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Tuesday, 10 December 2019

*(पुरानी कविता है ,जिसमे भगीरथ के सिर से निकली धार को निर्मल अविरल बहने दो की अपील है)*

(पुरानी कविता है ,जिसमे भगीरथ के सिर से निकली धार को निर्मल अविरल बहने दो की अपील है)
कैलाश पर बैठे ध्यानस्थ 
सर्पों को गले में धारण 
किये भभूत मले शरीर 
में 
जटाओं में 
भागीरथी की स्वच्छ धारा 
को बर्फीले साम्राज्य 
के घमंड रहित 
सम्राट 
गण , भूत , पिचास 
से घिरे 
डर भय जिनके 
पैरों पर गिर कर
अपने को लोप 
कर देते है
त्रिशूल  गाढे 
तीसरी आंख 
को बन्द 
किये 
अर्द्ध नेत्रों से  संसार 
के जड़ चेतन के ज्ञाता
डमरू 
के स्वामी
आकाश पाताल
समेत सम्पूर्ण सृष्टी 
के रक्षक 
को क्या हमारे जैसे
तुच्छ 
स्वार्थी प्रकृति के भक्षक 
शिव की जटाओं से 
निकली स्वच्छ 
जल की 
धारा 
से बनी गंगा 
को भी अपनी 
निकृष्ट 
स्वार्थी 
नियत और सीरत से 
लील कर 
अपनी कलुषित 
मानसिकता
के अनुसार 
मैला कर देने
वाले
बर्फ के साम्राज्य 
को भी खत्म करने 
को आतुर 
अपने को शिव भक्त 
कह कर
गर्वान्वित अनुभव करते
शिवरात्रि 
पर
आडम्बर कर
प्रसन्न करने 
का ढोंग करते
नहीं थकते
झूट स्वार्थ
लालच 
से भरा 
क्या शिव की अर्चना कर सकेगा
भोले को भोला समझ 
भांग धतुरा सुल्फा 
शिव का भोग समझ 
अपनी स्वार्थ की 
पूर्ति करता है
जो 
अपने आराध्य 
के सिर से 
निकली जल धार 
को नहीं साफ़ रख 
सका 
वो क्या शिव की अर्चना करेगा
अब तो वो शिव की तीसरी आंख से भी डरता नहीं
क्या शिव खोलेंगे अपनी
तीसरी आंख 
नहीं 
क्योंकि
आदमी ने स्वयं अपनी
मौत का 
सामान जुटा 
जो लिया है
जल जंगल जमीन 
समेत सब कुछ लील 
कर 
क्या हो सकेगी 
शिव अर्चना
हाँ अभी भी 
किसान , मजदूर 
वनवासी समेत वो सभी जो 
मानव और प्रकृति 
की सेवा में
लगे है
शिव की मूर्ति 
नहीं 
उनके 
पास प्रतिक 
को ही शिव 
समझ 
पूरी तन्मयता 
से सजीव को करते है
स्मरण
उनके निश्चल प्रेम 
को भी देख नहीं 
खोलता शिव 
अपनी तीसरी आंख
मानव की 
नीचता को देख
वो तांडव करने को तैयार 
है
लेकिन वो शिव है
अवसर देना
क्षमा करना 
उनका स्वाभाव है
वो भोले है 
लेकिन भोले नहीं
कुछ ऐसा करें की 
न खुले उनकी 
तीसरी आंख
एक क्षण 
में स्वाहा हो 
जायेगा 
हमारे स्वार्थ का
साम्राज्य
शिव की अर्चना 
उसकी जटा 
से निकली  
धारा अविरल 
निर्बाध 
बहने दो
शिव नहीं कहता
की उनकी तरह कैलाश 
पर रहो 
लेकिन 
ऐसा मत करों की 
कैलाश 
पर ही संकट 
आजाये
संभव है 
कुछ इस तरह 
उसकी अर्चना 
हो सकती
है
शायद......
रमेश मुमुक्षु

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