐसा होता है तो सरकार अपने पैसों का उपयोग अपने फैलाव और अपने अस्तित्व के लिए करती है। इसलिए सरकार सोचती है कि देश का सारा खजाना उसके नियंत्रण में ही रहे ताकि सब लोग उसके ही द्वारा संचालित रहे। लेकिन सिद्धान्त रूप से ये सही होता है। जब सिस्टम पूरी तरह सरकार के नही जानता के नियंत्रण में रहता है। एक बात नही भूलनी चाहिए कि प्रजातंत्र जब तक ससक्त और इंक्लूसिव नही हो सकता , जब तक सरकार के नियंत्रण में रहेगा। कोई भी देश और प्रजातांत्रिक राष्ट्र जनता द्वारा चुना जाता है । जनता के लिए । इसका अर्थ हुआ सरकार राज करने के लिए नही है। वो जनता की व्यवस्था के लिए है। लेकिन क्या ये सत्य है?  कदापि नही लेकिन आम आदमी चुप चाप ये देखता और सेहता । एक पुरातन सीख है पाप करने से पाप सहना अधिक घातक है। अब इस बात से हम अंदाजा लगा सकते है। किसी भी देश का सिस्टम जब ईमानदार और जिम्मेदार हो जाता है तो सबसे नीचे की व्यवस्था में वो स्वयं दिखने लगता है। लिटमस टेस्ट में वो साफ बच जाता है। लेकिन ये पूरा देश जानता है क्योंकि 'ले देकर सुल्टा ले ', ये देश का नंगा सत्य है। आज भी पूरी तरह नामक के दरोगा चुपड़ी रोटी खाते है। ये सब हम समाज में आस पास देख सकते है।
अब जब सरकार के पास सब कुछ आ जाये और सिस्टम में आधारभूत परिवर्तन न हो और दलाल पूरी तरह चुस्त दुरस्त रहे , तो परिणाम क्या होगा ? इस पर अधिक बोलना समय की बर्बादी है।
इसलिए सो बातों की एक बात सरकार कोई भी हो अगर जनता सरकार पर नियंत्रण रखने की कोशिश नही करेगी और पार्टी पॉलिटिक्स में व्यस्त रहेगी। बहस में एक दूसरे का सिर फोड़ेगी तो मान लो सरकार और नेता के प्रचार का खर्च जनता बिना मतलब कम करेगी। जब हम किसी पर आस्था के स्तर तक विश्वास कर लेते है , तो उसकी गलती पर भी चुप रहते है और चुप रहने को बाध्य होते है। इसलिए सरकार आस्था नही व्यवस्था है और व्यवस्था का नियंत्रण जनता के हाथ में होना ही वास्तविक प्रजातंत्र होता है। इन सब के बिना सरकार कैसे काम करेगी , ये जगजाहिर है। इसलिए छोटी इकाई से नियंत्रण करना ही एक मात्र उपाय है। ग्राम पंचायत की सभी मीटिंग में जाना और जानकारी प्राप्त करने से शुरुवात हो सकती है। निगम आदि की सबसे छोटी इकाई की जानकारी सूचना अधिकार आदि से प्राप्त कर सरकार और व्यवस्था पर जनता की निगरानी बढ़ सकती है। ये एक मात्र विकल्प है। एक ब्रह्म सत्य है , जब कोई सरकार और नेता कहे कि जनता को सिस्टम से उलझने की जरूरत नही होगी। मैं और हमारी सरकार स्वयं सब कुछ देख लेंगे , तो मान लो जनता पर शिकंजा कसने की तैयारी है। अगर नेता और व्यवस्था कहे कि जनता सवाल पूछे और सिस्टम को नियंत्रण में रखे तो समझ लीजिए सुशासन और इंक्लूसिव प्रजातंत्र की शुरुवात हो गई।
इन बातों पर ठोस कदम जनता को उठाने ही होंगे। नही तो कहीं पे निगाहे कही पे निशाना व्यवस्था का आधार होगा और सरकार जनता को अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश करेगी। चुनाव जनता को करना करना है।
रमेश मुमुक्षु

