क्या मानव प्रकृति के सामने बौना है, क्षुद्र है और है , अशक्त ?
कोरोना तुम काल बनके आये
किस मकसद से ये कौन जाने
तितर बितर कर दिया तूने आदमी का दम्भ और न झुकने का झूठा संसार
भरी दुनियां में अपनों के चार कंधें भी नही मिल पा रहे है, विडंबना तो देखों सेवा से वंचित आदमी मृत्यु शैय्या पर कितने अपनो से दूर जाता अनुभव करता होगा। सब कुछ जो उसने अपने से बुनी दुनियां हथेली से फिसलती जा रही है। सब कुछ लॉक डाउन में तब्दील होता गया। कितना कुछ ठहर सा गया है। लेकिन आदमी के भीतर एक जिद है ,जो उसको आगे और पीछे ले जाती है। उसके बनाये सर्वनाश करने वाले सारे हथियार कितने लाचार है ,कोरोना के सामने ,जो अदृश्य सा सबको लील रहा है। एक बार पुनः प्रकृति से मानव का द्वंद आरम्भ हुआ है। एक बात तय हो गई कि मानव प्रकृति के सामने कितना बौना है, क्षुद्र और है , अशक्त । लेकिन क्या ये सच है कि केवल एक बात?
लेकिन वो इसमें भी उभर जाएगा और समझेगा की वो पुनः जीत गया। फिर उसकी यात्रा पूर्ववत आरम्भ होगी। फिर वो पर्यावरण को भूल जाएगा ,भूल जाएगा कि कोरोना के डर से वो दुबक गया था। फिर होगा ,पहले की तरह जीतने हराने का सिलसिला और भूल जाएगा ,की वो लॉक डाउन में दार्शनिक और चिंतक बन गया था।
उसने एक क्षण में नदियों, आकाश ,जल थल को स्वयं साफ होते हुए देखा और चमत्कृत हुआ था। वन्य प्राणियों को अपने प्राकृतिक रास्तों से गुजरते हुए देखा था ,जो वो भूल चुका था। लेकिन जो दुनियां हम बुन चुके है, उसमें से कैसे निकले और जमीन के एक एक कतरे को कैसे प्रेम करें ? ये हम भूल चुके है। जीतना ही हमें याद है। जीतने के लिए ये तय है ,किसी को हराना ही होगा। ये जीतने और हराने के सिलसिले से ही धरती को हम भूल जाते है, कि हम उसके ऊपर निर्भर है और उस पर ही उल्टे लटके से लगते है ,अगर दूर आकाश से देखें तो।
क्या लॉक डाउन आत्म मंथन था कि बस किसी वर्षा के दौरान भीगने से बचने के लिए तनिक किसी पहाड़ से निकली चट्टान के नीचे खड़े हुए टाइम पास ? ये तो सोचना ही होगा , ये तय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,हिमाल
9810610400
15.8.2020
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