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Wednesday, 18 September 2024

हिंदी दिवस : आओ विचार करें

हिंदी दिवस : m?R,i

 आओ विचार करें
हिंदी दिवस और पखवाड़ा इस बात का परिचायक है कि अभी हिंदी राज्य भाषा नही बन सकी है। वैसे भी हिंदी के बड़े परिवार से बहुत सी  समृद्ध जो हिंदी से पुरानी है, अलग हो चुकीं है। तकनीति रूप से हिंदी का कद छोटा होता जायेगा। हालांकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है ,जिन्हें इंग्लिश नही आती । लेकिन इसका अर्थ ये नही है कि हिंदी का चलन बढ़ा है। हिंदी का कद फ़िल्म , फिल्मी गाने और टीबी सीरियल  से  बढ़ा है। लेकिन शिक्षा के प्रसार में अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ने वाली की संख्या अधिक होती जा रही है। गैरसरकारी और निजी स्कूल का चलन केवल अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई के कारण बढ़ा है। 
आजकल बच्चे हिंदी में गिनती तक भूल गए और दूसरी और अंग्रेज़ी में भी बच्चे पारंगत नही है। लिखने में तो थोड़ा बहुत लिखने और रटने से काम चल जाता है। लेकिन बोलने में अभी भी पिछड़े है।  लेकिन लोग इससे भी खुश है कि उनका बच्चा अंग्रेजी में पढ़ रहा है। अभी भी समाज में अंग्रेज़ी जानने वाले का सम्मान अधिक होता है। इस  मानसिकता  ने भी हिंदी के प्रति उदासीनता पैदा की है। नौकरी तो एक कारण है ही। कुछ वर्ष पूर्व हिंदी मीडियम से किसी विद्यार्थी ने राजनीति शास्त्र में प्रथम स्थान प्राप्त किया, ये जानकर सबको ताज्जुब हुआ। विद्यार्थी को ये जानकर बुरा लगा , तब मैंने उस विद्यार्थी को कहा कि इसमें हतोत्साहित होने की कोई बात नही है क्योंकि जो प्रोफेसर भी है, वो प्लूटो का अनुवाद इंग्लिश में पढ़ते है, तुमने हिंदी में पढ़ा तो क्या अंतर पढ़ गया?  ये सब भीतर गहरे में पूर्वाग्रहों के कारण होता है। 
लेकिन गूगल ने लोगो को हिंदी लिखना सिखा दिया। आजकल बहुत लोग जिनको हिंदी टाइप नही आती वो भी हिंदी टाइप कर लेते है। मैं स्वयं इसी तरह टाइप करता हूँ। इससे लिखने की आदत लगभग छूट ही है ।
सरकारी विभाग में भले आप हिंदी में लिखे , लेकिन जबाव अंग्रेज़ी में ही आएगा। कम से कम केंद्र सरकार में तो हिंदी अनुभाग  केवल अनुवाद के लिए ही खुले हुए है। संसदीय प्रश्न का अनुवाद हिंदी में होना अनिवार्य है, वो भी इस कारण ।अभी स्मार्ट फोन आने से लोग हिंदी का भी इस्तेमाल भी करने लगे है। 
हिंदी को राज्य भाषा का दर्जा मिलने में अड़चन इसलिए भी है क्योंकि अन्य राज्यों के नागरिक इसको अपने ऊपर हिंदी तो थोपना कहते है। इसका एक कारण हो सकता है कि भारत में अन्य भाषाओं को समुचित सम्मान नही मिला। स्कूल में विदेशी भाषा का विकल्प रहता है। आजकल संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन तमिल और अन्य भाषा का भी समृद्ध इतिहास रहा है। उन भाषाओं को स्कूल में एक विकल्प के रूप में क्यों उचित सम्मान नही मिलता? ये सोचने का विषय है।  ये भी विडंबना है कि लोग विदेशी साहित्य को जानते है ,लेकिन तमिल जैसी समृद्ध , प्राचीन और परिष्कृत भाषा के इतिहास  के संगम काल को नही जानते, जो ईसवी पूर्व चरमोत्कर्ष पर था।
हालांकि जवाहर नवोदय विद्यालयों में बच्चों को किसी अन्य राज्य में जाकर रहना होता है और उसकी भाषा सीखनी होती है। लेकिन मेरा दावा है ,इस विषय में सब लोग नही जानते। इसलिए हमें भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए। शिक्षा नीति 2020 में मातृ भाषा में शिक्षा के साथ अन्य भाषा के विकल्प का प्रावधान रखा है। इसके ठोस रूप से लागू होने से इसमें मूल रूप से परिवर्तन आ सकेगा, उम्मीद तो की ही जा सकती है।
