असीम शक्ति की पराकाष्ठा लेकिन क्रोध रहित विनय भाव से परिपूर्ण आज्ञाकारी एक क्षण बिना सोचे स्वीकार करने वाला विशालतम व्यक्त्तिव शत्रु को भी गले लगाने का अदम्य साहस जो शत्रु वध कर उसका भी तर्पण कर सकने की असीम शक्ति जीवनपर्यत्न संघर्ष माता पिता भाई बंधु भार्या से दूर वनवासी बन विनयपूर्ण परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए चक्रवर्ती सम्राट को क्षण में तजकर अंगवस्त्र तक त्यागकर एक नही दो नही 14 वर्ष वनवासी बनने जैसी अग्नि परीक्षा को सहर्ष स्वीकार कर पिता के वचन को शीश चरण पर रख तजना राजा हरिश्चन्द्र का का वंशज ही कर सकता है प्रजा की सुनने वाला जिसने एक अंतिम व्यक्ति की शंका के आधार पर सीता को भी अग्नि होम में समर्पित किया जो आज तक विमर्ष का विषय है लेकिन उसके बाद कहाँ पर आनंद और रस से परिपूर्ण जीवन रहा अपनी ही संतान के संग अश्वमेघ युद्ध लड़ा लेकिन अडिग रहा ऐसा व्यक्तित्व जिसका कौन कर सकेगा अनुकरण और अनुसरण पूरे जीवन भर गांडीव धारण किया लेकिन जिसने एक बार ही क्रोध किया केवल समुद्र की हठधर्मिता को तोड़ने को अपने सबसे बड़े शत्रु का वधकर उसके चरणों की ओर खड़े होने का साहस और आसीन प्रेमभाव जो दंभरहित हो जिसके विराट रूप को देखकर शत्रु को प्रतिशोध से परिपूर्ण होना चाहिए था लेकिन भवविहल हो तर्पण के लिए शीष झुका लेता था क्योंकि ये मात्र जीत के लिए युद्ध नही था सत्य के लिए युद्ध थे सदियों से प्रतीक्षा में शापितों का तर्पण जो करना था ऐसे एक मात्र जो अवतरित होते है नाना रूप में ऐसे श्री राम का आगमन हम उनके ऋणी क्या कर सकेंगे उनका स्वागत जल जंगल जमीन वायु पाताल मानवता आपसी प्रेम त्याग बड़ों का सम्मान रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाए पर वचन न जाई को क्या हम किंचित मात्र भी अंगीकार कर सकते है आज कितनी निर्भया न्याय को तड़प रही है कितनी निर्भया को दिन रात प्रताड़ित किया जा रहा है रावण से बड़े दुष्ट आज मानव समाज में सम्मान पाते है सत्ता के लोलुपता से परिपूर्ण चक्रवर्ती राज को एक क्षण में तजने वाले राम को हम क्या स्वागत कर सकते है शत्रु के वध के बाद भी सम्मानपूर्ण रावण से उनके ज्ञान को नमन करने वाले राम जैसा व्यक्तित्व क्या हमारे भीतर अवस्थित है विद्यमान है कदापि नही लेकिन अब राम जैसा तो संभव नही लेकिन प्रेरित हो एक कदम तो उठाने की चेष्टा की जा सकें ऐसा प्रण लिया जाए अगर प्रण पर टिके रहने का साहस है तो वरना राम को ह्रदय से स्मरण कर व्यक्तित्व में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगे जिसके बाद जल जंगल जमीन समेत मानवता के प्रति दृष्टि बदले का भाव ही रामभक्ति का आरम्भ होगा तभी हम राम को दिल से बुला सकते है ताकि उनको लगे कि जो रामराज्य जो वो छोड़ गए वो अभी भी अस्त्तिव में है श्री राम कहने से क्रोध नही श्री राम का भाव प्रकट होना चाहिए जो क्रोधरहित तेजोमय और विराट हो इसलिए राम होना तो असंभव है लेकिन राम की अतिसूक्ष्म छवि और छाया को अनुभूत करना भी व्यक्ति को राममय बना सकता है केवल दो पंक्ति ही राममय कर सकती है
*होइ है वही जो राम रचि राखा को करे तरफ बढ़ाए साखा*
इसको स्वीकारना सरल भी है और असंभव भी है तय हमें करना है क्योंकि मानव मन को स्वयं मानव ही जान सकता है कि भीतर क्या है अगर राम की कृपा रहे और राम की कृपा स्वयं को उसमें विलीन करने की यात्रा से ही आरम्भ होती है और ये यात्रा का कोई आदि अंत नही केवल उस क्षण की प्रतीक्षा ही एक मात्र विकल्प है विडंबना है कि प्रतीक्षा भी करनी नही है निर्लिप्त भाव से परिपूर्ण हो मात्र दर्शनाभिलाषी बन कर्तव्यपूर्ण करते हुए इसको ही राममय होना कहते है ।
(रमेश मुमुक्षु)
अध्यक्ष, हिमाल
5.8.2020
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