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Thursday 31 October 2019

सरकारी स्कूल में आई क्रांति:दिल्ली सरकार को सादुवाद

सरकारी स्कूल में आई क्रांति:दिल्ली सरकार को सादुवाद
एक समय था कि दिल्ली में सभी बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। लेकिन कालांतर में सरकारों स्कूल पिछड़ते चले गए। निजी स्कूल की रफ्तार इतनी  तेज हुई कि सरकारी स्कूल बन्द करने के कगार पर पहुँच गए। सरकारी स्कूल  के सुधार की बात घाटे का सौदा बन कर रह गई। सरकारी स्कूल को सभी लगभग भूलने लगे थे। यहां तक माहौल बन गया था कि लोग अपने बच्चों को गुस्सा करते हुए कह देते कि अगर कहना नही माना तो सरकारी स्कूल में डाल देंगे, बच्चा डर जाता था।  सरकार भी सरकारी स्कूलों को प्राइवेट हाथ देने का मन बना चुकी थी। 
लेकिन वर्तमान दिल्ली सरकार ने एक डेड इन्वेस्टमेंट को एक मिशन ही बना डाला। सरकारी स्कूल को सुधारना और इसके बारे में सोचना भी एक बड़ा चैलेंज ही था। सरकारी स्कूल को ठीक करने का अर्थ है ,शुद्ध रूप से आम आदमी के लिए कुछ ठोस और बड़ा कदम। सरकारी स्कूल में थोड़ा बहुत कमाने वाला भी नही पढ़ाना पसंद करता है। वो  बच्चों को गाली मोहल्लों के निजी स्कूल में पढ़ाना चाहता है। लेकिन श्री केज़रीवाल और मनीष जी ने दिल्ली के सरकारी स्कूल की काया ही पलट दी। टूटे फूटे और कभी साफ न रहने वाले स्कूल आज निजी स्कूल जैसे लगने लगे है। सम्पूर्ण गुणवत्ता पर एक मिशन की तरह दिल्ली सरकार जुटी है। स्कूल की बिल्डिंग से लेकर पढ़ाई एवं अन्य एक्टिविटी ने स्कूल को पूरी तरह बदल दिया और काया पलट हो गई। स्कूल की साज सज्जा से लेकर बच्चों को खुश रहने की बातें, तोतोचान ,जापानी  विश्व विख्यात उपन्यास में वर्णित बातों को जमीन पर लाने जैसा लगता है। सच में ये आप सरकार के साहस और मिशन का परिचायक ही है। पिछले पांच वर्षों में एक सपना साकार करने जैसा ही है। तरह तरह के स्कूल ,जैसे स्कूल ऑफ एक्सीलेंस जैसा प्रयोग देखते ही बनता है। अभी बहुत आम आदमी के बच्चे इन स्कूलों में जाते है, उनके स्वयं के जीवन में  परिवर्तन आने  लगा है। माहौल में परिवर्तन धीमे धीमे ही आता है। लेकिन दिशा और दशा के लिए दिल से धन्यवाद तो निकलता ही है।।
खेलों के लिए विश्व स्तरीय मैदान एक बड़ा कदम है। घुमनहेड़ा में हॉकी का आधुनिक मैदान बच्चों के खेल में आमूलचूल परिवर्तन का परिचायक सिद्ध होगा। 
मनीष जी और अरविंद जी ने ऐसा किया जैसे चंगेज़ आत्मतोफ के लघु उपन्यास " पहला अध्यापक "के टीचर दुष्यन ने किया । उस उपन्यास में रूसी क्रांति के बाद शिक्षा के विकास और संवर्धन के लिए दूरदराज में स्कूलों की स्थापना की और किर्गिस्तान के कुरकेव गांव में स्कूल की स्थापना की कहानी और स्टेपी मैदान में दूर दिखते टीले पर दो पॉप्लर के पौधों के रोपने के संग स्कूली शिक्षा का आरम्भ करने जैसा कुछ इन दोनों ने किया है। ऐसा काम सपना देखने वाले ही कर सकते है।