एक बात तो हम सब स्वीकर कर ही लेंगे की हिंदी में पूरे देश की संपर्क भाषा होने का सामर्थ्य कहूँ या  संभावना, इस बात से इनकार नही किया जा सकता। हिंदी भाषा को आप किसी भाषा या बोली की तरह बोल सकते है , हिंदी भाषा का हिंदीपन खत्म नही होता। तमिल हिंदी , गुजराती हिंदी आदि बन कर भी हिंदी ही रहेगी । लेकिन किसी अन्य भाषा को हिंदी की तरह नही बोला जा सकता क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वो हिंदी ही हो जाएगी।  हिंदी में नए शब्दो को अपने भीतर समाहित करने  की काबलियत है, इसलिए हिंदी का आकार समय के साथ भी बढ़ता रहता है। कुछ लोग शुद्ध हिंदी की बात करते है ,लेकिन हिंदी अपने साथ विभिन्न शब्दों को लेकर चलती है। इसी कारण उसमें सम्प्रेषण की असीम संभावना है, इसलिए इस भाषा में संपर्क भाषा होने का गुण तो है। हिंदी परिवार से तकनीती तौर राजस्थानी, मैथिली, ब्रज और अन्य भाषा भले वो अपनी अलग  हो गई हो , लेकिन हिंदी की तरह संपर्क भाषा का स्थान नही ले सकती। बहुत से लोग सुनते मिलते है कि अपनी भाषा बोलो, हिंदी ही नही। बहुत से घरों में अपनी भाषा बोली की जगह हिंदी बोलते है ।भारत में किसी भी राज्य में आज भी हिंदी भाषा के कारण संपर्क हो सकता है। हालांकि अभी अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित किया जा रहा है। 90 के दशक में सरस्वती शिशु मंदिर का प्रचार इसलिए अधिक हुआ क्योंकि उसमें अंग्रेज़ी भाषा प्रथम कक्षा से पढ़ाई जाने लगी थी। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों ने हिंदी धर्म और संस्कृति का कितना प्रचार और प्रसार किया ,ये कहा नही जा सकता । लेकिन अंग्रेज़ी के प्रति दूर दराज में रहने वालों का भी आकर्षण बड़ा ही है। 
डंडे के बल पर इसको लागू नही किया जा सकता है। जिनको हिंदी आती है , उनको तो इसका उपयोग करना ही चाहिए। सामाजिक , धार्मिक और अन्य क्षेत्रों में अंग्रेज़ी और हिंदी वालों का अंतर दीख पड़ता है। कोर्ट कचेरी में अधिकांश काम अंग्रेज़ी में होता है। निचली अदालत में ज़िरह जरूर हिंदी या लोकल बोली में होती है, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो अखबार की खबर का भी अनुवाद करना होता है। जज अधिकांश  अंग्रेज़ी में ही ज़िरह करते है। क्लाइंट जिसके केस पर ज़िरह होती है, वो समझ ही नही पाता कि क्या हो रहा है? ये सब चीज़े लचीली होनी चाहिए। किसी भी भाषा को संपर्क भाषा तो होना ही है। अभी लोग दक्षिण में पढ़ रहे है। इस तरह उनको उसी राज्य की भाषा को जानना चाहिए । लेकिन वहां भी लोग हिंदी , जो अपने तरह से बोली जाती है , का इस्तेमाल करने लगे है। किसी ने कहा नही की हिंदी का इस्तेमाल करो। लेकिन वो एक संपर्क भाषा के रूप में स्वतः ही पहुँच गई। ये हिंदी को लाभ है। जैसे अंग्रेज़ी अलग देशों में उसी तरह बोली जाती है। लेकिन वो होती अंग्रेज़ी ही है। बहुत से लोग संस्कृत को संपर्क भाषा के रूप में प्रचारित करते है। संस्कृत पढ़ाई जाए । लेकिन वो हिंदी की जगह लेगी , फिलहाल संभव नही है।  अभी जो लोग संस्कृत के जानते है, वो ही आपस में संस्कृत नही बोलते है। इसलिए सभी भाषा का सम्मान और उनके इतिहास की जानकारी से सारी भाषा नजदीक आएगी। इस संदर्भ में जवाहर नवोदय विद्यालय ने जो पहल की है। इसके लिए राजीव गांधी के विज़न जिसमे दूरभाष और कंप्यूटर के साथ स्कूल में ही बच्चे एक अन्य भाषा भी सीख लेते है, एक बहुत बड़ा कदम था। इस तरह के ताने बाने से ही हिंदी के प्रति लोगो को गुस्सा नही आएगा,  बल्कि उनकी भाषा और बोली को यथोचित सम्मान न मिलने से वो हिंदी के विरुद्ध बोलते है।
इसलिए उस दिन का इंतजार तो रहेगा जब हिंदी सप्ताह मनाना बन्द होगा और लोग अंग्रेज़ी को याद करेंगे।  लेकिन अंग्रेजी पढ़ेंगे जरूर। क्या आएगा ऐसा दिन ? ये सोचने का विषय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
18.9.2024
14.9.2025