Thursday 9 November 2017

स्थापना दिवस और एच आई वी एड्स

(स्थापना दिवस और एच आई वी एड्स )
9 नवंबर 2000 आज ही के दिन मैंने डिग्री कॉलेज बेरीनाग में HIV/एड्स के बारे में लेक्चर दिया था। उस समय इस बीमारी के बारे में लोगों की जानकारी कम थी और लोग बात तक करने से कतराते थे। आज 2017 में भी हालात बहुत नही बदले।अभी हाल फिलहाल में कुछ बच्चों की सूचना मुझे मिली जिनको  को अलग रखा गया है। ये केवल उत्तराखंड की नही बल्कि दिल्ली में भी ऐसा देखने और सुनने को मिल जाता है।
दिल्ली में एक पीढ़ित को आपरेशन करवाना था। बड़ा ताज्जुब हुआ , लगभग सभी अस्पताल वालों ने कुछ बहाना बनाकर आपरेशन से इनकार किया।
लेकिन उत्तराखंड में अभी लोग कतराते जरूर है। लेकिन नुकसान नही पहुंचाते हैं। असल में इसका कारण जानकारी न होना भी है। असल में जानकारी और मरीज़ की सेवा संबंधी सावधानी,  जी किसी भी बीमारी के साथ होता है , को ध्यान में रखकर आगे आना चाहिए।
लेकिन मेरी अपील है कि अगर कोई बीमार और प्रभावित हो तो उसके साथ मिलजुल कर रहे। उसके इलाज और देखभाल से पीछे न हटे।
पिछले तीन वर्षों के दौरान सभी केअर होम अब काम नही कर रहे है। पहले कोई बीमार मिलता था , तो उसको मैं कहीं कहीं भेज दिया करता था।। अब दिक्कत हो चली है। लगता है स्वयं ही कोई केअर होम खोलना पड़ सकता है।
बाकी बहुत कुछ वैसा का वैसा ही है, ये लोग जानते ही है। जब कोई अनाथ बच्चे वो भी hiv प्रभावित हो की सूचना मिल जाये , तो कुछ ठोस करना ही होगा। 17 साल हो गए राज्य को बने इस क्षेत्र में प्रगति नाम मात्र ही है। इसके अतिरिक्त अन्य बीमारी की भी यही स्थिति है। अभी कैंसर के मरीज और शुगर की संख्या बढ़ने लगी है।
सब लोग इस बारे में सजग रहे और जानकारी प्राप्त  कर पीढ़ित को प्रेम प्रदान करें ।
रमेश मुमुक्षु
9810610400