मैंने भी व्यक्तिगत रूप से सन 2000 में ठीक सरकारी स्कूल सुधार पर एक सपना बुना था। एक विस्तृत दस्तावेज तैयार किया था। हस्तक्षर अभियान भी आरम्भ किया ,लेकिन चरितार्थ नही हो सका। इसको मैं व्यक्तिगत विफलता ही समझूंगा। इसलिए भी दिल्ली सरकार के कदम को मैं अपने सपने को साकार होते हुए ,महसूस करता हूँ।  मेरे सपने को ,जो दिल्ली सरकार ने 14  वर्षों बाद साकार करना आरम्भ किया और 2019 तक ये मूर्त रुप भी लेने लगा है। जब मैं  अपने सपने की बात करता हूँ तो ये वो है ,जो हमने साकार करने की सोची ही नही ,आरम्भ भी किया था। लेकिन अंजाम तक नही जा सकें। संभव है, ऐसा सपना बहुत से लोगो ने देखा होगा। सपना देखते ही उसको साकार रुप देने में समय नही लगाना चाहिए। सपना एक व्यक्ति नही बहुत से व्यक्ति देखते है। जो पहल करता है, वो चरितार्थ भी करता है। 
दिल्ली सरकार ने कितनो के  सपने पूरे किए होंगे। ये चिंतन का विषय है। 
इस तरह स्कूल को सपने की तरह उभार देना , दिल्ली सरकार की बहुत बड़ी सफलता है। पूरा देश इस बात को  सिद्धान्त रूप से स्वीकार करता है।  बहुत कुछ अच्छा भी नही होगा। लेकिन जब एक आमूलचूल परिवर्तन होता है ,तो थोड़े कुछ पड़ाव समय के साथ यात्रा में शामिल होते रहते है। जिन्होंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई की है, उनको अपने सरकारी स्कूल को याद करना चाहिए। आज पुनः वहां पर  जा कर वो सारे पल स्मृतिपटल पर उभर आएंगे। मेरे जैसे केवल कक्षा में गप्प मारने वाले तो बहुत कुछ याद रखते ही है। टीचर की धुनाई, डंडा, मुक्का, मुर्गा और डेस्क पर खड़े होना ,कौन भूल सकता है। उस पर घर वालो का कहना " मास्टरजी शैतानी करे ,तो हड्डी फसली एक कर देना" । टीचर के नामकरण , मौका मिलते ही स्कूल से फुटक जाना ,कभी कोई भुला नही सकता।
 अंत में महान कवियत्री महादेवी वर्मा की लाइन याद हो उठी
 " चिर सजग आंखे उनींदी 
आज कैसा व्यस्त ताना ,
जाग तुझको दूर जाना", 
अभी दिल्ली सरकार की यात्रा जारी है। उम्मीद है ,जल्दी सरकारी स्कूल की ओर जनता का पॉजिटिव रुख आएगा, इस बात से  इंकार नही किया जा सकता, ऐसा मुझे विश्वास है। टूटते और बिखरते हुए  सपने को साकार करने के लिए ,दिल्ली सरकार,  तमाम एस एम सी टीम एवं  टीचर्स को सादुवाद ।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400

Tuesday 1 October 2019

गांधी : 150 रस्म अदायगी तक ही

गांधी : 150 रस्म अदायगी तक ही
जब कभी ग्रामीण विकास के विभिन्न आयामों की चर्चा होती है। ग्रामीण कुटीर उद्योग एवं स्थानीय संसाधन के समझदारी से उपयोग की बात होती है।  पर्यावरण एवं प्राकृतिक जीवन की चर्चा होती है। राजनीति में ईमानदारी और शांति अथवा अहिंसा की बात होती है, चर्चा गांधी तक स्वयं पहुंच जाती है। लेकिन गांधी की हत्या के बाद गांधी हमेशा खड़े मिले ,लेकिन उनके अपने और उनके विरोधवाले उनसे कन्नी काटने लगे। चाहने वालो ने उनको एक मूर्ति और सुबह शाम की प्रार्थना तक सीमित कर लिया और उनके विरोध वाले उनके विरोध के लिए तथ्य खोजने में लगे रहे। गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर राजघाट तक सीमित कर दिया और स्थानीय स्तर पर मूर्तियों तक सीमित कर दिया।  