(बलात्कार का दंश)
निर्भया के
बलात्कार
और
कत्ल
का सिलसिला
अभी भी
जारी है
तंत्र का नंगापन
बलात्कारी को
माननीय कह रहा है
खूंखार भेड़िये भी
कितनी बार
गुर्रा के
दूर चले जाते है
लेकिन ये
सफेद पोश दरिंदे
कलफ़ लगे कपड़े
के
पीछे किसी बच्ची
को रौंदते हुए
उसके अस्तित्व को
मिटाते
उसके स्त्री होने को
दफ़्न
करते
तार तार करते
सीना ताने
दरिंदगी की इंतहा
से
परे जा कर
माथा उठाये
आदमी पर हंस रहे है
गाँव के बिचारे
कहे जाने वालों
को रौंदते हुए बने
कद्दावर
सड़ांध से भरे दिल
और दिमाग
जिनकी आंखों
में
गंदापन झलकता है
ये हमारे
आदमी होने को
उसकी खुली ललकार ही है
सत्ता के नशे में चूर हाकिम
शतर्मुर्ग की तरह
रेत में सिर धंसा कर
छाती ठोक रहे
ऐसे लगते है
जैसे कोई दरिंदा
खून पी कर
शैतानी
हंसी हंसता हो
कमजोर, शरीफ, डरे,
सहमे
कब तक
अस्मतों को रौंदने देंगे
कब तक दुर्गा मूर्ति बन
इन नर पिशाचों को
मूक बनी देखेगी
अब उठाना हो होगा
अपने ज़मीर को
झकझोरने ही होगा
अब रौंद देना है
दरिंदो की
छाया को भी
नही
तो ये घरों में घुस जाएंगे
निर्भया को अब नही मरना है
काली बन टूट जाना है
बच्ची के बलात्कार से
नही
लुटती
घर की इज्जत
लुटती है
मानवता और मानव
अस्तित्व
उसका लुटता है
जीने का
हक़
उसका औरत होना
उसकी आज़ादी
उसका अपनापन
उठो
उन हवस के दरिंदो
को नेस्तनाबूत कर
डालो
कानून कितनी बार
इन
नरपिशाचों को
देख
आंख और ज़मीर पर
पट्टी बांध लेता है
बच्ची और किसी
महिला की
चीख़
नही छेद कर पाती
आकाश में
लेकिन अब
नही
होने देंगे
किसी की
अस्मत
को खत्म
बलात्कार का
का कोई नही
धर्म,
जात और देश नही होता
वो तो केवल बलात्कारी
ही होता
मानव को चुनौती देता
अभी भी जारी है
जारी रहेगा
जब
तक
औरत को होना औरत
नही होगा
तय
जब तक
जब तक ये कैंडल मार्च
ज्वाला
में बदल नही जाती
नही सूखते
आंखों के आंसू
नही उतरता खून
बच्ची बच्ची होती है
उसका बच्ची होना
बचाना है
बचाना है
उसका
औरत होना
मिटाना है
बलात्कार का दंश
हटाना है
उन सभी दीवारों
को जो
भेद करवाते है
बच्ची के साथ
उन झंडा उठाने
वालों को
बालात्कार
के संग खड़े है
बहुत हुआ
बहुत सहा
बहुत रोये
गिड़गिड़ाए
अब नही
बिल्कुल नही
कदापि नही
(रमेश मुमुक्षु
आर टी आई एक्टिविस्ट
अध्यक्ष ,हिमाल
9810610400
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Saturday, 14 April 2018
बलात्कार का दंश
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