Saturday 14 October 2017

मानव में हिंसक प्रवृति :एक विचार

(मानव में हिंसक प्रवृति  : एक विचार)
मानव का प्रार्दुभाव कहते है ,वानर से हुआ फिर धीरे धीरे इसका उद्विकास हुआ। कुछ लोग इस थ्योरी को नही मानते। लेकिन अगर मानव का विकास वानर या पशु अवस्था से हुआ है तो उसके भीतर हिंसक प्रवृति  का पाया जाना स्वाभाविक होगा । लेकिन अगर उसका उद्विकास नही हुआ और वो सीधे ही धरती पर आगया तो उसके भीतर हिंसक प्रवृति का होना चिंतनीय है। खैर ,उसके प्रादुर्भाव की चर्चा से मैं दूर हटता हूँ।
कभी दो जानवर जब लड़ते है , जब दो पक्षी भी लड़ते है । यहां मैं छोटे पक्षी , बिल्ली या छोटे नस्ल के कुत्तों  की बात कर रहा हूँ क्योंकि वो हमारे आसपास रहते है। जो लोग मुर्गी पालते है ,उन्होंने भी देखा होगा। लड़ते समय वो एक दूसरे को खत्म करने तक में तुले होते है।
अब सभ्य कहे जाने वाले व्यक्ति स्त्री और पुरुष को कभी लड़ते देखों। मानव का तुरंत रिएक्शन देखों ,जब वो गुस्से में होता है तो ऐसा कुछ कितनी बार खोजता है ,जिससे वो अपने विरोधी को मार ही देगा। ये मैं उन लोगो की बात कर रहा हूँ ,जो कई बार या कभी कभार ऐसा करते होंगे और जिन्होंने ऐसा कम ही  किया होगा। बहुत सभ्य मानव विचारों के मतभेद  में संदर्भ में ऐसा कर देते है। धर्म जो प्रेम सिखाता है ,विरोधी विचार से किसी बात में बहस हो जाये तो फिर क्या कहने। इतिहास गवाह है , स्त्री ,पुरुष,संपत्ति , जमीन, धर्म, भाषा आदि कितने ही कारण है जिनके लिए मानव अपने विरोधी को मार ही देना चाहता है। उसके भीतर का हिंसक तत्व उभर आता ही है। छीन लेने का उसका स्वभाव उसको और भी हिंसक बना देता है। अगर हम इन बातों पर चिंतन करें तो हम कह सकते है कि मानव में हिंसक तत्व पशुओं जैसे ही है। लेकिन मानव ने कालांतर के अपने उद्विकास में बहुत कुछ सीख लिया है। ये सीखने की यात्रा जारी है। एक उद्धरण लिया जा सकता है। जब कोई मानव गुस्से में किसी को मारने के लिए कुछ खोजता है, उस समय उसके आस पास खड़े लोग ऐसा करने से दोनों को रोकते है। ये मानव ने सीखा है। इसको उद्विकास कह सकते है। गुस्से पर काबू पाना भी उसने सीखा है। चलो अब इसकी पड़ताल मानव के बालकपन से करते है।
मानव के स्वभाव में जिन चीजों को नेगेटिव माना जाता है, गुस्सा, लालच, हिंसकपन, ईर्ष्या, घमंड ,अपने वश में करने की आदत आदि । ऐसा कहा जाता है ये सब बुरी आदत है ,ये बच्चा और मानव जल्दी सीखता है। लेकिन छोटे बच्चे जो बहुत ही सभ्य समाज और परिवार में होते है। उनको थोड़ा फोकस करके देखों ,उनके भीतर ये सब स्वाभाविक तौर पर व्याप्त होते है। लेकिन मानव ने इनसे बचने के ही सारे उपाए सृजित किये है। इसी कारण उसको पूरे जीवन भर ये सब सिखाना पड़ता है ,या वो इनसे बचने की चर्चा करता रहता है। मज़े की बात है कि ऐसे  लोग भी इसमे लिप्त हो जाते है, जो जीवन भर इससे बचने के उपाय दुनिया को बताते रहे।