गांधी की नई तालीम जो देश को मिट्टी से जोड़ती थी, वो शिक्षा ऐरकंडिशन कमरों तक सीमित हो गई।  मिट्टी से कैसे दूर रहा जाए ,इस पर सबसे अधिक  जोर रहा।
गांधी ग्राम जहां पर ग्रामीण संसाधन,  मिट्टी की खुशबू की महक थी , पशुधन और जैविक कृषि थी,  वो सब कुछ रसायन में विलीन होता गया। गांधी का  अर्थ सभी हाथों को काम और सम्मानपूर्वक। हलदर बलराम के देश में किसान आत्महत्या  को मजबूर है ,जमीन जहरीली हो गई, जल दूषित हो गया, पशुधन आवारा हो गया, कृषि उत्पाद ज़हर से सराबोर है। ग्रामीण अर्थ तंत्र लगभग दम तोड़ चुका है।
खादी रोजगार परक थी ,अब फैशन हो  गई, उसका जन जन तक विस्तार होना था । लेकिन सिमट कर सम्भ्रांत होती गई। गांधी के संस्थान अभी भी मौजूद है,लेकिन गांधी नदारद है। दुनिया के सबसे उपजाऊ देश में जहां पर कृषि असीम हो सकती थी। कुटीर उद्योग सबसे बड़ा व्यापार हो सकता था। लेकिन सब विकास विनाश की रह की ओर बढ़ गया।  पेड़ों के पत्तो से बने  पत्तल को उपयोग में लाने वाला देश प्लास्टिक और थर्मोकोल में परिवर्तित होता गया।  गांधी का गांव सदियों से चली आई परंपरा से युक्त गांव था। जिसमे केवल हमने गतिरोध और पनप गई , कुरीतिओं और बुराइयों को दूर करना था। गांधी का चरखा ग्रामीण और निर्धन के लिए एक आधार था। चरखा एक सांकेतिक टूल था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आमूल चूल ताबड़ उलट फेर नही ,बल्कि धीमे धीमे विकास करना था । जिससे समय के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि में सुधार आ सकता था । लेकिन हरित क्रांति के आधार पर सदियों से चली आ रही जैविक कृषि को जड़ से उखाड़ना बच सकता था। गांधी धीमे धीमे लगते जरूर है, लेकिन उनकी चाल सतत और नित्य है।
ऐसा नही की विकास की पूरी धारा बेमानी है। लेकिन जल संकट, कृषि भूमि का नष्ट और बंजर होना। बहुआयामी कृषि को एक दो फसल तक सीमित करना गांधी का रास्ता नही है।
स्वराज्य केवल शब्द नही,  एक अहसास है , जो देश में आपसदारी और सद्भावना पैदा करने का एक मात्र आधार है। स्वराज्य में अंधराष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नही होता । स्वराज्य गर्व पैदा करता है, दम्भ नही। स्वराज्य देश की विभिन्नता को मजबूत करता है, कमजोर नही। मेरा देश बोलते हुए ,गर्व होना चाहिए ,दम्भ नही।
गांधी अहिँसा की बात कहते थे। अहिंसा मात्र हथियार न उठाना ही नहीं, बल्कि मन मैं बैठी हिंसा होती है ,जो युद्ध ही नही प्राकृतिक संसाधन के विरुद्ध भी हिंसा करती है। पिछले  पांच  दशक में प्रकृति के विरुद्ध हिंसा ने जल ,थल, नभ और भूमिगत सब कुछ निर्ममतापूर्ण लील लिया है। 