Tuesday, 16 July 2024

दिल्ली : 💦 पानी के लिए निर्भर क्योंकि अपना पानी खत्म कर दिया

दिल्ली : 💦 पानी के लिए निर्भर क्योंकि अपना पानी खत्म कर दिया
अभी मुनक  नहर से  पानी नहीं आया तो दिल्ली बिन पानी हो गई। द्वारका उप नगर जिसका नाम लेते ही हम सभी को गर्व होता है। 👉ऊंची ऊंची बिल्डिंग और बढ़ती कीमत जैसी बातें भी कहते थकते नहीं। लेकिन अभी पानी की सप्लाई रुकी तो सबके हाथ पैर ठंडे हो गए। एक बूंद पानी हमारा अपना नही है। 
👉सभी गांव में जोहड़, कुएं हुआ करते थे। अभी भी जोहड़ जिसको वाटर बॉडी कहते है, मौजूद है, या तो वो पार्क के रूप में बदल दिए गए या गंदे पानी से भरे हुए है। 
👉नजफगढ़ नाला असल में साहिबी या साबी नदी थी। लेकिन अभी ये सीवर के पानी को ढोकर ले जाने वाला नाला बन कर रह गई।
👉नजफगढ़ झील एक पानी का बहुत बड़ा स्रोत है, बल्कि वेटलैंड ही है, लेकिन अभी उसमे भी गुरुग्राम , मानेसर के सीवर और केमिकल युक्त पानी ही आता है। इसके अतिरिक्त यमुना नदी तक कितने सीवर से भरे नाले उसने गिरते है। जो यमुना को सबसे अधिक दूषित कर देता है।
👉पहले एनजीटी और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी वेटलैंड अधिसूचित करने के निर्देश दिए है। लेकिन सरकार और बिल्डर आदि नही चाहते।
द्वारका और द्वारका एक्सप्रेस पूरा ऊंची ऊंची बिल्डिंग से भरा हुआ है। लेकिन प्राकृतिक पानी की एक बूंद भी नही है। एक बोतल पानी भी किसी प्राकृतिक स्रोत से नही ले सकते है।
👉ये है,हमारा बिन पानी के विकास का मॉडल । करोड़ों की बिल्डिंग और एक बूंद पानी  प्राकृतिक स्रोत का नही है। ये 🤔बहुत गंभीर चिंतन का विषय है। ये मॉडल पाइप लाइन से पानी लाने का है। पाइप लाइन आया और प्रकृति के स्रोत पूरी तरह इग्नोर कर दिए जाते है । स्थानीय वन और प्राकृतिक वनस्पति भी विकास की आंधी में खत्म होते गए है।👉 कभी दिल्ली जैसे महानगर में अपना खुद का पानी था, जंगल और जैवविविधता थी। लेकिन विकास के मॉडल में उनके  लिए स्थान नही तय किया गया। 
👉बिन पानी विकास और कूड़े और कचरे के पहाड़ परिणाम है , हमारे शहर और महानगर। लेकिन ये विकास अब गांव की और पैर पसार रहा है।
🤔 अब उत्तराखंड के गांव में भी कचरा विशेषकर प्लास्टिक आदि फैलने लगा हैं । पाइप से पानी का विकास भी तेजी से फैलने लगा है। हालांकि प्राकृतिक स्रोत मौजूद है, लेकिन उनमें भी पानी आदि बहुत कम होता गया है। परंपरागत नौले आदि भी भुला दिए गए है। कभी इन को गांव के लोग  रूटीन में साफ और व्यवस्थित करते रहते थे, लेकिन अभी पानी न आने पर ही होता है। 👉पाइप के विकास ने पाइप तोड़ना , बुझा लगाना सीखा दिया है। लेकिन पानी के स्रोत मौजूद है , इनके रिचार्ज के लिए कार्यक्रम चल रहा हैं । इनकी ओर देखना और गांव में प्लास्टिक को मैनेज करने से बहुत कुछ ठीक हो सकता है । विकास हो लेकिन गांव के संसाधनों को संरक्षित करते हुए। 
👉महानगर विकास की आंधी में अपने सारे प्राकृतिक और परंपरागत जल स्रोत लील गए। महानगर के विकास के मॉडल में सैंकड़ों किलोमीटर पाइप से पानी लाने का प्रावधान रहता है। लेकिन अब समय की मांग है कि महानगर में भी अपने पानी का संरक्षण और पानी का शोधन करके पानी दार बनना है। घर और कॉलोनी अथवा सोसायटी का पानी पुनः साफ करके इस्तेमाल करें। द्वारका जैसे उप महानगर में वर्षा जल संग्रहण एवं उपयोग के बाद पानी का शोधन युद्ध स्तर पर किया जाना जरूरी है। 
अभी विकास के कारण जमीन के नीचे भूजल भी कब का खत्म हो चला है। जो है, वो बहुत ही खारा पीने लायक भी नहीं है ।
इस बार की गर्मी और अभी जल संकट ने बहुत बड़ा इशारा किया है। ये इशारा शहर और गांव सभी के लिए है। पर्वतीय क्षेत्रों में भीषण गर्मी जंगल की आग और सूखते जल स्रोत ने भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया है।
सभी को एक साथ बैठकर सोचना ही नही बल्कि आगे बढ़ना ही होगा। महानगर में मियावकी 🌲वन,  🌧️ वर्षा जल संग्रहण और उपयोग हुए जल का शोधन के साथ घर से ही कचरे का प्रबंधन इसका उपाय हो सकता 
है । 
रमेश मुमुक्षु
9810610400
16.7.2024