लेकिन मानव का स्वभाव आखिर कैसा होना चाहिए । दुनिया के सभी ग्रंथो और चिंतन में मानव को स्थिर होने की बात कही है। किसी भी स्थिति में स्थिर रहे। इसको विस्तार से लिखना शुरू करूं तो बहुत कुछ है। लोग जानते ही है। लेकिन सरल शब्दों में कहें तो किसी भी परिस्थिति,घटना, क्लेश, दुःख ,सुख और वीभत्स से वीभत्स घटना में भी स्थिर रहने का प्रयास धर्म का मर्म है। जिनके कारण धर्म का उदय हुआ या जिन्होंने धर्म में अपना अतुलनीय योगदान दिया। उनकी सभी  कथाओं का सत्व और मर्म केवल मानव को स्थिर होना ही सिखाया और निर्देशित किया गया है। जो मनुष्य स्थिर होगा। वो किसी भी बात को सुन कर तुरंत प्रतिक्रिया नही करेगा। जो मनुष्य चिंतनशील होगा तो वो बात को सुन,देख कर तनिक सोचेगा। ये तनिक सोचना ही उसमे ज्ञान और उसके भीतर न जाने कितनी बातों का खजाना होना दर्शाता है। ये तब संभव है ,जब मानव समग्रता से चीज़ो को समझने का प्रयास करता है। उसको एकाकी और अपने जैसा बनाने का इतिहास उसके प्रादुर्भाव से जुड़ा है। अभी भी मानव समाज में एक धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर एकाकी बनाने की पुरातन प्रक्रिया जारी है। लेकिन मानव ने सहअस्तित्व के  मर्म को भी सीख लिया है और वो सीखने की और है। मानव ने भेदपूर्ण, समाज जो एक जैसे लोगों का हो सृजित करने की  कोशिश की और उसकी तमाम कोशिश के बावजूद भी उसमे सबको सुनने का स्वभाव समाप्त नही हुआ। जो उसमे विवेक से प्राप्त होता है। मानव के भीतर सबसे ससक्त और उसको सबके साथ जोड़ने और स्वयं को जानने का सूत्र विवेक ही है। इसलिए मानव ने प्रेम और साथ रहने की आदत को पनपाने में विवेक को ससक्त बनाने और विवेकशील होने पर इस कारण जोर दिया है। जब मानव विवेकशील होगा तो वो स्थिर होने लगता है। मानव में कुछ लोग विवेकी स्वभाव के भी होते है। लेकिन अगर नही तो उसको परिमार्जित किया जा सकता है। सम्पूर्ण प्रकृति वैविध्यपूर्ण है। अगर ऐसा है ,तो मानव स्वभाव में एकाकी होना सहज और सत्य नही हो सकता। लेकिन मानव ने अभी तक भी एक समान मनुष्यों के साथ रहना सीखा है। लेकिन अब उसका एक साथ रहना केवल आत्म सुरक्षा की दृष्टि से ही नही बल्कि सहज और समरसता के कारण भी । लेकिन इससे स्थिरता मानव में पूरी तरह नही आती । उसके लिए उसके भीतर विवेक का प्रस्फुटन और उसका सहज विकास ही एक मात्र उपाए हो सकता है। मानव की ये अंतर्यात्रा जारी है। विवेक को कुंद करने और उसके स्थिर स्वभाव को निष्क्रिय करने के प्रयास भी साथ साथ जारी है। ताकि किसी समूह के वर्चस्व को स्थापित किया जा सकें।  लेकिन मानव अस्तित्व के लिए विवेक का विकास और स्थिर होने की यात्रा ही एक मात्र है , उसके चिरस्थाई होने का और समस्त प्रकृति को भी अक्षुण्ण  रखने का क्योंकि मानव ने स्वयं का संहार और सम्पूर्ण प्रकृति के अस्तित्व को मिटाने के तरीके विकसित कर लिए है। केवल विवेक के अस्तित्व से ही ये सब संरक्षित और सुरक्षित है। इसलिए विवेक का विस्तार ताकि स्थिर होने का स्वभाव पनप सके की और जाना ही होगा। इस बात को पूरी तरह समझ लेना ही होगा।

