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Saturday, 14 October 2017

मानव में हिंसक प्रवृति :एक विचार

(मानव में हिंसक प्रवृति  : एक विचार)
मानव का प्रार्दुभाव कहते है ,वानर से हुआ फिर धीरे धीरे इसका उद्विकास हुआ। कुछ लोग इस थ्योरी को नही मानते। लेकिन अगर मानव का विकास वानर या पशु अवस्था से हुआ है तो उसके भीतर हिंसक प्रवृति  का पाया जाना स्वाभाविक होगा । लेकिन अगर उसका उद्विकास नही हुआ और वो सीधे ही धरती पर आगया तो उसके भीतर हिंसक प्रवृति का होना चिंतनीय है। खैर ,उसके प्रादुर्भाव की चर्चा से मैं दूर हटता हूँ।
कभी दो जानवर जब लड़ते है , जब दो पक्षी भी लड़ते है । यहां मैं छोटे पक्षी , बिल्ली या छोटे नस्ल के कुत्तों  की बात कर रहा हूँ क्योंकि वो हमारे आसपास रहते है। जो लोग मुर्गी पालते है ,उन्होंने भी देखा होगा। लड़ते समय वो एक दूसरे को खत्म करने तक में तुले होते है।
अब सभ्य कहे जाने वाले व्यक्ति स्त्री और पुरुष को कभी लड़ते देखों। मानव का तुरंत रिएक्शन देखों ,जब वो गुस्से में होता है तो ऐसा कुछ कितनी बार खोजता है ,जिससे वो अपने विरोधी को मार ही देगा। ये मैं उन लोगो की बात कर रहा हूँ ,जो कई बार या कभी कभार ऐसा करते होंगे और जिन्होंने ऐसा कम ही  किया होगा। बहुत सभ्य मानव विचारों के मतभेद  में संदर्भ में ऐसा कर देते है। धर्म जो प्रेम सिखाता है ,विरोधी विचार से किसी बात में बहस हो जाये तो फिर क्या कहने। इतिहास गवाह है , स्त्री ,पुरुष,संपत्ति , जमीन, धर्म, भाषा आदि कितने ही कारण है जिनके लिए मानव अपने विरोधी को मार ही देना चाहता है। उसके भीतर का हिंसक तत्व उभर आता ही है। छीन लेने का उसका स्वभाव उसको और भी हिंसक बना देता है। अगर हम इन बातों पर चिंतन करें तो हम कह सकते है कि मानव में हिंसक तत्व पशुओं जैसे ही है। लेकिन मानव ने कालांतर के अपने उद्विकास में बहुत कुछ सीख लिया है। ये सीखने की यात्रा जारी है। एक उद्धरण लिया जा सकता है। जब कोई मानव गुस्से में किसी को मारने के लिए कुछ खोजता है, उस समय उसके आस पास खड़े लोग ऐसा करने से दोनों को रोकते है। ये मानव ने सीखा है। इसको उद्विकास कह सकते है। गुस्से पर काबू पाना भी उसने सीखा है। चलो अब इसकी पड़ताल मानव के बालकपन से करते है।
मानव के स्वभाव में जिन चीजों को नेगेटिव माना जाता है, गुस्सा, लालच, हिंसकपन, ईर्ष्या, घमंड ,अपने वश में करने की आदत आदि । ऐसा कहा जाता है ये सब बुरी आदत है ,ये बच्चा और मानव जल्दी सीखता है। लेकिन छोटे बच्चे जो बहुत ही सभ्य समाज और परिवार में होते है। उनको थोड़ा फोकस करके देखों ,उनके भीतर ये सब स्वाभाविक तौर पर व्याप्त होते है। लेकिन मानव ने इनसे बचने के ही सारे उपाए सृजित किये है। इसी कारण उसको पूरे जीवन भर ये सब सिखाना पड़ता है ,या वो इनसे बचने की चर्चा करता रहता है। मज़े की बात है कि ऐसे  लोग भी इसमे लिप्त हो जाते है, जो जीवन भर इससे बचने के उपाय दुनिया को बताते रहे।