विश्व में हथियारों के जखीरे मन की हिंसा का प्रतिफल है। जिस पर बहुत कम बात होती है।
गांधी की स्वच्छता मन के भीतर से आती थी।, थोपी हुई नही थी। गांधी तन की सफाई के अतिरिक्त मन की सफाई पर जोर देते थे, ताकि गंदगी पैदा ही न हो। ये साफ दिख पड़ता है। दुनिया के हिंसक विकास के मॉडल ने गंदगी के ढेर लगा दिए ,जो विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। ऐसा केवल एक ही कारण से हुआ ,संकुचित सोच ,जिसने समग्र सोच को कुचल कर आगे बढ़ना चाह। गांधी प्रतियोगिता की जगह सामूहिकता और   समग्रता  की बात करते है। सब एक दूसरे के पूरक है ,न कि प्रतियोगी। मानव और प्रकृति में प्रतियोगिता नही ,  सामन्जस्य होता है।  सतत व समग्र विकास की अवधारणा में चींटी के अस्तित्व की बात  भी  उतनी महत्व रखती है, जितनी हाथी के  संरक्षण की।
गांधी को पूजना और मात्र मानना ही पर्याप्त  नही, जो उनकी हत्या के बाद आजकत हो रहा है। गांधी को केवल आत्मसात ही किया जा सकता है। आत्मसात के बाद वो जमीन पर खुद ही दीख पड़ेगा, मूर्ति के रूप में नही ,बल्कि अहिंसक और सतत विकास के रुप में, लहलहाते खेतों में, सेहतमंद पशुधन में और सभी धर्मों अथवा जातियों के बीच सद्भाव और प्रेम के रूप में। गांधी एक शरीर की हत्या हो सकती है,लेकिन गांधी की हत्या लगभग असंभव है क्योंकि गांधी अहिंसा , सद्भाव और प्रेम का परिचायक है, जो अस्तित्व के आधार तत्व है।  इतिहास साक्षी है, शांति का कोई विकल्प नही। युद्ध के बाद भी शांति ही एक स्थापित होती है। हिसा से दूर होना ही धर्म और अध्यात्म है। जो पुरातन और सत्य है। गांधी उसी सनातन परंपरा के वाहक है। कृष्ण ने कहां था कि शांति का कोई विकल्प नही। युद्ध केवल संहारक होता है। आज मानव दम्भ भरता है , अपने विकास का और अगर युद्ध हुआ था तो  खुद के हथियार मानव जाति को सर्वमुल नष्ट कर सकते है। ये केवल मन की हिंसा का प्रतिफल है।  जिसको गांधी ने कम करने का प्रयास किया। लेव टॉल्सटॉय ने गांधी  में शांति और अहिंसा की स्थापना की संभावना को 1910 में ही भांप लिया था।
गांधी दर्शन को उनकी हिन्द स्वराज्य में  प्रश्नकर्ता द्वारा पूछे गए प्रश्न कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया । उसका जबाव गांधी का मूल दर्शन कहा जा सकता है। उत्तर में गांधी लिखते है " अंग्रेजो ने नही बल्कि हम खुद ही उनके गुलाम बन गए", । मुठ्ठी भर अंग्रेज कैसे  हमें गुलाम बना सकते थे। लेकिन हम उनकी चीज़े के प्रति प्रभावित होते गए और अपना छोड़ते गए  ,बिना किसी आधार के ,ऐसी अवस्था में गुलाम बनना तय है। गांधी की ये बात आज भी सत्य है।
इसलिए गांधी मूर्ति नही ,कोई इमारत या  पुस्तक नही ,गांधी केवल होने से ही संभव है और करने से । गांधी 150 में गांधी को मनाने की बजाए ,आत्मसात किया जाए तो जमीन पर वो दिखने लगेगा, ये तय है।
(रमेश कुमार मुमुक्षु )
अध्यक्ष , गांधी शांति प्रतिष्ठान ,
दन्या, अल्मोड़ा ,उत्तराखंड