Sunday, 7 July 2024

👉मानव और प्रकृति: स्वंभू बनने की 👎व्यर्थ होड़

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👏🌹स्व.सरला बहन ,लक्ष्मी आश्रम, कौसानी, अल्मोड़ा की संस्थापिका की 8 जुलाई को उनकी पुण्य तिथि के उपलक्ष में समर्पित कुछ पंक्तियां🌲🌲

👉मानव और प्रकृति: स्वंभू बनने की  👎व्यर्थ होड़ 

🌞 भीषण गर्मी में वर्षा की आस 
तेज 🌧️ वर्षा में धीमी वर्षा की दरख्वास्त 
गर्मी में पानी की कमी पर याद आते हैं, परंपरागत जल स्रोत 
वर्षा आते ही पुनः विस्मृत हो जाते है
लगातार वर्षा में रुकने का आग्रह
सूखी नदी में पानी बहने की इच्छा 
बाढ़ आने पर उजड़ जाने का भय
घने 🌲 जंगल में कुछ पेड़ काटने की चर्चा
उजड़े जंगल को आबाद करने का प्रयास
 🏡 पुराने घर तोड़ कर कंक्रीट की होड़  
कंक्रीट की जगह पुराने मकान बनाने की चर्चा
🌾 फसल बढ़ाने के लिए रसायन का इस्तेमाल
रसायन हटाकर  जैविक के मिशन
हम मानव है विचित्र कभी किसी को भगवान  बना दे और किसी को हैवान 
असल में हमारी औकात प्रकृति को काबू करने की है ही
नही, लेकिन हम है कि काबू करने में लगे है
कुछ कुछ खोज और अविष्कार करके लगता है कि प्रकृति को काबू करने की कुंजी मिल गई
लेकिन फिर उसी खोज के परिणाम हमको पुनः उसी बिंदू पर ले आते है, प्लास्टिक का अविष्कार और खोज की जीत और उसके परिणाम का दंश पूरी मानवता को जैसे लील लेने को आतुर है
💣 परमाणु हथियारों का घमंड और बटन दबाने का भय
कबीर ने अपनी उलटबासियों में खूब ये सब खूब  लिखा है
लेकिन हम मानव जिसको विश्व गुरु और प्रकृति को काबू करना है, लेकिन प्रलय तक कैसे स्वीकार करें , उसके बाद सब जीरो हो जायेगा, कि हम प्रकृति के सामने मात्र एक जीव है, जिसकी डोर प्रकृति के हाथ में है,
वर्षा को ला  नही सकते,
वर्षा को रोक नहीं सकते
बाढ़ को बांध बनाकर रोक सकते है, लेकिन प्राकृतिक  आपदा को क्या रोक सकेंगे
हम केवल  कठपुतली के पात्र के समान ही है, केवल कठपुतली के पात्र 
क्या मानव मन स्वीकार करेगा
कदापि नही, ये तय है
रमेश मुमुक्षु
9810610400
7.7.2024