विनीत
रमेश मुमुक्षु

Thursday 12 October 2017

भक्त होने का अर्थ

(भक्त होने का अर्थ)
राम रहीम ,आशा बापू, निर्मल बाबा और धार्मिक अथवा सांस्कृतिक संगठनों के भक्तो का होना सोचने जैसा है। भारत में करीब सभी किसी के भक्त है। अधिकांश लोग सत्संग वो संगठनों में सफाई करते नज़र आते है।
लेकिन उसके बावजूद भी सफाई का आलम हमारे सामने है। एक भक्त होता है ,जो विचार से भक्त बना होता है। एक भक्त होता है ,जिसे बनाया जाता है। बनाया जाने वाला भक्त रिमोट कंट्रोल भक्त होता है। उसको देश के कानून से कुछ लेना देना नही होता। बाबा या नेता कुछ कह देगा वो मान लेगा। भक्त बनाने के प्रोसेस में सबसे पहले उसके विवेक और समझने की ताकत को खत्म किया जाता है। एक बार वो बाबा और नेता  की बात को अंधा होकर सुनने लगता है। तो समझ लो कि वो अंधा भक्त बन गया। अंधे भक्त को तालिबानी प्रवृति में लेजाना आसान हो जाता है। भक्त बनाने  के रास्ते जब किसी को विवेक शून्य बना दिया जाता है, तो वो अतिकट्टरता की ओर जाने लगता है। मैंने तालिबानी इसलिए बोला क्योंकि उन्होंने पेशावर में स्कूल के बच्चों को बेरहमी से कत्ल किया। इसके अतिरिक्त बाह्मयन बुद्ध की प्रतिमा को खंडित करना। ये इसलिए होता है क्योंकि भक्तों को किसी जाति, धर्म, विचार और संगठन के विरुद्ध सतत विषगमन किया जाता है। उसके विवेक और सोचने की ताकत को पूरी तरह नियंत्रित किया जाता । एक बार भक्त तैयार हुआ तो सिलसिला जारी होता जाता है। रामरहीम अभी का उदाहरण है। ये धार्मिक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों में अधिक पाया जाता है। तालिबानी कैंपो की तरह दिन भक्तों को निर्मित करने में लगे रहते है। किसी आम आदमी की सोच को पूरी तरह फोकस्ड करके कठपुतली की तरह बना देना। एक बार भक्त तैयार होगया तो समझों की उसको कभी भी रिमोट की तरह इस्तेमाल कर लो।
उस भक्त की फ्रीक्वेंसी जो विवेक के रूप में उसके भीतर है , जो सही गलत को समझने में सहायक होती है, उनको जैमर के माध्यम से डीएक्टिवेट करके ये भक्त पूरी तरह अंधे हो जाते और फिर इनसे कुछ भी करवा लो। अचरज की बात है ,इन भक्तों की भाषा और बोली एक जैसी ही रहती है। एक आम भक्त  सबसे निचले  पॉयदान पर खड़ा  और शीर्षस्थ भक्त एक भाषा और भावभंगिमाओं का उपयोग करते है। उनके भीतर भर दिया जाता है कि तुम ही सत्य हो शुद्ध हो। हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध विषगमन किया जिसका परिणाम 60 लाख यहूदियों का निर्मम  जनसंहार । ऐसा करते हुए हिटलर के अंधभक्तों को गर्व महसूस होता था। गेस चैम्बर में नवजात शिशुओं की हत्या उनके लिए मिशन पूर्ण होना था।
अंध भक्तों की पहचान कैसे हो । वो बहस करते समय विरोधी को व्यक्तिगत रूप से गाली आदि देना शुरू कर देते है। विषय को छोड़ वो इतिहास और कुछ खास घटनाओं के आधार पर आगबबूला हो उठते है। कुछ सवाल और सही गलत की बात करने वाले उनके सबसे बड़े शत्रु होते है। अगर कोई भी व्यक्ति।स्वयं पढ़ाई लिखाई नही करता। चीजों की पड़ताल नही करता । वो इन कट्टरपंतियों के ट्रेप में आ ही जाते है। भारत की परंपराओं में पंक्ति को मिटाने और छोटा करने की बजाए अपनी लकीर को लंबा करने की बात कही जाती है। लेकिन अंधभक्त लाइन को मिटाने की कोशिश में लगे रहते है।
जब विवेकानद कहते है, उनको 100 अनुयायी मिल जाते तो वो एक बड़ा परिवर्तन ला सकते थे। विवेकानद अंधभक्त नही सच्चे विवेकशील और सही गलत को कहने वाले विचारमान भक्त बनाना चाहते थे।
मानव समाज में भक्त नही एक समझदार व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का उद्विकास ओर  अपनी विवेक और सोचने की शक्ति के रूप में होना चाहिए। वो इसलिए एक व्यक्ति अपने में पूर्ण होता है। लेकिन मानवजाति ने स्वयं अपने ही मानव को अपने इशारों पर चलाने की काबिलियत हासिल कर ली। उसको तोड़ने के लिए रैशनल और जिज्ञाशूपन का भी विकास कम ही , लेकिन होता आया है। कट्टरवाद और उदार वादी के बीच ही असल द्वंद है। कट्टरवाद आदमी को रिमोट से कंट्रोल करना है और उदारवाद अथवा विवेकशील होना , अपनी सोच और विवेक पूर्ण चीज़ों को समझना ही है। कट्टरवादी अधिक तेजी से तरक्की करता है। उसका फोकस दिखाने और प्रभावित करने के विकास में अधिक होताहै ताकि किसी को नीचा दिखा कर ही अपने को ऊंचा और असल साबित करना है।
अगर ऐसे अंधभक्तों को सत्ता मिल जाये तो खतरनाक होता है। ये विवेकहीन स्वयं को भी निगलने  का आधार बना ही लेते है। ये अंधभक्त विवेकहीन एक समय ऐसा आता है , स्वयं भस्मासुर बनते जाते है। इनमे खुद के नाश करने की नैसर्गिक प्रवर्ति पाई जाती है।
हम सभी के आस पास ऐसे अंधे विवेकहीन भक्त पाये जाते है। अगर इनकी बात नही मानी तो ये आपको बुरा भला और गाली गलौज भी कर देते है। ये हमेशा गुस्से में रहते है। इनकी बातें हास्यास्पद होती है। कही का लॉजिक कही बैठाने की कोशिश दिन रात करते है। इनका मानना है कि उनके अतिरिक्त सब गलत है। पूरी दुनियां में वो ही श्रेष्ठ है। आप ऐसे लोगों को देखे और उनकी बात जरूर सुने ताकि बच्चो और युवाओं को समय रहते चेता दिया जाए। ये लोग बच्चों पर अधिक फोकस करते है। पुरुष प्रधान समाज की परिकल्पना में ही रहते है। गलत सूचना, भ्रामक तथ्य, बदनाम करने की कोशिश, जो इनकी नही सुनता ,उनके पीछे पड़ना। इनका स्वभाव होता है।
लेकिन ये डरपोक और निडर सही मांयने में नही होते क्योंकि जो नेगेटिव और गलत बात को लेकर चलता है , जो सच्चा नही है, वो निडर नही हो सकता। ये लोग वाचाल होते है। सत्यवादी तो कतई नही होते। ये समाज में तनाव पैदा करना चाहते है।
ये सभी जाति ,धर्म और देश में पाएं जाते है। मानव धर्म,  सरल ,सहज और सतत विश्व के विकास के लिए ऐसे लोगों की संख्या न बड़े इसका सतत प्रयास करते रहे। बच्चों और युवाओं को सही जानकारी और स्वयं पड़ताल करने की आदत डालें। पढ़ने और आपस में बातचीत की आदत डालें ताकि भ्रम पैदा न हो सके।

विनीत
रमेश मुमुक्षु