वर्षा के आने पर कभी खुश होते थे ,अब होते दुःखी: विकास की यात्रा की एक बानगी देखें
करीब 70 के दशक में वर्षा आते है ,निकल पड़ते थे ,हम जैसे सभी बच्चे, न पैरों में चप्पल न जूते , जिसको आज पानी का भरना कहते है, उस जल भराव में बच्चे छपाक से कूद फांद करते थे, खुली बरसाती नालियां होती थी। हां, एक बात है, उन नालियों में बह जाने का भय जरूर था।।कभी कभी उन तेज बहती बरसाती नालियों में चप्पल फेंक कर उसको दूसरी जगह पकड़ने का एक खेल बच्चों में प्रचलित था।। कागज की नौकाओं के बच्चे कारीगर ही होते थे। नाव बनाकर पानी में डाल कर जब वो हिचकोले खाती चलती थी,उसका अलग आनंद होता था।। घटों हम बच्चों का वाटर स्पोर्ट चलता था। मोती बाग ,नई दिल्ली 21 एन डी एम सी प्राइमरी स्कूल के सामने एक छोटा सा गोल चक्कर ,जिसे आज राउंड अबाउट कहते है, उसके ठीक सामने पानी इकठ्ठा हो कर बहता था।वर्षा हुई और सभी बच्चे ,निकल गए ,फटी पुरानी निक्कर पहन , हाफ पैर और शार्ट का पुराना नाम, बस फिर क्या था ,कूद फांद, छपाक और चिल्लम चिल्ली , उठा पटक , हाथों से छपाक छपाक का आनंद कुछ और ही था। ये रोड पर ही होता था। बच्चों को मालूम था कि घर जा कर मां ने पिटाई करनी है। उस वक्त थप्पड़, चिकोटी, डंडे से पिटाई आम बात थी। घर वाले स्कूल के मास्टर को बोलते थे ,मास्टर जी अगर ये न पढ़े तो थींस देना , सूत देना , रुई की धुनाई जैसे बच्चे ठुकते थे, लेकिन किसे इसकी परवाह होती थी।
मज़े की बात अब बचपन की याद आती है, वो सारे खुले नालों में केवल बरसात का पानी बहता था। उस समय पॉलिथीन भी नही था, उसको लोकल भाषा में मोमजामा कहते थे। वो मोड़ा बनाने में काम आता था, मोड़ा जो एक तरह का रेन कोट । अगर खुदा न खस्ता पिताजी का बेंत की डंडी वाला बड़ा छाता हाथ लग गया ,तो कितने ही छोटे मोटे हम एक साथ कंधें पर हाथ टिका कर घूमते थे, उसका भी आनंद अलग था। हवा में वो छाते खुलकर उल्टे हो जाते थे, उस वक्त सांस अटक जाती थी। बाप की ठुकाई जो खानी पड़ती थी। बच्चों का एक और शौक था, नालियों के अगल बगल आम के पौधें उखाड़ कर उसकी उसकी घुठली निकाल कर ,थोडा घिसकर पी पी करते डोलते रहो। उसको पप्पियाँ कहते थे। ये कुछ शब्द केवल चलन में होते थे।
पानी में तेरते केंचुए पकड़ना भी एक खेल ही था।आज वर्मी कंपोस्ट की चर्चा करते है। इसके इलावा एक रेंगने वाला भूरा और सफेद धारी वाला जीव भी हमारे खेल का हिस्सा होता था। बरसात के बाद मिट्टी की ऊपर की चिकनी परत को हम बच्चे मलाई कहते थे।
पैसा जेब में होता नही था। बरसात के मौसम में जामुन खाने के लिए कुछ पेड़ थे, मजाल है, नीचे कोई जामुन गिरे और वो बच्चों के हाथ से बच जाए, आजकल जामुन के पेड़ को इसलिए नही उगाते क्योंकि वो गंदगी करता है। फल के गिरने को गंदगी तक हमारा विकास आ गया है। पहले बच्चे पत्थर से जामुन गिराकर खाते थे। उस वक्त कार तो दूर ,स्कूटर भी एक आध के पास ही होता था। केवल सरकारी मकान के शीशे टूट जाते थे, जो लग जाते थे। आम का चूसना उस वक्त के हम बच्चें ही जानते थे, जब तक आम का आखिरी रेसा रहता था, चूसते रहते थे। हम बच्चे कड़की के बादशाह होते थे। कितने ही पत्ते और उनकी कोंपले खाते थे। आम, जामुन, नीम, घास भी, एक खरपतवार होती थी, उसके हरे काले फल होते थे,वो बहुत प्रिय थे। इमली के पत्ते, एक घास में उगता था, वो भी खट्टा होता था, लपेट लेते थे। नीम की निबोलियाँ तो बहुत प्रिय थी। उसी दौरान चाणक्य सिनेमा घर के पास एक अंडर पास बना था,वो बरसात में भर गया, एक डी टी सी की बस फंस गई,ये अजूबा था ,उस समय का। यमुना में बाढ़ खतरे के निशान से ऊपर बह रही है,ये आम खबर होती थी। 1978 में ढांसा बांध टूटने से सब और पानी भर गया ,सब कुछ डूब गया था। उस समय स्कूलों में शरणार्थी आये हुए थे। हमारे लिए वो दिन आनंद के दिन थे, क्योंकि छुट्टी होती थी। लेकिन अब पता चला कि वो साहिबी नदी का पानी था, जो नजफगढ़ झील बनाता था ,अब केवल सीवर का पानी ही रह गया।