Sunday, 12 May 2024

ऐसी ही ठहरी ईजा

(ऐसी ही ठहरी ईजा)
वो पूरन की ईजा थी 
खेत जानवर 
हाथ में दरांती 
भोर सुबह से 
रात तक केवल काम 
मेहनतकश जीवन
पुरखों के खेतों 
को अपने खून पसीने 
से सींचती 
अपने  चारों बच्चों की
 आस
वो लगी रहती थी
अपने नित्य कर्म में
ईजा नाम ही मेहनत का
 पर्याय है
सीधी सादी सभी प्रपंचों से 
कही दूर
क्या अपने बच्चों को 
दे दूँ
पोटली उसकी कभी 
नहीं होती
थी खाली
आज  पूरे पहाड़ में 
कुछ एक खेत
 हरे भरे है ये  केवल 
ईजा का 
ही प्रसाद है
लड़ेगी भिड़ेगी 
उजाड़ खाने वाले जानवरों 
के मालिक से
उसके काम का
कोई मोल नहीं
एक धुरी  है
घर की
अभी भी कुछ एक 
पुराने मकान 
पाल के अस्तित्व में है
केवल ईजा के कारण
ईजा के बीमार होते ही
और 
न होने मात्र से पूरे 
घर की 
नींव ही हिल
जाती है
तब समझ आता है
उसके होने का अहसास
पूरन  की ईजा कैंसर 
से ठीक होने पर
भी भेंस पालने
का सपना देख रही 
थी
  उसका अडिग विश्वास , तकलीफों को झेलने
का अद्भ्य साहस 
देखते ही बनता था
बीमार होने पर भी सपना 
और
संकल्प खेत और जानवर का ही
सच यही अहसास बचा सकता  है खेत खलियान को
उसके लिए कभी काम 
ही सच है
बहस और चर्चा से दूर
उसके खेत में कभी 
नहीं रुका काम
कभी नहीं सूखी
उसकी क्यारी 
जिसमे सब्जी उगाती
 थी 
ईजा
राजनीति के दंगल से 
दूर 
केवल 
कृषि कर्म को 
निभाती ईजा
क्या शोषित थी?
क्या उसका शोषण हुआ था?
क्या उसका खेत में काम करना 
उसके साथ न्याय नहीं था?
क्या वो किसी दबाव में करती थी 
 खेती?
हो सकता है की 
ये सवाल सही भी हो 
लेकिन उसके घर पर आये
 मेहमान को 
कटोरी या गिलास में 
दही और दूध देना 
केवल उसका प्रेम और 
उसका ईजा होना ही था
ये ईजा ही है 
जो 
अभी भी 
खेत जानवरों और जंगल 
को अपने साथ ही ले गई
टूट गया सदियों का सिलसिला
एक ईजा से टूट सकता 
है 
एक पूरा गाँव और पूरे  खानदान
का आश्रयस्थल
ये सोचने जैसा है
गाँव जिन्दा रखने के लिए
ईजा का होना
कितना अहम् है
ये तो केवल वो  ही 
जाने जिनकी 
ईजा 
के जाने से टूट गया धागा
जो सबको बांधे था
ऐसी ही ठहरी अपनी  ईजा
सच ऐसी ही......
रमेश मुमुक्षु
12.2.2018