लेकिन मानव का स्वभाव आखिर कैसा होना चाहिए । दुनिया के सभी ग्रंथो और चिंतन में मानव को स्थिर होने की बात कही है। किसी भी स्थिति में स्थिर रहे। इसको विस्तार से लिखना शुरू करूं तो बहुत कुछ है। लोग जानते ही है। लेकिन सरल शब्दों में कहें तो किसी भी परिस्थिति,घटना, क्लेश, दुःख ,सुख और वीभत्स से वीभत्स घटना में भी स्थिर रहने का प्रयास धर्म का मर्म है। जिनके कारण धर्म का उदय हुआ या जिन्होंने धर्म में अपना अतुलनीय योगदान दिया। उनकी सभी  कथाओं का सत्व और मर्म केवल मानव को स्थिर होना ही सिखाया और निर्देशित किया गया है। जो मनुष्य स्थिर होगा। वो किसी भी बात को सुन कर तुरंत प्रतिक्रिया नही करेगा। जो मनुष्य चिंतनशील होगा तो वो बात को सुन,देख कर तनिक सोचेगा। ये तनिक सोचना ही उसमे ज्ञान और उसके भीतर न जाने कितनी बातों का खजाना होना दर्शाता है। ये तब संभव है ,जब मानव समग्रता से चीज़ो को समझने का प्रयास करता है। उसको एकाकी और अपने जैसा बनाने का इतिहास उसके प्रादुर्भाव से जुड़ा है। अभी भी मानव समाज में एक धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर एकाकी बनाने की पुरातन प्रक्रिया जारी है। लेकिन मानव ने सहअस्तित्व के  मर्म को भी सीख लिया है और वो सीखने की और है। मानव ने भेदपूर्ण, समाज जो एक जैसे लोगों का हो सृजित करने की  कोशिश की और उसकी तमाम कोशिश के बावजूद भी उसमे सबको सुनने का स्वभाव समाप्त नही हुआ। जो उसमे विवेक से प्राप्त होता है। मानव के भीतर सबसे ससक्त और उसको सबके साथ जोड़ने और स्वयं को जानने का सूत्र विवेक ही है। इसलिए मानव ने प्रेम और साथ रहने की आदत को पनपाने में विवेक को ससक्त बनाने और विवेकशील होने पर इस कारण जोर दिया है। जब मानव विवेकशील होगा तो वो स्थिर होने लगता है। मानव में कुछ लोग विवेकी स्वभाव के भी होते है। लेकिन अगर नही तो उसको परिमार्जित किया जा सकता है। सम्पूर्ण प्रकृति वैविध्यपूर्ण है। अगर ऐसा है ,तो मानव स्वभाव में एकाकी होना सहज और सत्य नही हो सकता। लेकिन मानव ने अभी तक भी एक समान मनुष्यों के साथ रहना सीखा है। लेकिन अब उसका एक साथ रहना केवल आत्म सुरक्षा की दृष्टि से ही नही बल्कि सहज और समरसता के कारण भी । लेकिन इससे स्थिरता मानव में पूरी तरह नही आती । उसके लिए उसके भीतर विवेक का प्रस्फुटन और उसका सहज विकास ही एक मात्र उपाए हो सकता है। मानव की ये अंतर्यात्रा जारी है। विवेक को कुंद करने और उसके स्थिर स्वभाव को निष्क्रिय करने के प्रयास भी साथ साथ जारी है। ताकि किसी समूह के वर्चस्व को स्थापित किया जा सकें।  लेकिन मानव अस्तित्व के लिए विवेक का विकास और स्थिर होने की यात्रा ही एक मात्र है , उसके चिरस्थाई होने का और समस्त प्रकृति को भी अक्षुण्ण  रखने का क्योंकि मानव ने स्वयं का संहार और सम्पूर्ण प्रकृति के अस्तित्व को मिटाने के तरीके विकसित कर लिए है। केवल विवेक के अस्तित्व से ही ये सब संरक्षित और सुरक्षित है। इसलिए विवेक का विस्तार ताकि स्थिर होने का स्वभाव पनप सके की और जाना ही होगा। इस बात को पूरी तरह समझ लेना ही होगा।

विनीत
रमेश मुमुक्षु

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