घरों में पकोड़े, फुलवड़ियाँ, पापड़ जैसी खाने की चीज़ें बनती थी। आलू के चिप्स उनपर लाल मिर्च की खुशबू और स्वाद से लिखते लिखते मुहँ में पानी आ गया। जुखाम हो जाये तो चांटा रसीद और तुलसी के पत्तों की चाय या काढ़ा मिलता था।ये समय आम के अचार का भी होता था, बच्चे अचार खाने के जुगाड़ खोजते रहते थे। उस वक्त चीनी मिट्टी के बर्तन जिसको ,मर्तबान कहते थे, अचार डाला जाता था। घर पर ही बड़े बड़े मर्तबान में आचार डालता था। उस अचार की खुश्बू आज भी स्मृति में जीवित है। बरसात में बच्चों के फोड़े और फुंसी आम बात थी। उनपर लाल और नीली दवा अक्सर बच्चों के लगी रहती थी। चौलाई, गोकुरु का साग बच्चे तोड़ते थे।
बरसात में स्कूल की छुट्टी भी हो जाती थी। हमें याद है,पांचवी से छटी में गए तो ,उस वक्त स्कूल की नई बिल्डिंग का काम हो रहा था। हम बच्चे पैरों में कीचड़ ला कर जूतों से फर्स पर लगा देते थे तो कितनी बार छुट्टी हो जाती थी। छोटे बच्चे कितने उस्ताद होते है, या अब सोच कर महसूस होता है।जिन दिनों बारिस की झड़ लगती थी, रात दिन हल्की ,तेज बारिश होती रहती थी। कई बार सात दिन तक झड़ लगती थी। उस समय का आनंद क्या होता था। हर घर में तोरी की बेल होती थी। उसके पीले फूल और उनपर मंडराते भवरें और एक लाल और काली धारी वाला कीट बच्चों का प्रिय होता था। उससे भी खेलते थे।
रात को मेडक की टर्र टर्र आज भी याद है। उसको हम डडू बोलते थे, शायद पंजाबी शब्द होगा। बरसात का आना एक आनंद देता था। पानी का नालियों में बहना बच्चों के रोमांचकारी खेल होते थे। ये सब खेल प्राइमरी स्कूल तक के लिख रहा हूँ।कितने छोटे छोटे बच्चे घंटों पानी में खेलते थे।हमारा वो ही वाटर स्पोर्ट ही होता था। किस्ती बनाना और चलाना हमारी नन्ही दुनियाँ के खेल थे। इंद्रधनुष का भी इंतजार होता था। टटीरिहि की टी टी टी टियूँ सुनने का इंतजार रहता था। मेडक की टर्र टर्र , मोर की आवाज, केंचुए का पानी में बहना, पानी का बहना ,उसकी किस्ती की रेस अब न जाने कितनी आगे निकल गई। बड़े शहर और महानगर गंदगी के साम्राज्य बन चले है। आज पानी का भराव डराता है, पानी में पैर टच न हो जाये। बरसात में नहाने तो कहीं दूर निकल गया। किस्ती मोबाइल के खेल में तब्दील हो गई।लेकिन बच्चों में आज भी बरसात को देख उमंग होती है। नैसर्गिक उमंग , आज भी उनका भी मन होता है। लेकिन बीमारी और गंदगी के कारण खेल नही पाते । पढ़ाई का बोझ भी कारण ही है। लेकिन बच्चों को बरसात में भीगना जरूरी है। छोड़ दो कुछ समय के लिए , उसके आनंद को मत रोको। अपनी नज़र के सामने ही रखो भले। खुद भी भीग लो और प्रकृति का आनंद खुद भी लो और बच्चों को भी लेने दो। ये ही जीवन के मूल आनंद है। इनको जीवन से दूर मत करो , इनको अपने आगोस में समेट लो और डूब जाओ कुछ पलों के लिए ,ये आनंद से भर देगा , कुछ लम्हों को, ये तय है।
रमेश मुमुक्षु
अध्यक्ष ,हिमाल
9810610400
20.8.2020
Completely touched to childhood.
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