लोहड़ी दो भइ लोहड़ी दो
70 के दशक में हम लोग पांचवी से आठ में पढ़ने वाले और कुछ छोटे भी करीब 8 से 10 बच्चें घर घर जाते थे , गाना गाते थे:-
सुंदर मुंदरिये हो, तेरा कौन बेचारा हो
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ती विआई हो,
शेर शकर पाई हो, कुड़ी दे जेबे पाई हो,
कुड़ी कौन समेटे हो, चाचा गाली देसे हो
चाचे चुरी कुटी हो, जिम्मीदारा लूटी हो,
जिम्मीदार सुधाये हो, कुड़ी डा लाल दुपटा हो,
कुड़ी डा सालू पाटा हो, सालू कौन समेटे हो,
आखो मुंडियों ताना ‘ताना’, बाग़ तमाशे जाना ‘ताना’,
लोहड़ी दो लोहड़ी
उस वक्त कोई पांच पैसे , दो पैसे दे दिया करते थे।बच्चें मिशन की तरह सब के घर जाते थे, क्या जोश होता था, उमंग से भरे घूमते थे । पैसा मिलने पर रेवड़ी, ग़जक, गुड़ की पट्टी और मूंगफली खरीद कर लेकर आनंद लेते थे। ये सब खरीद कर बच्चे चुंगा भी लेते थे। चुंगा सबसे आकर्षित होता था।
कोई शर्म नही, जिझक नही। जब कोई कुछ नही देता ,तो बच्चें खीझ में बोलकर कर रफू चक्कर हो जाते थे हुक्का जी हुक्का, ये घर बुख्खा
कोई झगड़ा नही, बस ये वर्षो चला। उस वक्त बड़े स्तर पर पंजाब के लोग ही आग जलाकर लोहड़ी मानते थे, लेकिन आनंद सब लिया करते थे। बचपन के दिन यकायक याद आ गए। दोस्त अब नाती पोते वाले हो चले है। शायद उनको याद है कि नही, कुछ इन खूबसूरत यादों को छिपाने भी चाहते ,लेकिन ये पत्थर की लकीर पर अंकित यादें है, इन पर समय की परत चढ़ सकती है, लेकिन मिट नही सकती। मुझे विश्वास है,ये पढ़ कर वो मंजर याद आ ही जायेगा। बेतरतीब स्वेटर, जूतों में झांकते झरोखे, रंग बिरंगी चप्पल , कई बार नंगे पैर सड़क पर ऐसे चलते थे कि बादशाह हो , मित्रों एक क्षण के किये बचपन के निकट जाने का आनंद ये चंद शब्द दे ही देंगे, ये तय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष, हिमाल
9810610400
13.1.2022
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